अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

स्वार्थवाद का जेनेटिक परिवर्तन

Written By: AjitGupta - Mar• 16•18

कल मुझे एक नयी बात पता चली, आधुनिक विज्ञान की बात है तो मेरे लिये नयी ही है। लेकिन इस विज्ञान की बात से मैंने सामाजिक ज्ञान को जोड़ कर देखा और लिखने का मन बनाया। मेरा बेटा इंजीनियर है और उनकी कम्पनी ग्राफिक चिप बनाती है। कम्पनी की एक चिप का परीक्षण करना था और इसके लिये लन्दन स्थित प्रयोगशाला में परीक्षण होना था। मुझे कार्य की जानकारी लेने में हमेशा रुचि रहती है तो मैंने पूछा कि कैसे परीक्षण करते हो? उसका भी पहला ही परीक्षण था तो वह भी बहुत खुश था अपने सृजनात्मक काम को लेकर। उसने बताया कि हमारी चिप, कम्प्यूटर से लेकर गाडी और हवाईजहाज तक में लगती है तो इसकी रेडियोधर्मिता के लिये परीक्षण आवश्यक होता है। सृष्टि के वातावरण में रेडियोधर्मिता पायी जाती है इसलिये चिप को ऐसा डिजाइन करना पड़ता है जिससे उसके काम में बाधा ना आए और वह अटक ना जाए। चिप को एटामिक पावर से गुजरना पड़ता है और खुद की डिजाइन को सशक्त करना होता है। जहाँ भी परीक्षण के दौरान चिप में एरर आता है, वहीं उसके डिजाइन को ठीक किया जाता है। खैर यह तो हुई मोटो तौर पर विज्ञान की बात लेकिन अब आते है समाज शास्त्र पर। मनुष्य को भी जीवन में अनेक संकटों से जूझना पड़ता है और इस कारण बचपन से ही हमें उन परिस्थितियों का सामना करने के लिये संस्कारित किया जाता है।
हमारा बचपन बहुत ही कठोर अनुशासन में व्यतीत हुआ है, पिताजी अक्सर कहते थे कि सोने के तार को यदि जन्ती से नहीं निकालोगे तो वह सुदृढ़ नहीं बनेगा उसी भांति मनुष्य को भी कठिन परिस्थितियों से गुजरना ही चाहिये। वे हमें अखाड़े में भी उतार देते थे तो घर में चक्की पीसने को भी बाध्य करते थे। हम संस्कारित होते रहे और हमारे इरादे भी फौलादी बनते गये। हमारे सामने ऐसे पल कभी नहीं आये कि जब सुना हो कि यह लड़की है इसलिये यह काम यह नहीं कर सकती, हाँ यह बात रोज ही सुनी जाती थी कि स्त्रियोचित काम में समय बर्बाद मत करो, यह काम पैसे देकर तुम करवा सकोगी। काम आना जरूर चाहिये लेकिन जो काम आपको लोगों से अलग बनाते हैं, उनपर अधिक ध्यान देना चाहिये। ये संस्कार ही हैं जो हमें प्रकृति से लड़ने की ताकत देते हैं, कल एक डाक्यूमेंट्री देख रही थी, उसमें बताया गया कि 5000 वर्ष के पहले मनुष्य ने अपना जीवन बचाने के लिये पशुओं का दूध पीना प्रारम्भ किया था। अपनी माँ के अतिरिक्त किसी अन्य पशु के दूध को पचाने के लिये शरीर में आवश्यक तत्व नहीं होते हैं लेकिन हमने धीरे-धीरे शरीर को इस लायक बनाया और हमने जेनेटिक बदलाव किये लेकिन आज भी दुनिया की दो-तिहाई जनसंख्या दूध को पचा नहीं पाती है। इसलिये शरीर को सुदृढ़ करने के लिये मनुष्य भी अनेक प्रयोग आदिकाल से करता रहा है, बस उसे हम ज्ञान की संज्ञा देते हैं और आज विज्ञान के माध्यम से समझ पा रहे हैं।
हमारे अन्दर शरीर के अतिरिक्त मन भी होता है, शरीर को सुदृढ़ करने के साथ ही मन को भी सुदृढ़ करना होता है। हमें कितना प्रेम चाहिये और कितना नहीं, यह संस्कार भी हमें परिवार ही देता है। जिन परिवारों में प्रेम की भाषा नहीं पढ़ायी जाती, वहाँ भावनात्मक पहलू छिन्न-भिन्न से रहते हैं। हमारे युग में मानसिक दृढ़ता तो सिखायी जाती थी लेकिन भावनाओं के उतार-चढ़ाव से अनभिज्ञ ही रखा जाता था लेकिन आज इसका उलट है। अब हम अपनी संतान को भावनात्मक भाषा तो सिखा देते हैं लेकिन शारीरिक और मानसिक दृढ़ता नहीं सिखा पाते, परिणाम है अनिर्णय की स्थिति। हमारे शरीर की चिप इस भावनात्मक रेडियोधर्मिता की शिकार हो जाती है, कभी हम छोटी सी भावना में बहकर किसी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और कभी अपनों के भी दुश्मन बन बैठते हैं। हमारी चिप आर्थिक पक्ष की सहिष्णु बनती जा रही है, जहाँ अर्थ देखा हमारा मन वहीं अटक जाता है। यही कारण है कि हम अपने अतिरिक्त ना परिवार की चिन्ता करते हैं और ना ही समाज और देश की। हमारे देश में परिवार समाप्त हो रहे हैं, जब परिवार ही नहीं बचे तो समाज कहाँ बचेंगे! देश की भी सोच छिन्न-भिन्न होती जा रही है इसलिये चाहे राजनीति हो या परिवारवाद, सभी में हमार स्वार्थ पहले हावी हो जाता है। हम धीरे-धीरे स्वार्थवाद से ग्रसित होते जा रहे हैं और इतिहास उठाकर देखें तो लगेगा कि हजारों सालों से हमने इसी स्वार्थवाद को पाला-पोसा है और हमारे जीन्स में भी जेनेटिक परिवर्तन आ गये हैं। कुछ सालों के परिवर्तन से इस जेनेटिक बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता है। जब अन्य पशुओं का दूध पचाने योग्य शरीर भी बनने में 5000 साल से अधिक का समय लग गया और वह भी केवल एक-तिहाई जनसंख्या तक ही बदलाव आया है तो भारतीयों को स्वार्थवाद में परिवर्तन लाने के लिये अभी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply