स्वामी विवेकानन्द की 150वीं जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेष
स्वामी विवेकानन्द बाल्यकाल से ही सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक नवजागरण के प्रखर चिंतक रहे हैं। बाल्यकाल में राम-सीता के युगल रूप की आराधना करते हुए, भक्त प्रहलाद और नचिकेता सहित अनेक पौराणिक आदर्शों का नाट्य मंचन उनके प्रतिदिन के कार्यकलापों में निहित था। उनके अन्तर्मन में संन्यास के प्रति तीव्र आकर्षण था और वे संन्यास के प्रति प्रतिबद्ध भी थे। इसलिए वे बाल्यकाल से ही ध्यान लगाकर साधना करने लगे थे। बाल्यकाल में ही उन्हें अपनी माँ से महाभारत और रामायण सहित अनेक पौराणिक ग्रन्थों और कथाओं का ज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए उनकी प्रथम गुरु उनकी माँ ही थी। अमेरिका निवास के समय उनसे एक प्रश्न किया गया कि उनकी इतनी तीव्र स्मरणशक्ति का राज क्या है? उनका सहज उत्तर था कि मेरी माँ की स्मरणशक्ति बहुत तीव्र थी, वे जिस भी ग्रन्थ को एक बार पढ़ लेती थी, वह उन्हें स्मरण हो जाता था। किशोरावस्था में वे ब्रह्म समाज के सम्पर्क में आए और मूर्तिपूजा के विरोधी हो गये। ब्रह्म समाज एक भजन संध्या में वे रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए। वे परमहंस से मिलने दक्षिणेश्वर स्थित काली मंन्दिर में जाते रहे लेकिन कभी भी वे मन्दिर में नहीं गए। उनके पिता के देहावसान के बाद जब उनके परिवार पर वित्तीय संकट उपस्थित हुआ तब वे परमहंस के पास गए और उन्होंने कहा कि आप मुझे परिवार संचालन के लिए आवश्यक वित्तीय साधनों का आशीर्वाद दें। रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि मैं कौन होता हूँ कुछ देने वाला, जा तू माँ के पास जा और उनसे ही मांग, वे ही जगत-जननी हैं, वे ही तुझे देंगी। नरेन्द्र (संन्यास के पूर्व का नाम ) प्रथम बार काली मन्दिर जाते हैं और माँ काली के समक्ष साष्टांग प्रणाम करते हैं लेकिन अपने लिए ज्ञान और भक्ति ही मांग पाते हैं। तीन बार के प्रयास के बाद भी नरेन्द्र माँ से धन नहीं मांग सके तब रामकृष्ण परमहंस ने उनके सर पर हाथ रखा और कहा कि माँ तेरे परिवार को मोटे अनाज और मोटे वस्त्र से कभी वंचित नहीं करेगी।
नरेन्द्र संन्यास लेते हैं और खेतड़ी के राजा अजीत सिंह उनका नामकरण विवेकान्द के रूप में करते हैं। संन्यास के बाद वे सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, उनसे प्रभावित होकर प्रत्येक विद्वान उन्हें यूरोप जाने का परामर्श देता है। तभी 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म संसद के आयोजन का समाचार आता है और खेतड़ी नरेश सहित अनेक विद्वान उन्हें धर्म संसद में भाग लेने का आग्रह करते हैं। वे सभी से कहते हैं कि माँ जगदम्बा की आज्ञा मिलने पर ही मैं अमेरिका जाने का विचार बनाऊँगा। इस कारण वे कन्या कुमारी जाते हैं। वे समुद्र में तैरकर समुद्र के मध्य बनी चट्टान पर तीन दिन रहते हैं। उन्हें वहाँ आभास होता है कि माँ ने उन्हें जाने की आज्ञा प्रदान की है। जब वे पूर्ण रूप से आश्वस्त हो जाते हैं तब वे शिकागो जाने के लिए तैयार होते हैं। राजा अजीत सिंह उन्हें खेतड़ी दरबार का गुरु बनाकर शिकागो के लिए रवाना करते हैं। लेकिन जब वे शिकागो पहुँचते हैं तब पता लगता है कि वे धर्म संसद प्रारम्भ होने से डेढ माह पूर्व ही अमेरिका आ गए हैं साथ ही उनका धर्म संसद हेतु पंजीकरण नहीं है। उन्हें स्मरण आता है कि वे जिस जहाज से यात्रा कर रहे थे वहाँ उन्हें एक महिला मिली थी जिसने उन्हें कहा था कि आपको यदि अमेरिका में किसी भी प्रकार की कठिनाई हो तो आप नि:संकोच मेरे घर पर चले आएं। उन्होंने केथरीन एब्बॉट सेनबार्न जो केट के नाम से प्रसिद्ध थी को तत्काल तार भेजा। केट साहित्यकार थी और महिला क्लबों में भी उसकी पकड़ थी। केट को जब स्वामीजी का तार मिला तब उसने तत्काल ही उत्तर दिया और कहा कि आप शीघ्र मेरे घर चले आएं। केट ने न केवल उन्हें अपने घर में रहने को स्थान दिया अपितु उनकी चर्चाएं भी महिला क्लब एवं बंदी सुधारगृह में करवायी। केट ने ही उनका परिचय प्रो. राइट और मिसेज राइट से कराया, जिन्होंने स्वामीजी के धर्म संसद में भाग लेने के लिए पंजीकरण कराया। स्वामी जी एक सप्ताह तक प्रो. राइट के साथ रहे और संसद प्रारम्भ होने के कुछ दिन पहले ही शिकागो लौटे। प्रो.राइट ने उन्हें धर्म संसद का पता लिखकर दिया था लेकिन रेल यात्रा में या तो स्वामी जी की जेब से किसी ने पैसे और वह पता दोनों निकाल लिए या फिर कहीं वह गिर गए। स्वामीजी जब शिकागो पहुँचे तब उन्हें कोई भी धर्म संसद का पता बताने को तैयार नहीं हुआ। स्टेशन पर वे जिससे भी सहायता मांगते वह उन्हें देखकर घृणा से मुँह फेर लेता या फिर उन्हें मारने दौड़ता। काले लोगों के प्रति उस समय घृणा का भाव मुखर था।
स्वामीजी रात व्यतीत करने के लिए स्थान की खोज में थे और उन्हें एक मालगाड़ी का डिब्बा दिखायी दिया जिससे घास बिछी हुई थी। स्वामीजी वहीं जाकर सो गए। सुबह उठकर उन्होंने फिर सहायता के लिए लोगों से याचना की लेकिन उन्हें वैसा ही व्यवहार मिला। उन्होंने लोगों के घरों में दस्तक दी लेकिन एक काले और वह भी लम्बे कोट और साफा पहने व्यक्ति को देखते ही लोग मारने और धमकी देने लगते थे। वे पैदल ही चलते रहे, विवेकानन्द हार-थककर, भूखे-प्यासे एक जगह बैठ गए। उन्हें डर था कि सार्वजनिक स्थान पर बैठने पर उन्हें दण्डित भी किया जा सकता है। लेकिन अब उनके पैर जवाब देने लगे थे। वे चिंतन कर रहे थे कि क्या माँ जगदम्बा का आदेश नहीं है? लेकिन तभी सामने के मकान से एक भद्र महिला बाहर निकली और वह सीधे ही स्वामीजी के पास आयी और उसने स्वामीजी से पूछा कि क्या आप धर्म संसद में भाग लेने आए हैं? स्वामी जी आश्चर्य चकित थे, वे बोले की माँ तू आज साक्षात उपस्थित हो गयी है। श्रीमती बेले हेल कुछ नहीं समझी। स्वामीजी ने कहा कि मैं धर्म संसद में भाग लेने आया हूँ लेकिन मुझसे वहाँ का पता खो गया है। बेले हेल ने कहा कि इतने ग्रंथों को याद करते हो और एक पता याद नहीं रख सके? श्रीमती बेले हेल उन्हें अपने घर ले गयी और स्नान और भोजन की सुविधा प्रदान की। तथा धर्म संसद के कार्यालय ले जाकर वहाँ के अध्यक्ष डॉ.बेरोज से उन्हें मिलवा दिया। श्रीमती बेले ने उनकी भरपूर सहायता की। जब स्वामी निराश हो चले थे तब माँ के रूप में ही बेले उनके समक्ष आ गयी थी।
श्रीमती एमिली लियन ने धर्म संसद के अध्यक्ष से अनुरोध किया था कि वे किसी एक प्रतिनिधि को मेरे निवास पर ठहरा सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द एमिली लियन के अतिथि बने। 11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद के प्रथम दिन जब स्वामी विवेकानन्द अपने उद्बोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने जब अमेरिकावासी मेरे भाइयों और बहिनों का सम्बोधन किया तब उपस्थित लोग खड़े होकर तालियां बजाने लगे, कुछ लोग बेंच पर खड़े हो गए। आयोजक समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर इस सम्बोधन में ऐसा क्या था जिससे लोग इतने आल्हादित हो गए हैं? उनके प्रथम उद्बोधन के बाद जब बेले हेल अपने घर गयी तो वे बहुत दुखी थी। उन्होंने अपने पति से कहा कि मैं स्वामी को ताना दे रही थी कि इतने ग्रंथों का स्मरण रखने वाला व्यक्ति एक पता भूल गया और आज मैं एक महान व्यक्ति को पहचान नहीं पायी! उसने मुझे माँ कहकर सम्बोधित किया और मैं अपने पुत्र को पहचान नहीं पायी। मैं स्वयं ही जाकर उन्हें डॉ. बेरोज को सौंप आयी और आज वे एमिली लियन के अतिथि हैं। वे अपने पति से कहने लगी कि अब मैं उन्हें अपने घर कैसे लाऊँ? उनके पति ने कहा कि तुम रोज ही उनके व्याख्यान सुनो और एक दिन उन्हे आमंत्रित कर देना, कहना कि हे पुत्र, अपनी माँ के घर कब आओगे? विवेकानन्द अवश्य आएंगे।
अमेरिका प्रवास के दौरान विवेकानन्द ने कहा था कि अमेरिका में सांस्कृतिक जागरण की कर्णधार यहाँ की महिलाएं ही हैं। वे धर्म चर्चा एवं आध्यात्म चर्चा में ना केवल रुचि लेती हैं अपितु वे उसके मर्म को भी समझती हैं। यही कारण था कि विवेकानन्द के जीवन में और उनके व्याख्यानों को आयोजित कराने में सर्वाधिक हाथ महिलाओं का ही था। उनकी प्रथम दीक्षित शिष्या भी एक महिला ही थी जिसका नाम मिस मेरी लुई था और स्वामी जी ने उसका नाम अभयानन्द रखा था। मिस सेरा बुल और मिस डचर भी ऐसे नाम हैं जिन्होंने स्वामीजी के लिए तन-मन-धन से सदैव सहयोग किया। मिस सेरा बुल तो स्वामीजी की कक्षाओं का पूर्ण आर्थिक व्यय वहन करती थी। मिस डचर ने उनके लिए स्वयं के ही एक द्वीप में जिसे स्वामीजी ने सहस्त्रद्वीपोद्यान का नाम दिया था, कक्षाओं के साथ दीक्षा का प्रबंध भी किया था। यहीं स्वामीजी ने अभयानन्द और कृपानन्द को दीक्षित किया था।
जोसोफिन, रोथलिसबर्जर और बैस्सि भी ऐसे ही नाम हैं जिनका स्वामीजी को भरपूर सहयोग मिला। जोसोफिन और बैस्सि दो बहने थी और जोसोफिन की रुचि आध्यात्म की ओर थी। वे एक दिन बाजार गयी और उन्हें “भगवत गीता” दिखाई दी। वे उस ग्रन्थ को देखकर प्रभावित हुईं और उसे खरीदकर ले आयीं। गीता पढ़ने के बाद उन्हें ऐसा लगा कि ध्यान द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और इसीलिए वे ध्यान लगाने की ओर प्रेरित हुईं। एक बार उनकी सखी रोथलिसबर्जर के साथ वे ध्यान-मुद्रा में बैठी थी, उनकी सखी ने उन्हें बताया कि मुझे ध्यान में एक व्यक्ति दिखायी दिया है जिसने सफेद वस्त्र लपेट रखे थे। जोसोफिन ने कहा कि यह तुम्हारा भ्रम होगा, लेकिन रोथलिस बर्जर ने कहा कि नहीं यदि मैं इस इंसान को कहीं भी देखूंगी तो मैं इन्हें पहचान सकती हूँ। जब जोसोफिन और रोथलिस विवेकानन्द से मिली तब उन्हें लगा कि हमें स्वामीजी की कक्षाओं में निरन्तर आना चाहिए। एक दिन स्वामी जी “मेरे गुरु” विषय पर अपना उद्बोधन दे रहे थे, सभी की जिज्ञासा थी कि स्वामी जी अपने गुरु का कोई चित्र दिखाएं। स्वामीजी ने तब रामकृष्ण परमहंस का चित्र सभी के समक्ष रखा। चित्र देखते ही रोथलिसबर्जर ने कहा कि मैंने इन्हें ही अपने ध्यान में देखा था। स्वामीजी ने कुछ नहीं कहा, वे समझ गए थे कि उनके गुरु उनसे पूर्व ही अमेरिका आ गए थे। इसी कारण जोसोफिन ने स्वामीजी से कहा कि मैं आपकी शिष्य नहीं हूँ अपितु आपकी गुरु-भाई हूँ इसलिए मैं आपकी सखी हूँ। और जोसोफिन सदैव ही स्वयं को स्वामीजी की सखी कहती रही। उन्होंने ही स्वामीजी के उद्बोधन को लिपिबद्ध करने का प्रारम्भ किया। उनकी बहन बैस्सि का विवाह फ्रांसिस लेगेट से हुआ, वे धनाढ्य व्यक्ति थे और उन दोनों ने ही स्वामीजी का सदैव साथ दिया।
महिलाओं के योगदान की सूची बहुत विस्तृत है। स्वामीजी के व्याख्यानों में अधिकांश महिलाएं ही होती थी। ना केवल वे व्याख्यान सुनती थी अपितु उन्हें लिपिबद्ध कर प्रकाशन की व्यवस्था भी वे ही करती थी। स्वामीजी की कक्षाओं के लिए स्थान की व्यवस्था, उनके व्याख्यान की व्यवस्था, उनके भोजन की व्यवस्था में पूर्ण रूप से अमेरिका की महिलाओं का योगदान था। इसलिए स्वामीजी कहते थे कि अमेरिका का सांस्कृतिक जागरण महिलाओं के कारण ही है। कई बार तो स्वामीजी व्यस्त होते थे और पत्रकार उनका साक्षात्कार लेने आ जाते थे, ऐसे में पत्रकार के प्रश्नों का उत्तर उनकी महिला शिष्या ही दे देती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि वे सभी वेदान्त में पूर्ण निष्णात हो गयी थी। इसलिए जिस भी राष्ट्र में महिलाओं का बौद्धिक जागरण होता है वह राष्ट्र बौद्धिक समृद्धि से परिपूर्ण होता है।
शानदार आलेख के लिए आभार।
विवेकानंद जी के बारे में जितनी बार भी पढ़ो लगता है अभिये पढ़ रहे हैं, इससे पहले कुछ नहीं पढ़े थे।
aalekh padkar bahut achchha laga, yuvaon ko prerna milti hai
निश्चय ही अतुल्य योगदान रहा है नारीशक्ति का..
शानदार आलेख
उनका योगदान सच में अतुलनीय और विचार अनुकरणीय है ……..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (13-12-2013) को (मोटे अनाज हमेशा अच्छे) चर्चा मंच-1123 पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आज भी यही समय की जरूरत है, अधिक से अधिक महिलायें अधिक से अधिक जागृत हों।
स्वामी विवेकानंद जी के 150 वें जन्मदिन पर अच्छी जानकारी देता हुआ सार्थक लेख।
काश कि लोग उनके जीवन से सीख सकें।
विवेकानंद जी पर लिखते हुये आपने वर्तमान परिपेक्ष की जरूरतों को बखूबी अभिव्यक्त किया है. सशक्त आलेख.
रामराम.
बहुत जानकारी मिली धन्यवाद..
आज अपने देश को एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है .दृष्टि के आभाव में हमारे लोग भटक गये हैं.आपने नैतिक बल से उन्हें सही मार्ग दिखला सके ,काश कि ऐसा समर्थ नेतृत्व मिल सके .
स्वामी विवेकानंद जी के विषय में और महिलाओं के योगदान के बारे में बहुत बढ़िया जानकारी मिली …. आभार इस लेख के लिए ।
जिस राष्ट्र की महिलाएं शिक्षित होते हैं वहां के पुरुष सर्वोच्य शिखर पर होते हैं। आपकी पोस्ट पढ़ते हुए महारानी मदालसा की कहानी याद हो आई….हे मेरे देश कब मांओं की सुध लोगो..ताकि उनके पुत्र ज्यादा मर्यादित हो सकें।
स्वामी विवेकानंद को बरसों बाद ध्यान से पढ़ा , सत्संग के लिए आभार आपका …
विवेकानन्द जी को आप सभी ने स्मरण किया और इस आलेख को पढ़ा, इसके लिए आभार।