अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

हमारी फरियाद है जमाने से

Written By: AjitGupta - Mar• 21•17

कोई कहता है कि मुझसे मेरा बचपन छीन लिया गया कोई कहता है कि मुझसे मेरा यौवन छीन लिया गया लेकिन क्या कभी आपने सुना है कि किसी ने कहा हो कि मुझसे मेरा बुढ़ापा छीन लिया गया है। लेकिन मैं आज कह रही हूँ कि मुझसे मेरा बुढ़ापा छीन लिया गया है। सबकुछ छिन गया फिर भी हँस रहे हैं, बोल नहीं रहे कि हमारा बुढ़ापा छिन गया है। समय के चक्र को स्वीकार कर हम सत्य को स्वीकार कर रहे हैं। मेरे बचपन में मैंने माँ को कभी रोते नहीं देखा और कभी भी नहीं देखा। पिता की सारी कठोरता को वे सहन करती थी लेकिन रोती नहीं थी, हमने भी यही सीख लिया कि रोना नहीं है। अब इतनी बड़ी चोरी हो गयी या डाका पड़ गया लेकिन फिर भी हँस रहे हैं, क्योंकि माँ ने रोने के किटाणु अन्दर डाले ही नहीं।
मैं अपने आस-पड़ोस में रोज ही देखती हूँ कि बुढ़ापे में लोग या 50 वर्ष की आयु के बाद ही सारे घर को कामों से निवृत्त हो जाते हैं। घर को बहु सम्भाल लेती है और आर्थिक मोर्चे को बेटा। बस माता-पिता का काम होता है सुखपूर्वक समाज में अपने सुख को बांटना। पोते-पोती को अपनी गोद में खिलाने का सुख लेना। जीवन सरलता से चल रहा होता है। हमारे बड़ों ने यही किया था, हमने भी यही किया और हमारी संतान भी यही करेगी। लेकिन यह क्रम शिक्षा के कारण अब टूट गया है। इक्कीसवीं शताब्दी में यह क्रम मृत प्राय: हो गया है। हमने अपनी संतान के बचपन को जीने का पूरा अवसर दिया, उन्हें उनके यौवन को जीने का भी पूरा अवसर दिया लेकिन जब हमारी बारी आयी तब वे खिसक लिये। अपने उज्जवल भविष्य के लिये उन्होंने हमारे सारे अधिकार ही समाप्त कर दिये।
कल अपने मित्र के निमंत्रण पर उनके घर गये, निमंत्रण भोजन का था लेकिन उन्होंने पेट को तो तृप्त किया ही साथ ही मन को भी तृप्त कर दिया। तीन माह का उनका पोता हमारी गोद में था, यह होता है बुढ़ापे का सुख, जो हम से छीन लिया गया है और उसकी शिकायत हम समाज के सम्मुख कर रहे हैं। यदि मैंने मेरी संतान के बचपन को छीन लिया होता तो आज मुझे कितनी गालियां पड़ रही होतीं लेकिन किसी ने मेरे बुढ़ापे को छीन लिया है तो उसका संज्ञान समाज लेता ही नहीं। हँसकर कह दिया जाता है कि अपने भविष्य के लिये बच्चे को ऐसा करना ही पड़ेगा। उल्टा मुझे ही तानों का दण्ड मिलेगा, इसलिये त्याग की अपनी महान छवि बनाने के लिये हँसना जरूरी हो गया है। लेकिन बुढ़ापा तो छिन ही गया है, अब जो भी है उसे कुछ और नाम दे दो, यह बुढ़ापा नहीं है, बस जीवन की सजा है। इसलिये हमारी उम्र के लोग कहने लगे हैं कि किसलिये जीना, हमारी संतान कहती है कि खुद के लिये जीना। लेकिन यदि हम यौवन में ही खुद के लिये जीते तो तुम्हारा बचपन क्या होता? अब हमसे कहते हो कि खुद के लिये जिओ, यह ईमानदारी तो नहीं है। हाँ यह जरूर है कि हम तुम्हारी बेईमानी को भी हँसकर जी लेंगे क्योंकि हमारे अन्दर तुम्हारे लिये प्रेम है, बस अब इस प्रेम का आवागमन रूक गया है। बुढ़ापा तो छिन ही गया है। जिस बुढ़ापे ने नयी पीढ़ी को गोद में नहीं खिलाया हो, उसे संस्कारित नहीं किया हो, भला उस बुढ़ापे ने अपना कार्य कैसे पूरा किया? इसलिये हमने अपना बचपन जीया, यौवन भी जीया लेकिन बुढ़ापा नहीं जी पा रहे हैं। बुढ़ापे का मतलब दुनिया में एकान्त होता होगा लेकिन भारत में कभी नहीं था लेकिन अब हमें एकान्त की ओर धकेला जा रहा है तो यही कहेंगे कि हम से हमारा बुढ़ापा छीन लिया गया है। हमारी फरियाद है जमाने से। फरियाद तो हम करेंगे ही, चाहे हमें न्याय मिले या नहीं। हम भारत में नागरिक हैं तो हमें हमारी परम्परा चाहिये। हमें भी हमारा बुढ़ापा चाहिये। जैसे पति-पत्नी के अलग होने पर संतान का सुख बारी-बारी से दोनों को मिलता है वैसे ही संतान का सुख दादा-दादी को भी मिलने का अधिकार होना चाहिये। मैं लाखों लोगों की ओर से आज समाज के सम्मुख मुकदमा दायर कर रही हूँ। हमारी इस फरियाद को जमाने को सुननी ही होगी।

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4 Comments

  1. Ramesh Chandra Gupta says:

    बहुत सुंदर।आज के समाज की सच्चाई है।

  2. वृद्धावस्था को उसका वही गौरव मिलेगा कभी, यह सोचना भी मुश्किल लगता है.वृद्धो की संख्या सारी दुनिया में बढ़ती चली जा रही है .शिशुओं की जन्मदर गिरती जा रही है .जीवन का सारा ढर्रा ही बदल गया.ये नये ढंग (खाना-पीना सोना-जागना ,और बाकी रहन-सहन ) वयोवृद्ध जनों को अनुकूल नहीं लगते ,सब लोग इतने व्यस्त हैं कि उन्हें अपने लिये ही समय कम पड़ता है .भावना की जगह ले ली है बौद्धिकता ने .
    आपने जो कहा मुझे अपने हिसाब से ठीक लगा ,लेकिन सबके अपने-अपने हिसाब हैं उनके अपने तर्क हैं -न्याय तर्कों के आधार पर होता है न!

  3. AjitGupta says:

    समाज के समक्ष हम अपनी बात रखने पर कभी ना कभी तो परिवर्तन होगा ही।

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