भगवान का दरबार लगा है, मतलब मन्दिर सजा है। सैकड़ों भक्त कतार में लगे हैं। सभी हाथ जोड़े, आँख मूंदे, प्रार्थना कर रहे हैं। भगवान के जो सबसे समीप जा पहुँचा है, वह राजनेता बनने की जुगत बिठा रहा है। हे भगवान बस मुझे एक बार टिकट दिला दे, तो कैसे वारे-न्यारे करता हूँ, तेरा भी भव्य मन्दिर बनवा दूंगा। राजनेता की बगल में ही एक सज्जन खड़े दिखायी दे रहे हैं, वे झुक-झुक कर दोहरे हो रहे हैं। हे भगवान! बस एक बार सरकारी नौकरी दिला दे, फिर देख कैसे दिखाता हूँ मैं अपना जलवा। तभी डण्डा फटकारता हुआ कांस्टेबल आ जाता है। हे भगवान! बस एक बार इन्सपेक्टर बना दे, पत्नी को सोने से लाद दूंगा और तेरे को भी सोने का मुकुट चढाऊँगा। किसी को मालदार पति, किसी को गाय जैसी पत्नी, किसी को परीक्षा में अच्छे नम्बर तो कोई अच्छा खिलाड़ी बनने की अर्जी लगाए, दरबार में खड़ा है। शायद भगवान को भी नहीं मालूम की मेरी सारी ही मानवीय-प्रजा मांगने के प्रति इतनी जागरूक है।
एक बार भगवान ने सोचा कि चलो इन सबकी इच्छा पूरी कर ही देता हूँ, अब तो यह मेरे पास मांगने नहीं आएंगे और अपना कार्य करेंगे। लेकिन जैसे ही उनकी इच्छा पूरी हुई, वे दुगुने जोश के साथ फिर मांगने लग गए। राजनेता को विधायक बना दिया तो वह मंत्री की कुर्सी मांगने लगा, सरकारी नौकरी मिल गयी तो वह बॉस बनने की भीख मांगने लगा, इन्सपेक्टर अब थानेदार बनना चाहता था। खिलाड़ी अब केप्टेन बनना चाहता था। भगवान एक दिन उनके दफ्तर का चक्कर लगा आए, लेकिन वहाँ सारी कुर्सियां खाली पड़ी थी। विधायक के लिए जनता इन्तजार कर रही थी और विधायक जी मुख्यमंत्री जी के पास मक्खन लगा रहे थे। सरकारी बाबू, बड़े बाबू के तलवे चाट रहा था और इन्सपेक्टर एसपी के घर बच्चों को खिला रहा था। कोई भी बन्दा अपना कार्य नहीं कर रहा था। भगवान को लगा कि इनकी मांग पूरी करके मैंने भूल कर दी है। लेकिन भगवान को भी अपनी कुर्सी खतरे में दिखायी देने लगी, यदि मैंने किसी भी भक्त की मांग को पूरा नहीं किया तो फिर मेरे दरबार का क्या होगा? मेरे पुजारियों का क्या होगा?
पूरे भारत में कमोबेश यही वातावरण है। कोई भी अपने पद से खुश नहीं है। ना ही अपने पद के कर्तव्यों का पालन करना चाहता है। बस उसे और आगे का पद चाहिए। विधायक बन गया तो मंत्री होना चाहिए और मंत्री होते ही मुख्यमंत्री के सपने आने लगते हैं। मुख्यमंत्री बनते ही प्रधानमंत्री की कुर्सी दिखायी देने लगती है और प्रधानमंत्री बनते ही नोबेल पुरस्कार या संयुक्त राष्ट्र संघ दिखायी देता है। जिस पद का अधिक से अधिक वर्चस्व हो, बस उसी की चाहत रहती है। अपने पद की गरिमा बनाने की चेष्ट ना के बराबर रहती है। ऐसे सारे लोग प्रतिदिन दौड़ रहे हैं, कभी मन्दिरों में, कभी अपने आकाओं के द्वार पर तो कभी ज्योतिषियों के यहाँ। मिनट भर की फुर्सत नहीं है, और काम धेले का नहीं है।
लेकिन इसके विपरीत भी लोग हैं। जो अपने छोटे से पद को लेकर ही खुश रहते हैं और मन लगाकर काम करते हैं। उन्हें प्रमोशन भी मिलता है। उनके कार्य के अनुभव के कारण सभी लोग अपने पास रखना चाहते हैं। जब मंत्रीपद के लिए सूची बनती है तब ऐसे ही कर्मठ लोग याद आते हैं जो सरकार को चला सकें। ऐसे ही ईमानदार सरकारी नौकर याद आते हैं जो जनता को न्याय दिला सकें। ऐसे ही खिलाड़ी नजर आते हैं जो खेल में जीत दिला सके। प्रत्येक क्षेत्र की यही कहानी है। भगवान के आगे हाथ जोड़े खड़े रहने से या अपने बॉस के सामने मक्खनबाजी करने से कुछ लाभ मिल तो सकता है लेकिन वह लाभ स्थायी नहीं होता।
आज देश में इसी भिक्षावृत्ति के कारण मन्दिरों की बाढ़ आ गयी है। जिन सुधारवादियों ने मूर्तिपूजा को निरर्थक बताया था, वहाँ भी मस्जिद और अपने गुरुओं के स्थान बन गए हैं। एक से एक भव्य और एक से एक विशाल। कोई भी अपने ईष्ट जैसा नहीं बनना चाहता, कोई भी प्रार्थना नहीं करता कि हे प्रभो! मुझे तेरे जैसा बनना है, उसके लिए बता मैं क्या करूँ? ना कोई मोहम्मद साहब बनना चाहता है, ना कोई ईसा बनना चाहता है, ना कोई कृष्ण बनना चाहता है, ना कोई राम बनना चाहता है, ना कोई गुरु गोविन्द सिंह बनना चाहता है, ना कोई दयानन्द सरस्वती बनना चाहता है और ना ही कोई शिव बनना चाहता है। सभी की निगाह धन और सत्ता पर है। सारे ही धार्मिक ठिकानों पर धन अटा पड़ा है और उनके बाहर भिखारियों की लम्बी लाइन लगी है। अन्दर भी भिखारी और बाहर भी भिखारी। जब भगवान के समक्ष खड़ा कुबेर भी हाथ पसारे खड़ा है तो बाहर दो रोटी के लिए भीख मांग रहे भिखारी से क्या परहेज! दुनिया को त्याग का पाठ पढ़ाने वाले इस देश में क्या कभी इस प्रकार की भिक्षावृत्ति से मुक्ति मिलेगी? कर्म का संदेश देने वाले इस देश में क्या हम अपने पद पर रहकर उसे ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करने का कार्य करेंगे या फिर उच्च पदों की आकांक्षा में ऐसे ही दौड़ते रहेंगे? अपने अन्दर ईश्वर का कण मानने वाले इस देश में क्या कभी लोक कल्याणकारी ईश्वर बनने के प्रयास होंगे? बहुत प्रश्न हैं, न जाने कितने यक्षप्रश्न हैं? समाधान कहीं से नहीं मिलता। जिन्हें समाधान देना है, वे तो मठाधीश बन गए हैं। स्वयं को ही उन्होंने साक्षात ईश्वर घोषित कर दिया है। क्या राजनेता, क्या धार्मिक उपदेशक, क्या समाजसुधारक, सभी महिमा मण्डन में लगे हैं। जो जनता अपने कार्य कर रही है, उन्हें ऐसे ही लोग उपदेश दे रहे हैं। सारे ही मंचों पर ऐसे लोग दिखायी देते हैं। जनता को त्याग की महिमा का बखान करते हैं और मोबाइल पर अपनी कुर्सी की चिन्ता हर मिनट करते हैं। आज राजनेता सबसे बड़ा विद्वान हो गया है, किसी भी मंच की शोभा वे ही होते हैं। आज मठाधीश सर्वाधिक पूजनीय हो गए हैं, उन्हें सभा में बुलाना गर्व की बात हो गयी है। जिनके कर्तव्य और ईमान से यह सृष्टि चल रही है, उन्हें ये लोग कर्तव्य और ईमान का उपदेश दे रहे हैं। हे भगवान! ऐसे लोग आखिर कहाँ जाकर रुकेंगे?
इनसे भगवन! ये क्यों नही कहते …तुमे करोड़ो देकर , फिर अपने दिए हुए से ही कुछ भाग रिश्वत का लूँ ..क्या बेवकूफ लगता हूँ मैं तुमे ….जाओ ख़ुद कमाओ और ख़ुद खाओ …..???
यही तो मुश्किल है सही हल मिल जाये तो पौ बारह ….
इसी लिये हम आज लिखे :
कुछ देवताओं ने धरती पर अपने-अपने भक्तों की भलाई के लिये बहुत खींच तान की। छोटे देवता अपने भक्तों की भलाई के लिये काफ़ी कुछ करना चाहते हैं लेकिन कर नही पाते। कारण पता चलता है कि उनकी भलाई से किसी शक्तिशाली देवता के भक्त के हित बाधित होते हैं। जूनियर देवता, सीनियर देवता के जलवे के आगे निस्तेज हो जाते हैं। अपनी शक्ति वर्धन के उपाय करते हैं। मत्युलोक में अपने मंदिर बढ़वाने के लिये भक्तों को उत्साहित करते हैं। भक्त जमीन की कमी की बात कहते हैं तो देवता उनके दिमाग में आइडिया भेजते हैं कि- वत्स-सड़क के बीच डिवाइडर पर मंदिर बना, कूड़ाघर के ऊपर बना, नदीतट पर बना, नाले पर नींव धर, वीराने में आबाद कर। जहां जगह मिले कब्जा कर और मंदिर बना। धर्म के काम करने में संकोच मती कर।
अनूप जी, यह आलेख मैं पूर्व में पढ़ चुकी हूँ, सशक्त व्यंग्य था।
लालचियों से घिरे भगवान्…
यही समस्या है अजीत जी !! अपना काम कोई नहीं करना चाहता, बस या तो दूसरों के काम में टांग अडानी है या उपदेश देना है.बढ़िया उदाहरण देकर बात रखी है आपने.
यहाँ तो हर कोई भिखारी दिखाई देता है। मन्नत मांगना सबसे बड़ा भ्रष्टाचार बन गया है। लोगों को स्वार्थी बनकर मांगने में शर्म भी नहीं आती। बस मुझे ये मिल जाये , फिर सारी दुनिया जाये भाड़ में।
और तो और अब तो एक दुसरे को देखकर सडकों पर भी मंदिर मस्जिद बनने लगे हैं। किसी की क्या मजाल कि इन्हें हटा दें। धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा ढकोसले हमारे ही देश में होते हैं।
सार्थक चिंतन।
मित्रों!
13 दिसम्बर से 16 दिसम्बर तक देहरादून में प्रवास पर हूँ!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-12-2012) के चर्चा मंच (भारत बहुत महान) पर भी होगी!
सूचनार्थ!
ये लालच कहाँ थमेगा ?भगवन के नाम पर कितना व्यापार ?
कभी पूजा के सामान की एक आध दुकान हुआ करती थी आज बाजार अटे पड़े रहते है पूजन सामग्री से, और यही पूजन सामग्री उपयोग में आने के बाद मंदिरों , सडको पर ,नदियों में बहकर पर्यावरण को दूषित करती जाती जाती हैहै ।
भगवान की धारणा भी तो आदमी की बनाई हुई है -अपने हिसाब से उसे भी ढाल लिया !
हर तरफ़ परितुष्ट करने की होड़ है।
भगवान् का गणित भी फेल कर दिया इन सत्ता और धन के लोलुप इंसानों ने अंधविश्वास भी बढ़ गया है ना जाने कहाँ जा रही है शिक्षा, बहुत अच्छा जागरूक करता आलेख बधाई आपको
सार्थक चिंतन … त्याग का पाठ पढाने वाले इस देश में स्वार्थियों का वर्चस्व हो गया है … निजी फायदा देखने लगे हैं सभी … कहने को शिक्षा पहले से ज्यादा हुई है देश में … पर अंधी दौड़ शुरू हो गई है …
आजकल मठाधीश और नेता ही तो माई बाप हो गये हैं.
रामराम
अच्छा ,आधुनिक भारत का माहौल रचा है शब्दश : इस पोस्ट में .कर्तव्य च्युत सभी कर्तव्य निष्ठ कोई कोई …..यही पांच फीसद देश को चला रहें हैं यदि सभी कर्तव्य निष्ठ हो जाएँ तो भारत चीन से बाज़ी मार ले हर मोर्चे पे इस ड्रेगन को पछाड़ दे .