अभी कुछ दिन पूर्व अग्रवाल समाज के एक कार्यक्रम में नीमच जाने का अवसर मिला। युवाओं की स्वयंसेवी संस्था ने सुविधा युक्त वृद्धाश्रम का निर्माण कराया था। मुझे कार्यक्रम के साथ उस वृद्धाश्रम का अवलोकन भी कराया गया था। शहर से दूर, बहुत ही सुन्दर स्थान पर 20-22 बुजुर्गों के रहने के लिए स्थान बनाया गया था। पृथक कक्ष, डोरमेट्री, भोजनशाला आदि की समुचित व्यवस्था थी। बाहर भी काफी बड़ा लॉन, सब्जी उगाने के लिए किचेन-गार्डन, मन्दिर आदि की व्यवस्था भी थी। एकबारगी देखकर बहुत अच्छा लगा। इससे पूर्व भी कई जगह ऐसे वृद्धाश्रम देखने का अवसर मिला था। आज परिवार टूट रहे हैं, परिवारों के युवा शहर से दूर महानगरों में या विदेश में जा बसे हैं। पीछे केवल बुजुर्ग रह गए हैं। वे अकेले हैं, कोई साथी नहीं है। बीमार पड़ने पर चिकित्सक की व्यवस्था करना भी दूभर प्रतीत होता है। ऐसे में यदि कुछ सम-व्यस्क व्यक्तियों के साथ जीवन को गुजारा जाए तो शायद सुविधाजनक होगा। पति-पत्नी के लिए कक्ष की व्यवस्था है और जो अकेले हैं उनके लिए डोरमेट्री की व्यवस्था है। भोजनशाला है और कक्ष के साथ पृथकश: रसोई भी है जिसमें वे रात-बिरात चाय आदि का प्रबंध कर सकें।
किचेन गार्डन में सब्जी उगाइए और उन्हीं ताजा सब्जियों का प्रयोग करिए। सुबह-शाम लॉन में टहलिए। दिन में एकसाथ बैठकर खेलकूद कीजिए और कभी बीमार हों तो चिकित्सक की सेवाएं भी वहीं उपलब्ध हो जाएंगी। बस इसके लिए आपको पैसा देना है। ऐसे वृद्धाश्रम देखकर मन खुशी से भर जाता है कि चलो अब हमारे परिवार के बुजुर्ग अकेले नहीं रहेंगे। उनका शेष जीवन आनन्द से गुजरेगा। लेकिन सिक्के के दो पहलू होते हैं। कहीं दिन है तो कहीं रात होती है। इसलिए मुझे इस दिन के उजाले में दूसरी तरफ रात का अंधेरा भी दिखायी दे गया। सिक्के का दूसरा पहलू भी देखिए –
एक भवन में 20-22 बुजुर्ग रह रहे हैं। सभी की औसतन उम्र 70 के करीब होगी। उनमें से अधिकांश किसी ने किसी बीमारी से ग्रसित होंगे। किसी को डायबिटीज है तो किसी को अस्थमा, किसी को एसीडिटी है तो किसी के घुटने जवाब दे गए हैं। किसी को भूलने की बीमारी है तो किसी को चलने में कठिनाई है। ऐसी अनेक बीमारी उनके साथ लगी होगी। बातों में उनके पास कुछ नया नहीं है, वहीं पुरानी बाते हैं जिसमें अपने गाँव-परिवार से लेकर बेटे-बहु, बेटी-दामाद और पोते-पोती की बाते हैं। अपनी-अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं हैं। आखिर इन बातों को कोई कितने दिन करेगा? किसी दिन दुर्दिन भी आएगा, उनके किसी साथी की बीमारी बढ़ जाएगी। सभी चिंतित हो जाएंगे, अब क्या होगा? उसे देखकर सभी का रोग भी स्वत: ही बढ़ जाएगा। यदि दुर्भाग्य से किसी की मृत्यु हो गयी तब तो ऐसा वीराना छाएगा कि उसे सहेजना कठिन रहेगा। आज ये गया, कल मेरा नम्बर है, बस यही चिन्तन रहेगा। उनके पास जीवन नहीं है, बस है तो नजदीक आ रही मृत्यु है।
इसके विपरीत परिवार में प्रतिपल जीवन है। नवीन आ रहा है और पुरातन जा रहा है। गम आता है लेकिन साथ में खुशी भी आ जाती है। मरघटी सन्नाटा नहीं है अपितु परिवार में बच्चों का कलरव है। घुटनों को पकड़-पकड़कर चलने वाली दादी भी बच्चे के साथ दौड़ने लगती है। पत्ता पीला पड़ गया है, अब शाक से झड़ने ही वाला है लेकिन कहीं दर्द नहीं है क्योंकि उसी के साथ नवीन कोंपल फूट आयी है। बेटे-बहु के गर ताने हैं तो पोते-पोती का सुख भी है। हँसते-खेलते परिवार के बीच एकाध बुजुर्ग की बीमारी गौण हो जाती है। परिवार में झगड़ों के बीच भी जीवन है और वृद्धाश्रम में शान्ति के बाद भी मृत्यु है।
भारत में लोग जानते हैं परिवार का आनन्द। इसलिए वे नहीं जाते इन वृद्धाश्रमों में। यदि उन्हें जाना ही है तो वे जाते हैं वृन्दावन, वे जाते हैं हरिद्वार। वहाँ जीवन भी है और आनन्द भी। कभी-कभी हमारी जरूरत अवश्य बन जाते हैं ये वृद्धाश्रम, लेकिन मन की संतुष्टि नहीं दे पाते। व़ृन्दावन में, मैं ऐसे एक दम्पत्ति से मिली जो वहाँ बड़े आनन्द से रह रहे थे। उनका सारा दिन भजन करते हुए, नाचते हुए एक आश्रम में व्यतीत होता था। एक छोटा सा घर बनवा लिया था, खाना बनाकर बस आश्रम में चले जाते थे और सारा दिन ही हँसते हुए व्यतीत हो जाता था। मेरे मन में उन्हें देखकर प्रश्न उठ रहे थे, वे समझदार थे, उन्हें मेरे मन के प्रश्न सुनायी दे गए। वे बोले कि आप सोच रहे हैं कि हम अपना परिवार छोड़कर यहाँ क्यों हैं? अभी जब हमारे हाथ-पैर चलते हैं तब हम परिवार में नहीं रह रहे और जब मृत्यु करीब आएगी तब परिवार में चले जाएंगे? नहीं ऐसा नहीं है, हम यहाँ मरने के लिए ही आए हैं, क्योंकि इस पवित्र भूमि पर मृत्यु हो, इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा? सच में मुझे उनका आनन्द समझ आ गया। हमारे देश के ये पुरातन वृद्धाश्रम थे, जहाँ जीवन भी था और आनन्द भी। प्रतिदिन हजारों-लाखों पर्यटक जहाँ आते हों, प्रतिदिन भजन-पूजन होता हो, भगवान के बहाने प्रसाद बनता हो और मिलता हो, भला ऐसे आश्रम किसे सुखी नहीं करेंगे। लेकिन अब वर्तमान आधुनिक old age homes ने इनका स्थान लेना प्रारम्भ किया है, जो नीरस हैं। जहाँ केवल एकान्त है, एकान्त का सन्नाटा कितना दुखदायी होता है, शायद कभी एकान्त भोग कर ही समझा जा सकेगा। अन्तिम क्षण तक जीवन कैसे जीवन के साथ रहे, बस परिवार यही है। इसके विकल्प हमारे तीर्थ स्थलों पर बने आश्रम तो बन सकते हैं लेकिन वृद्धाश्रम नहीं। आपके क्या विचार हैं?
बहुत सही लिखा है आपने, ओल्ड एज होम्स की जिंदगी कहने को भले ही अच्छी दिखाई पडे किंतु उनमें नीरसता है, चिंता की बात यह है कि आज परिवार टूट रहे हैं, वृद्धों को घर में तिरस्कार की दृष्टि से उपेक्षित किया जा रहा है. वृंदावन वास कम से कम वृद्धाश्रमों से तो ठीक ही है, पर जो वृद्धावस्था व्यतीत करने का आनंद घर परिवार में बेटे पोतों के साथ है वो कहां मिलेगा.
आज हम जिस व्यवस्था पर बढ रहे हैं उस पर पुनर्विचार की जरूरत है, काल किसि को नही छोडता आज जो युवा हैं वो कल वृद्ध होंगे.
रामराम.
मन करता है कि एक वृद्धाश्रम बनवाएं और आपस में खुशियाँ बांटें !
उम्र के अंतिम पड़ाव पर जहां मन लगे वही स्थान उपयुक्त है …. परिवार में रहते हुये सुकून न मिले ॥हर समय उपेक्षा हो … ताने हों और यहाँ भी एकाकी जीवन जीना पड़े तो वृद्धाश्रम क्या बुरे हैं ? कम से कम हम उम्र के लोग तो होंगे … हर व्यक्ति का मन भजन में नहीं रमता ….बाह्य कारणों से आनंद की प्राप्ति नहीं होती ….. इसके लिए मन के अंदर आनंद स्रोत ढूँढने पड़ते हैं । जहां परिवार का साथ हो वो तो सोने पर सुहागा है लेकिन जहां नहीं हो उनके लिए वृद्धाश्रम भी बुरे नहीं ।
आपकी बात से सहमत हूं … घर परिवार का माहोल, खुशियों भरा जीवन बहुत जरूरी है जीने के लिए और ये सब वृद्ध-आश्रम में नहीं मिल पाता … पर फिर भी मेरा मानना है … की इनकी जरूरत समाज में है … खास कर के तेज़ी से भोगवाद की तरफ बढते हुए समाज में …
आपकी पोस्ट का दूसरा पहलू मुझे भी विचलित करता है. वृद्धाश्रम कहीं भी हों भीड़ में अकेलेपन का एहसास लिए होते हैं.
पर वहीँ यह जरूरी नहीं कि हर किसी को वृन्दावन और हरिद्वार सुहाय.
जीवन के अन्तिम वर्षों में सबको जीवन की शान्ति देना हम सबका धर्म है। प्रभावी आलेख।
आजकल वृद्धाश्रम समय की माँग है क्योंकि हम स्वयं अपने बच्चों खुद ही देश-विदेश पढ़ने के लिए भेज देते हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद अगर वे अच्छी नौकरी पा जाएँ और घर न लौटना चाहें तो हम कुछ कहने के अधिकारी नहीं. बच्चे स्वयं आ जाएँ तो अलग बात है ऐसे में वृद्धाश्रम का विकल्प आने वाले समय मे और भी ज़रूरी हो जाएगा. हमेशा मन में एक ख्याल आता रहा है पता नही कितना सही है सोचना… कि वृद्धाश्रम स्कूल , कॉलेजों के परिसर के किसी एकांत कोने में हों चाहे छोटे छोटे हो लेकिन जहाँ बच्चे और जवान हों उन्हीं के आसपास हों. वृद्धों की ज़रूरत और बच्चों के लिए ज़रूरी हो समय समय पर मिलना.
सही कहा आपने नए वृद्धाश्रमों से तो तीर्थ स्थलों के वृद्धाश्रम भले लेकिन शिखा जी की बात से भी सहमत हूँ कि यह भी ज़रूरी नहीं हर किसी को वृंदावन और हरिद्वार सुहाये…
पल्लवीजी और शिखा जी, वृन्दावन और हरिद्वार एक उदाहरण हैं, ऐसे देश में अनेक स्थान हैं जहाँ लोग रहते हैं। ये तीर्थस्थल भी हैं और हिल-स्टेशन पर भी हैं। ऐसे स्थानों पर रहने से व्यक्ति जीवन से जुड़ा रहता है जबकि वृद्धाश्रमों में केवल एकान्त ही मिलता है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (31-05-2013) के “जिन्दादिली का प्रमाण दो” (चर्चा मंचःअंक-1261) पर भी होगी!
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
जीवन के प्रवाह से बिलकुल कट जाते हैं वृद्धाश्रम जैसे एक टापू .लेकिन वर्तमान में उनका उपयोग भी है .घर का वातावरण उनके लिये कैसा है यह तो वही जान सकते हैं .कोई ऑप्शन तो होना चाहिये !
तथाकथित परिवार में घुट घुट कर मरने से कहीं बेहतर है कि वृद्धाश्रम की सच्ची को स्वीकार कर ही लिया जाए
अच्छा चित्रण किया है ! घर सबसे अच्छी जगह है किसी के लिये भी। लेकिन बदलते समय के साथ वृद्धाश्रम कड़वी सच्चाई बन गये हैं।
वृद्धाश्रम का नाम जितना लिखने में सुन्दर लगता है, उतना ही पीड़ादायक है इसके पीछे का सच.. आजकल टीवी पर हैवेल्स का एक विज्ञापन आता है जिसमें एक युवा जोड़ा, ऐसे ही वृद्धाश्रम में जाता है जहाँ की वार्डन उनको कहती हैं कि वे उनके वृद्ध अभिभावकों की देखभाल अच्छे से करेंगी.. जबकि उसके उलट वे दोनों ये कहते हैं कि हम यहाँ से माँ-बाप एडोप्ट करने आये हैं..
आज हम पशुओं को गोड लेने की बात सोच सकते हैं, लेकिन माँ-बाप भी तो गोड लिये जा सकते हैं.. सुनने में शायद अटपटा लग सकता है, लेकिन डॉक्टर दी, यह विषय भी एक डिस्कशन की माँग करता है!!
हाँ सलिल जी, हेवल्स का एड मैंने भी देखा है, वास्तव में उसपर भी चर्चा होनी चाहिए।
मेरे हिसाब से भरा पूरा परिवार हो और सब समझदार हो तो अपने घर में जो ख़ुशी मिलती है वह कहीं नहीं ….
बहुत बढ़िया चिंतन
Ajeet ji!
chintan ke sutra dene ke liye badhai.bacchon ki unnati ki kamna karna mata -pita ki chahat hai.jab bacchhe us chahat par khare utarte hain to hum khush hote hain.khushi ki isi raftar me ve aage bad jate hain or hum piche chut jate hain.yah to samay rahte hame means parents ko hi tay karna padega ki bacchho ko age bhejna hai ya santosh ki gutti pila kar sath rahna hai ya unke sath jane ko taiyar hona hai.
yah jaroor hai ki jin pariwaron me tyag ki bhawna hai,vanha sabhi apna space pa jate hain.
Hansa hinger,udaipur
Vridha asram to anek banye ja skte
Hai seva bhi karege magar meri
Salah se aisi kranti lani chahiye
jis she logo ki sonch me pariwartan ho
Log vridha asram bejna band ho jave
Aapne hi likha har sikke ke do pahlu hote hain.Aapne dono sikkon ko achhi tarah byakhan kiya hai.magar aise maa- bap khan jaye jinke bachhe unhe puchhte hi nahi.kafi dino se mai bridhon keliye kam karne ki soch rahi thi magar aapne to sochne ko majbur kar diya……..itni babri jimmebari mai le paungi?