अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

नमन है तुझको कवि!

Written By: AjitGupta - Aug• 10•19

धारा 370 क्या समाप्त हुई, कवि की कविता ही समाप्त हो गयी! कल एक चैनल पर हरिओम  पँवार ने कहा। वे बोले की मैं चालीस साल से कश्मीर पर कविता कह रहा था लेकिन आज मुझे खुशी है कि अब मेरी कविता भी समाप्त हो गयी है। न जाने कितने कवियों ने कश्मीर पर कविता लिखी, सारे देश में कविता-पाठ किया और हर भारतवासी के दिल में कश्मीर के प्रति भाव जगा दिया। उसी भाव का परिणाम है कि आज धारा 370 हटने के बाद देश में अमन-चैन है। हरिओम पँवार कहते हैं कि मैंने आज तक किसी भी सरकार की प्रशंसा में कविता नहीं लिखी लेकिन आज मजबूर हो गया हूँ कि मोदी और अमित शाह के लिए लिखूं।

मैं अक्सर कहती हूँ कि पहले साहित्यकार सपने देखता है फिर वैज्ञानिक उसे  पूरा करते हैं। चाँद का सपना पहले कवि ने ही देखा था, वैज्ञानिक उनकी कल्पना से ही चाँद तक पहुँचने की सोच को धरती  पर उतार सके। कवि कहता है कि मेरे देश में मुझे यह चाहिये और राजनेता उसे पूरा करते हैं। किसी कवि ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि देश के दो टुकड़े होंगे, देश में कश्मीर समस्या बनेगी! लेकिन यह हुआ, और जो बिना कवि की कल्पना के हो वह दुर्घटना ही होती है।

जो राजनेता देश के सपनों को पंख नहीं देता अपितु दुर्घटना में भागीदार बनता है, उसे देश कभी दिल में नहीं बिठाता। कुछ राजनेताओं ने एक मायाजाल बुना और उसमें केवल अपना नाम लिखा। यह अच्छा ही हुआ। कल तक हम कहते थे कि केवल एक परिवार का नाम! आज कह रहे हैं कि अच्छा किया जो एक परिवार का ही नाम लिखा। तुम ही उत्तरदायी हो, केवल तुम ही। तुमने देश को दो टुकड़ों में बाँटकर, कश्मीर को समस्या बनाकर कवि की कल्पना में विष घोल दिया था, उसके उत्तरदायी तुम अकेले ही हो।

जब देश में आजादी की बयार बह रही थी उस समय कवि ने कितने सपने संजोये होंगे! लेकिन उन सपनों पर तुषारापात कर डाला नेहरू-गाँधी ने। जिन्ना ने डराया और गाँधी डर गया! जिन्ना ने कहा कि हमें पाकिस्तान दो नहीं तो मैं सीधी कार्यवाही करूंगा और गाँधी डर गया! जिन्ना ने सीधी कार्यवाही की और तीन लाख लोगों का बंगाल में कत्लेआम करा दिया और गाँधी डर गया! गाँधी नोआखाली में घूमता रहा, डर कर देश को बचाने आगे नहीं आया लेकिन सोहरावर्दी को बचाने नोआखाली में घूमता रहा!

नेहरू-गाँधी डरते रहे और देश बँटता रहा, समस्याओं से लदता रहा, कवि की कल्पना मरती रही। आज कवि ने कहा कि मेरा दर्द सिमट गया, अब फिर नए सपने बुनूंगा और देश की आँखों में भरूँगा। कवि के शब्दों में बहुत बल होता है, वह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है और जब घड़ा भरता है तब चारों ओर पानी ही पानी होता है। सत्तर साल से कवि घड़े को भर रहा था, सारा देश पानी ही पानी हो रहा था लेकिन मोदी ने कहा कि कवि थम जा, अपनी लेखनी की शक्ति को अब विश्राम दे, मैं तेरा दर्द समझ गया हूँ और उसने एक छोटी सी गाँठ को खोल दिया, सभी को आजाद कर दिया।

देश पूर्ण बन गया, देशवासियों के सपने पूरे हो गये और विद्रोहियों के सपने चकनाचूर हो गये। अब कवि को विश्राम मिला है। कवि निहार रहा है अब अपने ही देश को, जो कभी उसे सोने नहीं देता था लेकिन आज वह जागकर देश को निहार रहा है। मैं उन सभी कवियों को नमन करती हूँ कि जिनने देश के दिलों को जगाए रखा, सपने को मरने नहीं दिया और आशा को टूटने नहीं दिया। कवि जानता था कि कोई तो आएगा जो हिम्मत जुटा लेगा और कवि को निराश नहीं करेगा। अब कवि नए जोश के साथ देश को सपने दिखाएगा और अपनी आजादी को कैसे बचाकर रखा जाता है उसके लिये भी हमारे अन्दर जोश भरता रहेगा। नमन है तुझको कवि!

डर पर पहला प्रहार

Written By: AjitGupta - Jul• 31•19

मैं एक बार महिलाओं के बीच बुलाई जाती हूँ, महिलाएं मुस्लिम थीं। वे अनपढ़ लेकिन कामगार भी थीं। महिलाएं कहने लगी कि हम तलाक-तलाक-तलाक से कब निजात पाएंगे? मेरे पास उत्तर नहीं था लेकिन समझ आने लगा था कि महिलाओं की यह तड़प एक दिन क्रान्ति का सूत्रपात अवश्य करेगी। मैं मूलत: चिकित्सक भी रही हूँ, देखती थी महिलाओं की आँखों में निराशा, उदासी और कहीं-कहीं मानसिक अवसाद। उनके अन्दर डर बढ़ता जा रहा था, वे आवाज नहीं उठा पा रही थीं। जब पहली बार शाहबानो ने आवाज उठाई थी तब राजीव गाँधी को कठमुल्लों ने अपने वोटों की ताकत से डरा दिया था और बेचारी शाहबानो बेचारी बनकर ही रह गयी थी। कैसा समाज है जहाँ पुरुष की चिन्ता की जा रही है लेकिन महिला की आवाज दबा दी जाती है। पुरुष को अल्लाह से बड़ा बना दिया जाता है और औरत गुलाम से बदतर बना दी जाती है। कल फिर संसद में देखा कि लोगों के मन में डर बसा है, कहीं इन पुरुषों के खिलाफ हम बोल गये तो हमें वोट नहीं मिलेंगे। कर दो महिला के प्रति अन्याय, हमारा क्या जाता है! आश्चर्य होता है ऐसे लोगों पर, जो महिला पर होने वाले अत्याचार को अनदेखा कर देते हैं! ऐसे समूह को समाज नहीं कहा जा सकता यह गिरोह मात्र हैं।

लेकिन देश-दुनिया ने जिस डर को हवा दी, उसी डर को मोदी ने नहीं माना। वह महिला के सामने ढाल  बनकर खड़ा हो गया। उसके अपने लोगों ने भी साथ छोड़ने की धमकी दी, परायों ने तो खुली बगावत कर ही दी। वोट ना मिले, सत्ता ना रहे लेकिन भयमुक्त समाज रहना चाहिये। वह राजा ही क्या जिसकी प्रजा भयमुक्त ना हो। भययुक्त करना तो राक्षसों का काम है, मानव तो सदा से भयमुक्त करता आ रहा है। 70 साल से देश का राजा भययुक्त था, वह खुद डरा हुआ था तो भला प्रजा को क्या भयमुक्त रख पाता।

कल मेरी आँखे भी मन थी, लग रहा था कि एक पिशाच जो हम सबकी ओर तेजी से बढ़ रहा था, थम गया है। हो सकता है कि यह पिशाच फिर अपना प्रभाव स्थापित करने के लिये और कोई क्रूरता करे लेकिन अब इस पिशाच के सामने एक महामानव खड़ा हो गया है। इस पिशाच का एक और अड्डा है, जहाँ इसने महिलाओं के साथ बच्चों को भी कैद कर रखा है। जन्नत कहते रहे हैं हम उसको और किताबों में कश्मीर नाम दर्ज है। इस डर को खत्म करने महामानव ने प्रण ले लिया है, इसबार कश्मीर को इस डर से मुक्त कराना है। एक बार कश्मीर से डर विदा हो गया तो मानो डर के पैर उखड़ जाएंगे। फिर पूरा देश भयमुक्त होगा।

यह प्रश्न किसी सम्प्रदाय का नहीं है, यह डर भी किसी विशेष वर्ग का नहीं है। क्योंकि जब शैतान डर को साथ लेकर मानवों को डराने लगता है तब सबसे पहला वार महिला और बच्चों पर ही करता है। इसलिये कल केवल मुस्लिम महिला आजाद नहीं हुई हैं, अपितु दुनिया की सारी महिलाएं भयमुक्त होने लगी हैं। उन्हें एक ऐसा महापुरुष दिखायी देने लगा है जो कह रहा है कि मैं दुनिया को अभय दूंगा।

कल का दिन हम सबके लिये दीवाली मनाने का दिन था, यह डर एक मजहब से दूसरे धर्म तक अपने पैर पसार रहा था। लोग कहने लगे थे कि हिन्दुओं को  भी महिला को बच्चे जनने की मशीन बना दो, उसे पर्दे में रखो, उसे पुरुष की अनुगामिनी बना दो। जहाँ-जहाँ भी शारीरिक  बल दिखाकर डर को समाज में स्थापित किया जाएगा वहाँ-वहाँ कमजोर पर पहला प्रहार होगा।

इसलिये आज का दिन अभय का दिन है। किसी राजनेता ने हिम्मत जुटाई और डर के सामने तनकर खड़ा हो गया। वह जानता है कि यह डर कैसे सम्पूर्ण मानवता को लील जाएगा इसलिये इसके पैर उखाड़ने ही होंगे। आज कोई खुश हो ना हो, लेकिन मैं खुश हूँ, मैंने उन 100 महिलाओं की आँखों में जो खौफ देखा था, बगावत देखी थी, उन्हें अभय का वरदान मिला है। मानो हम सबको अभय का वरदान मिल गया है। राखी का धागा फिर से बाहर निकल आया है, मोदी की कलाई पर सज गया है। महिला कह रही है कि तुम भाई के रूप में आए हो हमारी जिन्दगी में, हमारी रक्षा करने। मोदी ने एक कदम रख दिया है, बस आगे दूसरे कदम के लिये हम तैयार हैं। जैसे ही तीन गज धरती नापेंगे, भयमुक्त समाज का निर्माण हो जाएगा। अभी तो हम सब को बधाइयाँ, डर के आगे जीत की बधाइयाँ, भयमुक्त समाज की नींव की बधाइयाँ।

ये असली बुद्धीजीवी

Written By: AjitGupta - Jul• 27•19

इस देश में सदा से ही बुद्धीजीवियों का बोलबाला रहा है, इस पर कुछ लोगों का कब्जा रहता है। हमने भी कभी नहीं सोचा कि हम बुद्धीजीवी हैं लेकिन कुछ संस्थाओं ने यहाँ अपनी नाक घुसड़ने की सोची और करने लगे गोष्ठियाँ। प्रबुद्ध सम्मेलन, बौद्धिक सम्मेलन आदि आदि। जब उसमें बुलावा आता तो हम भी खुशी के मारे उछल जाते लेकिन बाद में देखा कि हम कितने ही विद्वता की बात कर लें लेकिन एक खास वर्ग हमें बुद्धीजीवी मानने को तैयार ही नहीं है। बस उन्हीं का पठ्ठा होना चाहिये। हमने भी मान लिया कि छोड़ों इस आभिजात्य वर्ग को और घर पर ही अपनी बुद्धी का डंका बजाते रहो।

लेकिन कौन हैं ये बुद्धीजीवी और क्या आचरण हैं इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिये। एक बार की बात है, हमें न्यूयार्क जाने का अवसर मिल गया। अवसर भी मिला वह भी ढेर सारे बुद्धीजीवियों के साथ। हम अछूत से एक तरफ बैठे रहे और इनके करतब देखते रहे। एयर इण्डिया की फ्लाइट में हम बैठे थे। हमारी सीट के कुछ ही आगे एक सोफा लगा था और वहाँ इन प्रबुद्ध लोगों का जमावड़ा था। पास ही एयर होस्टेज का केबिन भी था। खैर शराब वितरण का समय हुआ और पूरी बोतल लपक ली गयी। अब शुरू हुआ शेर-शायरी का दौर, कोई 70 का तो कोई 80 का लेकिन चुश्की लेने में कोई कम नहीं। उछल-उछलकर शेर पढ़े गये, दाद दी गयी और जैसे संसद में आजम खान ने वातावरण दूषित किया वैसे ही यहाँ भी होने लगा।

अब एयर होस्टेज बाहर निकली, एयर इण्डिया में तो अनुभवी ही होती हैं सभी! साड़ी भी पहने थी। किस्मत से मैंने भी साड़ी पहन ली थी। जब वही उम्रदराज एयर होस्टेज मेरे पास शराब सेवन के लिये पूछने आयी थी तो मैंने मना कर दिया था। बोल रही थी कि ले लो, थोड़ी तो ले लो। लेकिन यह करतब देखकर उसे लगा कि मैं ही सबसे ज्यादा संजीदा हूँ। एक तो साड़ी, फिर शराब नहीं। वह मेरे पास आयी और बोली कि क्या ये लोग आपके साथ हैं? मैं सोच में पड़ गयी कि क्या उत्तर दूं? वे सारे बुद्धीजीवी थे तो भला मैं उनकी साथी तो हो ही नहीं सकती थी, लेकिन सारे  ही भारत सरकार के प्रतिनिधि थे तो साथ भी थे। मैंने कहा कि आप ऐसा करें कि वे जो थोड़ी दूर बैठे हैं, वे विदेश विभाग के सेकेट्ररी हैं तो उनसे कहिये, वे आपकी समस्या को सुलझा सकेंगे।

मैंने उसे सुझाव देकर आँख बन्द कर ली। कुछ देर बाद आँख खोली तो देखा कि हमारे सचिव महोदय सर झुकाकर खड़े हैं और कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। मुझे तब इनका दबदबा समझ आया। आखिर केप्टेन बाहर निकला, डाँट लगाई और सारे पर्दे गिराकर अंधेरा कर दिया। कहा कि चुपचाप सो जाओ। ऐसे लोग बुद्धीजीवी की गिनती में आ सकते हैं, हम तो कभी सपने में  भी इस जाजम पर नहीं बैठ सकते हैं!

भारत सरकार में हो या राज्य सरकारों में, इनका ही दबदबा है। विदेश यात्राओं में इनके शराब के अतिरिक्त बिल, सरकारें चुकाती आयी हैं और ये सरकारों की पैरवी करते आये हैं। इस सरकार में माहौल बदलने लगा है, इनका दबदबा कम होने लगा है तो ये बगावत पर उतर आये हैं। कभी पुरस्कार वापस करके भीड़ एकत्र करते हैं तो कभी पत्र लिखकर। इन बुद्धीजीवियों की मान्यता पक्की है और हम जैसे टटपूंजियों को कोई मान्यता देता नहीं। इनका पद संवैधानिक है, सरकारों को इनकी हर बात माननी ही है। देश में ऐसे दूसरा वर्ग पैदा ही नहीं होता जो दूसरों को भी मान्यता प्रदान कर दे और इनकी लाइन के बराबर बिठा दे। फिल्म उद्योग में दो चार  लोग पैदा हुए हैं, वे टक्कर लेने लगे हैं। लेकिन साहित्य जगत में बस वे ही वे हैं। दो वर्गों में देश बंटता जा रहा है – एक अभिजात्य वर्ग है तो दूसरा अछूत वर्ग। लड़ाई यहीं से शुरू होती है, अभिजात्य वर्ग कहता है कि केवल हम हैं और अछूत वर्ग कहता है कि हम भी हैं। मोदीजी तक अछूत वर्ग में आते हैं। अभिजात्य वर्ग कहता है कि हम तुम्हें प्रधानमंत्री मानते ही नहीं। मोदीजी लगे हैं सारे ही अछूतों का उद्धार करने लेकिन संघर्ष तगड़ा है। अब तो देखना है कि मोदीजी इस अभिजात्य वर्ग पर प्रहार कर पाएंगे या नहीं। मोदीजी हर व्यक्ति को बुद्धीजीवी बनने और मानने की छूट दे पाएंगे या नहीं। राजतंत्र से लोकतंत्र की स्थापना कर पाएंगे या नहीं। मोदीजी ने इन लोगों की उपेक्षा तो कर दी है लेकिन वास्तविक बुद्धिजीवियों को सहयोग नहीं किया है। जब तक अपनी लाइन को बड़ा नहीं करेंगे तब तक ये ही शेर बने रहेंगे और रोज शोर मचाते रहेंगे।

आखिर प्रेम का गान जीत ही गया

Written By: AjitGupta - Jul• 26•19

एक फालतू पोस्ट के  बाद इसे भी पढ़ ही लें।

लोहे के पेड़ हरे होंगे

तू गान प्रेम का गाता चल

यह कविता दिनकर जी की है, मैंने जब  पहली बार पढ़ी थी तब मन को छू गयी थी, मैं  अक्सर इन दो लाइनों को गुनगुना लेती थी। लेकिन धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगा और लगा कि नहीं लोहे के पेड़ कभी हरे नहीं होंगे, यह बस कवि की कल्पना ही है। आज बरसों बाद अचानक ही यह पंक्तियां मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। कहने लगी कि कवि को ललकार रही हो! देखो तुम्हारे लोहे के पेड़ की ओर देखो! उस समय मैं अंधे कूप में डूब रही थी, मुझे दिख रहा था इस अंधकार में अपना भविष्य। तभी लोहे के पेड़ से हरी पत्तियां फूट निकली, देखते ही देखते तना हरा हो गया। असम्भव सम्भव बनकर सामने खड़ा था, मैं अन्धे कूप से डर नहीं रही थी अपितु मैंने मजबूती से हरे होते लोहे के पेड़ को थाम लिया था। अब अंधेरे में अकेले होने का संत्रास नहीं था, बस खुशी थी कि मेरा प्रेम जीत गया है, मेरा लोहे का पेड़ हरा हो गया है। कवि की कल्पना ने पंख ले लिये हैं और प्रेम के गान की आखिर जीत हो गयी है। अब गम नहीं, अब शिकायत भी नहीं, बस अब तो अंधेरे में भी जीवन को ढूंढ ही लूंगी।

आप समझ नहीं पा रहे होंगे कि क्या घटित हो रहा है मेरे जीवन में! लेकिन आज अपनी कहने का मन हो आया है। कैसे लोहे के पेड़ को हरे होंगे, कल्पना साकार हो उठी है! कहानी तो बहुत बड़ी है लेकिन एक अंश भर छूने का मन है, अमेरिका में बसे पोते का मन हुआ कि अब बड़ा हो रहा हूँ तो भारत आकर दादी और नानी के पास रहकर देखता हूँ। एक सप्ताह मेरे पास रहा, मैंने उसे मुक्त छोड़ दिया। उपदेश देने की कोई जिद नहीं और ना ही अपना सा बनाने का कोई आग्रह। वह खुश रहा और वापस लौट गया। माता-पिता ने देखा कि बेटा अचानक खुश रहना सीख गया है! मतलब हमारे लालन-पालन में कुछ अन्तर है। इधर मेरा जीवन अंधे कुए की ओर बढ़ने लगा, मैंने देखा की मेरे आंगन में लोहे का पेड़ खड़ा है, सारे प्रेम गीतों के बाद भी कोई उम्मीद नहीं है हरी पत्तियों की। बस सारे संघर्ष मेरे अपने है।

बेटे से बात होती है, वह कहता है कि हम गलत थे, मैं समझ गया हूँ कि खुशियाँ कैसे आती हैं। अपने  बेटे के चेहरे पर खुशियाँ देख रहा हूँ और अपने जीवन में बदलाव लाने का प्रयास कर रहा हूँ। तब मैंने कहा कि तुम्हारी नयी पीढ़ी ने सारे रिश्तों के सामने पैसे की दीवार खड़ी कर दी, रिश्तों को नहीं देखा बस देखा तो पैसे को, इसके लिये इतना और इसके लिये इतना। तुमने माँ से कहा कि तुम बहुत दृढ़ हो, सारे काम तुम्हारे, हमारा कुछ नहीं। घर के सभी ने कहा कि सारे काम तुम्हारे। मेरे ऊपर बोझ लदता चला गया और तुम सब मुक्त होते चले गये। लेकिन मैंने कभी हँसना नहीं छोड़ा, मैंने कभी अपना दर्द किसी पर लादना नहीं चाहा, बस प्रेम देने में कसर नहीं छोड़ी। इस विश्वास पर जीती रही कि लोहे का पेड़ शायद हरा हो जाए! विश्वास टूट गया लेकिन फिर भी जिद रही कि अपना स्वभाव तो नहीं छोड़ना। और एक दिन जब मैं अंधे कुएं में गिर रही थी, मैंने लोहे के पेड़ को थामने की कोशिश की अचानक ही देखा कि लोहे के पेड़ पर हरी पत्तियां उगने लगी हैं। मेरा परिश्रम बेकार नहीं गया है, अब मैं जी उठूंगी, अकेले ही सारे संघर्ष कर लूंगी क्योंकि एक सम्बल मेरे साथ आकर खड़ा हो गया है। मैं पैसे को हराना चाहती थी, लेकिन हरा नहीं पाती थी। मैं रिश्तों को जीत दिलाना चाहती थी लेकिन दिला नहीं पाती थी। हर हार के बाद भी जीतने का क्रम जारी रखती थी, मन में एक ही धुन थी कि गान तो प्रेम का ही गाना है, पैसे का गान नहीं। जिस दिन मेरे लिये काली रात थी, जिस दिन मैंने देखा कि मैं हार रही हूँ, लेकिन नहीं प्रेम कभी हारता नहीं और पैसा कभी जीतता नहीं। जैसे ही प्रेम जीता, पैसा गौण हो गया। पैसे के गौण होते ही सब कुछ प्रेममय हो गया। व्यक्ति अक्सर कहता है कि मैं क्या करूँ, कैसे करूँ? असल में वह पैसे का हिसाब लगा रहा होता है कि ऐसा करूंगा तो इतना खर्च होगा और वैसा करूंगा तो इतना! फिर वह अपने आपसे भागता है, खुशियों से भागने लगता है। इसी भागमभाग में दुनिया अकेली होती जा रही है, हम हिसाब-किताब करते रह जाते हैं और खुशियाँ ना जाने किस कोने में दुबक जाती हैं। पैसे कमाने के लिये हम  दौड़ लगा रहे हैं, अपनी मजबूरी बता रहे हैं लेकिन यही पैसा एक दिन हमारे लिये मिट्टी के ढेर से ज्यादा कीमती नहीं रह जाता है। सारे वैभव के बीच हम सुख को तलाशते रहते हैं। क्योंकि खुशियों की आदत ही खो जाती है। हरा भरा पेड़ कब लोहे का पेड़ बन जाता है, पता नहीं चलता। लेकिन मैं खुश हूँ कि मेरे लोहे के पेड़ पर हरी पत्तियां आने लगी हैं। आखिर प्रेम का गान जीत ही गया।

एक फालतू सी पोस्ट

Written By: AjitGupta - Jul• 21•19

जिन्दगी में आप कितना बदल जाते हैं, कभी गौर करके देखना। बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक हमारी सूरत ही नहीं बदलती अपितु हमारी सोच भी बदल जाती है। कई बार हम अधिक सहिष्णु बन जाते हैं और कई बार हम अधीर। बुढ़ापे के ऐप से तो अपनी फोटो मिलान करा ली लेकिन हमारी सोच में कितना बदलाव आया है, इसकी भी कभी गणना करना। मेरा बचपन में खिलंदड़ा स्वभाव था, अन्दर कितना ही रोना छिपा हो लेकिन बाहर से हमेशा हँसते रहना ही आदत थी। कठोर अनुशासन में बचपन बीता लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदला। लेकिन जब जिन्दगी के दूसरे पड़ाव में आए तब स्वभाव बदलने लगा। जो काम कठोर अनुशासन नहीं कर पाया वही काम हमारी लकीर को छोटी करने का हर क्षण करते प्रयास ने कर डाला। नौकरी करना ऐसा ही होता है जैसे गुलामी करना, जहाँ गुलाम को कभी अहसास नहीं होने दिया जाता कि तू कुछ काम का है, वैसे ही नौकरी में हर क्षण सिद्ध किया जाता है कि तुम बेकार हो। हमें भी लगने लगा कि वाकयी में हम कुछ नहीं जानते। जैसे ही आपको लगता है कि आप कुछ नहीं जानते, बस उसी क्षण आपका खिलंदड़ा स्वभाव कहीं पर्दे के  पीछे छिपने लगता है। स्वाभाविकता कहीं खो जाती है। हम महिलाओं के साथ स्वाभाविकता खोने के दो कारण होते हैं, एक नौकरी और दूसरा पराया घर। नौकरी तो आप छोड़ सकते हैं लेकिन पराये घर को तो अपनाने की जिद होती है तो अपनाते रहते हैं, बस अपनाते रहते हैं। इस अपनाने में हम पूरी तरह अपना स्वभाव बदल देते हैं।

पराया घर तो होता ही है, हमें बदलने के लिये। तभी तो कहा जाता है कि इस घर में ऐसा नहीं चलेगा। इस संसार में हर व्यक्ति एक काम जरूर करता है और वह है कि दूसरे पर खुद को थोपना। जैसे ही हमें अंश मात्र अधिकार मिलता है, हम दूसरों को बदलने के लिये आतुर हो जाते हैं। बच्चों को हम अपनी मर्जी का बनाना चाहते हैं। पति पत्नी को अपनी राह पर चलने को मजबूर करता है और पत्नी भी पति को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ती। हमारा प्रत्येक व्यक्ति से मिलना प्रेम और आनन्द के लिये नहीं होता, अपितु दूसरे को परिवर्तन के लिये होता है। हम हर क्षण दूसरे को प्रभावित करने की फिराक में रहते हैं।

हमने अपने जीवन में क्या किया? यदि इस कसौटी पर खुद को जाँचे तो बहुत सारी खामियाँ  हम में निकल जाएंगी। हम मुक्त नहीं कर पाते हैं। अपना अधिकार मान लेते हैं कि इन पर शासन करना हमारा अधिकार है। मैं बचपन को अनुशासन से इतनी संतृप्त थी कि मैंने प्रण लिया कि बच्चों को खुली हवा में सांस लेने दूंगी। वे जो बनना चाहे बने, जैसा जीवन जीना चाहे जीएं, मेरा हस्तक्षेप नहीं होगा। लेकिन फिर भी ना चाहते हुए भी हमने न जाने कितनी बातें उनपर थोपी होंगी। कई बार मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ जब बच्चों के बीच होती हूँ। उनके पास शिकायत रहती ही है, जिसकी आपको कल्पना तक नहीं होती, वह शिकायत पालकर बैठे होते हैं। तब मैं और बदल जाती हूँ। घर परिवार के किसी सदस्य से बात करके देख लीजिये, उनके पास एक नई कहानी होगी। आप क्या सोचते हैं उसके परे उनकी कहानी है। आपकी करनी  पर उनकी कहानी भारी पड़ने लगती है और बदलने लगते हैं। आप चाहे बदले या नहीं, लेकिन मैं जरूर बदल जाती हूँ।

जिन्दगी भर देखा कि यहाँ हर व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति की तलाश रहती है, जिसे वह अपना अनुयायी कह सके, उसे अपने अनुरूप उपयोग कर सके। लेकिन कोई किसी को आनन्द के लिये नहीं ढूंढता है। मुझे यह व्यक्ति अच्छा लगता है, इसकी बाते अच्छी लगती है, इसकारण कोई किसी के पास नहीं फटकता बस उपयोग ढूंढता है। बहुत कम लोग  हैं जो जिन्दगी भर आनन्द का रिश्ता निभा पाते हैं नहीं तो उपयोग लिया और फेंक दिया वाली बात ही अधिकतर रहती है। मैं जब भी किसी व्यक्ति से मिलती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ लेकिन मेरा अनुभव है कि अक्सर लोग मुझसे मिलते हैं तो यही सोचते हैं कि मैं इसका उपयोग कैसे ले सकता हूँ। मैं कुछ लोगों से प्रभावित होकर निकटता बनाने का प्रयास करती हूँ तो क्या पाती हूँ कि लोग मुझे अपना अनुयायी बनाने में जुट गये हैं। कुछ दिनों बाद वे अचानक ही मुझसे दूर हो गये! मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ कि क्या हुआ! पता लगता है कि मुझे अनुयायी  बनाने की कुव्वत नहीं रखते तो किनारा कर लिया। ऐसे में मैं बदलने लगती हूँ।

मैं आज जमाने की ठोकरों से इतना बदल गयी हूँ कि अपना बदला रूप देखने के लिये मुझे किसी ऐप की जरूरत नहीं पड़ती, मुझे खुद को ही समझ आता है कि मेरा खिलंदड़ा स्वभाव कहीं छिप गया है। खो गया है या नष्ट  हो गया है, यह तो नहीं लिख सकती, बस छिप गया है। मन का आनन्द कम होने लगा है। रोज नए सम्बन्ध बनाने में रुचि नहीं रही, क्योंकि मैं शायद अब किसी के उपयोग की वस्तु नहीं रही। लेकिन फिर भी एकान्त में लेखन ही मुझे उस खिलंदड़े स्वभाव को याद दिला देता है, मन के आनन्द की झलक दिखा देता है और कभी कोई महिला हँसती हुई दिख जाती है तो सुकुन मिल जाता है कि अभी हँसी का जीवन शेष है।