अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

एकान्तवास की बातें

Written By: AjitGupta - Mar• 22•20

मैंने बचपन से ही स्वयं से खूब बातें की हैं, मुझे कभी एकान्त मिला ही नहीं! मैं कभी अकेली हुई ही नहीं! क्योंकि मेरे साथ मेरा मन और मेरी बातें हमेशा रहती हैं। जब भी कोई सामने नहीं होता है, मेरा मन फुदककर मेरे पास आ जाता है और बोलता है – चल बातें करें। दुनिया जहान की बाते हैं मेरे मन के पास, कभी कहता है चल अपनी ही सुध ले ले, कभी कहता है कि देख दुनिया में क्या हो रहा है! मन इस होड़ में लगा रहता है कि मैं कहीं पिछड़ ना जाऊं! दुनिया में जितनी बातें चलती हैं उनका पूरा का पूरा विश्लेषण मुझ से कराकर ही दम लेता है। वह कहता रहता है कि नहीं इस तरह से सोच, नहीं इस तरह से सोच।

अब दुनिया अपने में सिमट रही है, सारे ही अपने घरों में आ गये हैं। मानो पक्षी अपने घरों में लौट आए हों। जब पक्षी अपने घरौंदों में लौटते हैं तो जिस पेड़ पर उनका घरौंदा होता है, वहाँ कभी शाम को जाना हुआ है आपका? कितनी चहचहाट होती है वहाँ, मानो हर पक्षी होड़ में लगा है कि अपनी बात कह ली जाए! मैं तो जब भी ऐसे पेड़ों के नीचे होती हूँ तो लगता है जैसे अपने ही मन का कोलाहल सुन रही हूँ। बस सुनती रहती हूँ। अब घर भी उस पेड़ की तरह लग रहे हैं, कोलाहल से भरे हुए। सभी को कुछ कहना है, किसी को किसी की नहीं सुननी। जब हम स्कूल/कॉलेज से आते थे तो बस अपनी बहन के साथ शुरू हो जाते थे, जितना दिन भर मन के अन्दर भरा था, सब निकाल देते थे। घर में चहचहाट सी हो जाती थी। फिर नम्बर आया हमारे बच्चों का, तब भी वहीं होता था। पहले मैं, पहले मैं की रट लग जाती थी। दोनों ही बच्चे सुनाने के बेताब रहते थे। भोजन की टेबल से उठकर वे मेरी गोद में घुसने की कोशिश में रहते थे और बतियाते रहते थे। जैसे ही पतिदेव की नजर पड़ती, बोलते कि पिल्ले माँ के साथ पड़े हुए हैं।

उन दिनों सारा घर ही बातें करता था, दूसरे कमरे में सास होती, ननद  होती, देवर होते, सारे ही बतिया रहे होते। मेरा मन तब कहता कि इतना शोर है घर में, मुझ से बात करने का अवसर ही नहीं है तेरे पास! लेकिन मैं तो मन से बात करने का मौका ढूंढ ही लेती। फिर लगा कि लिखना शुरू कर दो तब मन बिल्कुल मेरे पास आकर बैठ जाता और बोलता कि मैं जो कहूँ बस वही लिखना है। मैं उसी की लिखती रहती। तब मन को ऐसा सुगम रास्ता मिल गया कि मैं जैसे ही एकान्त पाऊं और मन कह दे कि चल मेरी बात लिख! अरे बाबा यह क्या है! कुछ थम जा। चल तू बात करते रहे, क्या पता कुछ अच्छा मिल जाए।

मेरा घर तो बरसों से एकान्तवास ही है, मेरे मन का पूरी तरह से कब्जा है मुझ पर। अब तो लिखने को प्लेटफार्म भी है, बस मन बकबक करता रहता है और मैं लिखती रहती हूँ। मुझे एकान्त तो कभी मिलता  ही नहीं। मैं अपने मन के साथ हमेशा धूणी रमाए रहती हूँ। रात को जब सोने जाती हूँ तब मन को कई बार डाँटना पड़ता है कि चुप हो जा, अब सोने दे। यह भी फेसबुक की तरह रात-दिन बतियाना ही चाहता है कमबख्त! मेरे दिन तो एकान्तवास में ही कटते हैं इसलिये मैं तो मजे में हूँ, आपको भी कह रही हूँ कि अपने मन से  बतियाना सीख लो और इस एकान्तवास के मजे लूटो।

वह घर जो सपने में आता है!

Written By: AjitGupta - Mar• 20•20

मेरे सपने में मेरे बचपन का घर ही आता है, क्यों आता है? क्योंकि मैंने उस घर से बातें की थी, उसे अपना हमराज बनाया था, अपने दिल में बसाया था। जब पिता की डाँट खायी थी और जब भाई का उलाहना सुना था तब उसी घर की दीवारों से लिपटकर न जाने कितनी बार रो लेती थी। लगता था इन दीवारों में अपनापन है, ये मेरी अपनी है। कभी किसी कोने में बैठकर बड़े होने का सपना देखा था और कभी चोर-सिपाही तो कभी रसोई बनाने का खेल खेला था! अपने घर के ठण्डे से फर्श पर न जाने कितनी गर्मियों की तपन से मुक्ति पायी थी! जब बरसात सभी ओर से भिगो देती थी तब इसी की तो छाँव मिलती थी। ठण्ड में कुड़कते हुए किसी कोने में सिगड़ी की गर्माहट से यही घर तो सुखी करता था! क्यों ना सपनों में बचपन का घर आएगा!

मेरा अपना घर जो मैंने अपने सारे प्रयासों में बनाया था, कभी सपनों में नहीं आता! मैं रोज आश्चर्य करती हूँ कि कभी तो आ जाए यह भी, आखिर इसे भी तो मैंने प्यार किया है! लेकिन नहीं आता! वह किराये का मकान जो वास्तव में घर था, हमारे सपनों में आता है और जो हमारा खुद का मकान है वह हमसे सपनों में भी रूठ जाता है! शायद इसे हमने घर नहीं बनाया! हमने यहाँ बैठकर बातें नहीं की, हमने यहाँ सपने नहीं संजोएं। बस भागते रहे अपने आप से, अपनों से और अपने घर से। सुबह उठो, जैसे-तैसे तैयार हो जाओ और निकल पड़ो नौकरी के लिये! वापस आकर कहो कि चल कहीं और चलते हैं, किसी बगीचे में या किसी रेस्ट्रा में! घर तो मानो रूठ जाता था, अरे तुम्हारे पास मेरे लिये दो पल का वक्त नहीं है! मैं भी तो सारा दिन तुम्हारी बाट जोहता हूँ और तुम मेरे पास आकर बैठते तक नहीं!

बच्चे आते हैं उनके पास घूमने जाने की लिस्ट  होती है, घर फिर रूठ जाता है, कहता है कि इतने दिन बाद बच्चे आए और ये भी मेरे साथ नहीं बैठे! घर तो निर्जीव सा हो चला है, हमारी आत्माएं इसमें प्रवेश ही नहीं कर पाती हैं। घर के कान भी बहरे हो चले हैं और जुबान भी गूंगी  हो गयी है। आखिर बात करे भी तो किस से करे! घर में दो लोग रह रहे हैं अबोला सा पसरा रहता है। आखिर एक जन ही कब तक बोले, घर में सन्नाटा पसर जाता है। घर भी हमारे साथ बूढ़ा हो रहा है, थक गया है बेचारा। यह कहानी मेरे घर की नहीं है, हम सबके घर  ही कमोबेश यही कहानी है। बड़े-बड़े घर हैं लेकिन रहता कोई नहीं है, जो भी रहता है वह बातें नहीं करता, बच्चों की खिलखिल नहीं आती। दरवाजे बन्द है तो चिड़िया का गान भी नहीं आता। बस चारों तरफ खामोशी है।

आखिर कल मोदीजी ने कहा कि 60 साल वाले घर के अन्दर रहो, घर से बातें करो इसे अपना बना लो। बहुत छटपटाहट हो रही है, कैसे रहेंगे घर के अन्दर! मुझे अच्छा लग रहा है, मैं बातें करने से खुश हूँ। मैं घर की बातें लिख रही हूँ, घर को महसूस कर रही हूँ, घर को आत्मसात कर रही हूँ। सोच रही हूँ कि घर नहीं होता तो क्या होता! क्या हम  बातें कर पाएंगे? इस मकान को क्या अपना प्यारा सा घर बना पाएंगे? क्या यह घर भी हमारे सपनों में आएंगा? इस महामारी के समय प्रयास कर लो, इसे ही अपना बना लो, जो बातें कभी नहीं की थी, अब कर लो, न जाने कब किसका साथ छूट जाए! जब हम ना होंगे तो यह घर ही तो है जो हमारी कहानी कहेगा, इसलिये बातें कर लो।

कुछ तो अच्छा ही हो जाए!

Written By: AjitGupta - Mar• 17•20

सारी दुनिया सदमें में एक साथ आ गयी है, ऐसा अजूबा इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। विश्व युद्ध भी हुए लेकिन सारी दुनिया एकसाथ चिंतित नहीं हुई। आज हर घर के दरवाजे बन्द होने लगे हैं, सब एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे हैं, पता नहीं कब हाथ पकड़ने का साथ भी छूट जाए! जो घर सारा दिन वीरान पड़े रहते थे, वृद्धजनों की पदचाप ही जहाँ सुनायी पड़ती थी अब गुलजार हो रहे हैं। न जाने कितने लोग एक-दूसरे से पीछा छुड़ाने के लिये घर से बाहर निकल जाते थे। अब वे सब एक छत के नीचे हैं। हम गृहणियां कहती दिखती थी कि घर से बाहर जाओ तो हमें भी काम की समझ आए। पति कहता था कि कहाँ जाऊँ, अरे कहीं भी जाओ, बाजार जाओ, मन्दिर जाओ, किसी दोस्त के जाओ लेकिन जाओ। अब कोई कुछ नहीं कह रहा, सब घर में बन्द हैं। ऐसा लग रहा है कि दो दुश्मनों को एक कमरे में बन्द कर दिया है कि बस तुम हो और यह घर है! अब रूठ लो, झगड़ लो या समझदारी से सुलह कर लो! बस कुछ दिन तुम ही तुम हो एक दूसरे के साथ।

दो चार दिन बाद शायद नौकरानी भी आना बन्द हो जाए फिर? तब एक झाड़ू थामेगा और दूसरा पौछा! एक सब्जी काटेगा तो दूसरा रोटी सेकेगा। मिल-जुलकर काम करने का समय आ गया लगता है! नहीं यह सब्जी अच्छी नहीं है, और कुछ अच्छा सा बनाओ, अब कोई कहता हुआ नहीं देख सकोगे! बच्चे भी कहेंगे कि देखो घर में क्या बचा है, रोटी मिल जाए तो ठीक रहे। पिजा-पाश्ता तो दूर की कोड़ी हो जाएगी! अतिथि देवोभव: की जगह अतिथि तुम मत आना, प्रमुख बात हो जाएगी।

हर आदमी दुश्मन सा लगने लगा है और वह आदमी विदेशी हो तो फिर लगता है जैसे यमराज ही भैंसे पर सवार होकर सामने खड़े हों! जिन विदेशियों का हमेशा स्वागत था, अब डर को मारे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। खाँसी – जुकाम तो सबसे बड़ा पाप हो गया है, ऐसा पाप जिसे कोई छूना भी नहीं चाहता। कभी मन करता है कि किसी पेड़ के तने को छूकर देख लें कि कितना स्निग्ध है लेकिन तभी डर निकलकर आ जाता है, नहीं किसी को मत छूना! पता नहीं किसने इसे छुआ होगा! हर चीज में कुँवारेपन की तलाश है।

दुनिया के सामने लड़ने के भी खूब अवसर हैं और प्यार से रहने के भी। लड़कर भी कब तक  रहेंगे, धीरे-धीरे समझौता होने लगेगा और शायद प्यार ही हो जाए! लोग फिर कहेंगे कि यह कोरोना प्यार है! वकील सुपारी लेना भूल जाएंगे। जब पति-पत्नी घर से बाहर के लिये मुक्त होंगे तब साथ होंगे, एक दूसरे का हाथ पकड़कर, गिले-शिकवे भूल कर साथ होंगे। मैं तो अच्छी कल्पना ही कर लेती हूँ कि इस महामारी में शायद कुछ अच्छा हो जाए। हम साथ रहना सीख जाएं। घर में रहना सीख जाएं। एक दूसरे से बात करना सीख जाएं। एक दूसरे का साथ निभाना सीख जाएं। काम में हाथ बँटाना सीख जाएं। इस बुरे समय में कुछ तो अच्छा हो जाए।

बन्दर भाग रहे हैं

Written By: AjitGupta - Mar• 14•20

जब पहाड़ों पर बर्फ गिरती है तब मन झूमने लगता है, मन कह उठता है कि ठण्ड थोड़े दिन और ठहर जा। झुलसाने वाली गर्मी जितनी देर से आए उतना ही अच्छा है लेकिन इस बार होली जा चुकी है लेकिन पहाड़ों पर बर्फ पड़ने की खबरे आ रही हैं। मौसम सर्द बना हुआ है। लोग प्रार्थना करने लगे हैं कि गर्मी जल्दी से आ जा! गर्मी आएगी तो कोरोना मरेगा, सर्दी रहेगी तो कोरोना फलेगा-फूलेगा!

सारा विश्व चुप हो गया है, प्रकृति की ताकत समझ आने लगी है। पर्यटक स्थलों से बन्दर शहर की ओर भाग रहे हैं! क्यों भाग रहे हैं? मनुष्य ने प्रकृति को कितना बर्बाद किया है, धीरे-धीरे समझ आ रहा है, एक-एक परते खुल रही हैं। हम घूमने जाते हैं, साथ में बिस्किट, ब्रेड. रोटी, आटा आदि सामान भी ले जाते हैं, कहीं बन्दरों को खिलाते हैं, कहीं कुत्तों को खिलाते हैं, कही मछलियों को खिलाते हैं, बड़ी शान से कहते हैं कि पुण्य कर रहे हैं। लेकिन हमें पता ही नहीं जिसे हम पुण्य कह रहे हैं, वह तो पाप है। जैसे जिहादियों को पता ही नहीं कि वे लोगों को निर्ममता से मार रहे हैं कि वे पुण्य नहीं निरा पाप है! प्रकृति का चक्र बिगाड़ रहे हैं लोग!

अब ये बन्दर घरों में उत्पात मचाएंगे क्योंकि वे जंगल में जाना भूल गये हैं, हमने बिस्किट जो खिलाएं हैं, कुत्ते आदमी के पीछे लपक रहे हैं क्योंकि हमने रोटी खिलायी है। मनुष्यों को भी हम मुफ्त की रोटी बांट रहे हैं, अब कोरोना के कारण बन्द हो रही है मुफ्त की बन्दर-बाँट तो लोग चोरी करेंगे, डाका डालेंगे, पेट तो भरेंगे ही ना! हमने आदत तो बिगाड़ दी है। अकेले अमेरिका के न्यूयार्क शहर में ही 7 लाख बच्चे सरकार के भोजन पर आश्रित हैं और अब भोजन बनाने और बाँटने का संकट पैदा हो गया है तो क्या होगा? हमारे मिड-डे-मील भी बन्द हो जाएंगे तो क्या होगा?

होटल बन्द पड़े हैं, रेस्ट्रा बन्द हैं, प्रतिदिन के वेतन भोगी कर्मचारी घर बैठ गये हैं। करोड़ों लोग बेराजगार हो रहे हैं। असली बेराजगारी तो कोरोना के कारण आ रही है। फाइव-स्टार होटल विदेशी पर्यटकों की आवाजाही बन्द होने से खाली हो रहे हैं, होटल मालिकों का करोड़ो  का नुक्सान हो रहा है लेकिन कर्मचारी का हजारों का नुक्सान भी उसे रोटी के लिये मोहताज कर देगा! हमने जो हमारे पैतृक धंधों को छोड़कर नौकरी को अपनाया था, उसके दुष्परिणाम सामने अने लगे हैं।

हमारे देश में सब कुछ है, सारे ही खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं लेकिन जिन देशों में कुछ नहीं होता, वे क्या करेंगे? उन देशों में लूट मची है, जिसे जितना मिल रहा है, संग्रह कर रहा है। घर में यदि एक व्यक्ति को भी कोरोना ने डस लिया तो उसे भोजन देने वाला कोई नहीं होगा! कौन रोटी देगा? क्योंकि हमें काम आता नहीं! व्यक्ति दूसरे पर निर्भर हो गया है। प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा, स्वयं को सक्षम बनाना होगा और दूसरे जीवों को भी मुक्त रखना होगा। बन्दर को बिस्किट खिलाना पुण्य नहीं पाप है, यह समझना होगा।

सुन रहा है ना तू?

Written By: AjitGupta - Mar• 12•20

रथ के पहिये थम गये हैं। मुनादी फिरा दी गयी है कि जो जहाँ हैं वही रुक जाएं। एक भयंकर जीव मानवता को निगलने निकल पड़ा है, उसके रास्ते में जो कोई आएगा, उसका काल बन जाएगा! सारे रास्ते सुनसान हो चले हैं। जिसे जीवन का जितना मोह है, वे सारे लोग घरों में दुबक चुके हैं, जो जीवन को खेल समझते हैं वे अभी भी वृन्दावन में होली खेल रहे हैं।

विचार आया है मन में! यह वायरस अकेले मनुष्य पर ही आक्रमण क्यों करता है? लाखों पशु हैं, पक्षी हैं लेकिन सभी तो बिना वीजा और पासपोर्ट के स्वतंत्र घूम रहे हैं। ना साइबेरिया से आने वाले पक्षी रुके हैं और ना ही पड़ोस के पशु रुके हैं! मनुष्य के अलावा कहीं कोई भय व्याप्त नहीं है। अकेला मनुष्य ही क्यों इन सूक्ष्मजीवियों के गुस्से का शिकार होता है?

मनुष्य कभी भी किसी भी प्राणी को हाथ में पकड़ लेता है और अट्टहास करता है – तुझे निगल जाऊँगा….. हा हा हा। निरीह प्राणी कुछ नहीं बोल पाता लेकिन उसका आक्रोश जन्म लेता है, छोटे से सूक्ष्मजीवी के रूप में! मनुष्य ने किसी भी प्राणी को नहीं छोड़ा, सभी के साथ दुर्व्यहार किया, सूक्ष्मजीवी बढ़ते गये और मनुष्य का जीवन संकट में घिरता गया। हर घर के भोजन की टेबल पर सज गये हैं जीव! आक्रोश बढ़ता चले गया और सूक्ष्मजीवी पनपते गये! आज एक तरफ मनुष्य खड़ा है और दूसरी तरफ सारे ही प्राणी। मानो संग्राम छिड़ गया हो! मनुष्य के पास न जाने कितने हथियार हैं लेकिन सूक्ष्मजीवियों के पास केवल स्वयं की ताकत है।

सुबह हुई हैं, मुंडेर पर बैठकर चिड़िया गान गा रही है, कोयल भी कुहकने को तैयार है, गाय रम्भा रही है लेकिन मनुष्य खामोश बैठा घर में कैद है। केवल चारों तरफ से सायं-सायं की आवाजें आ रही हैं। मानो हर शहर कुलधरा गाँव जैसे सन्नाटे में तब्दील होना चाहता है। मनुष्य ने कहीं युद्ध छेड़ रखा है, वह कह रहा है कि मेरे रंग में रंग जाओ नहीं तो बंदूक से भून डालूंगा और दूसरी तरफ सूक्ष्मजीवी आ खड़ा हुआ है। बंदूकें भी बैरक में लौट गयी हैं, मानवता को अपने ही रंग में रंगने वाले भी दुबक गये हैं बस सूक्ष्मजीवी घूम रहा है, निर्द्वन्द्व! चेतावनी दे रहे हैं कोरोना जैसे हजारों सूक्ष्मजीवी, मनुष्य होश में आ जा, हिंसा छोड़ दे, नहीं तो तू सबसे पहले काल का ग्रास बनेगा। कोई नहीं बच पाएगा! अट्टहास बदल गया है, सूक्ष्मजीवी का अट्टहास सुनायी नहीं पड़ता लेकिन जब मनुष्य का रुदन सुनाई देने लगे तब समझ लेना की कोई जीव अट्टहास कर रहा है। रथ के पहिये थम रहे हैं लेकिन सूक्षमजीवी दौड़ रहा है, भयंकर गर्जना के साथ दौड़ लगा रहा है। मनुष्य अभी भी सम्भल जा। कहीं ऐसा ना हो कि डायनोसार की तरह तू भी कल की बात हो जाए? सुन रहा है ना तू?