खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह को पुत्र प्राप्ति हुई और तब उन्हें स्वामीजी का ध्यान आया। वे बेचैन हो गए, उन्होंने दीवान जी को कहा कि दीवान जी बहुत बड़ी भूल हो गयी है। मैं स्वामी जी को ही विस्मृत कर बैठा। लेकिन अब पुत्र जन्मोत्सव तभी मनाऊँगा जब स्वामी यहाँ आएंगे। आप पता लगाएं कि इस समय स्वामी कहाँ है। उस समय तक स्वामी को खोजना कठिन कार्य नहीं था, क्योंकि वे जहाँ भी जाते थे, उनके समाचारों से समाचार पत्र रंगे होते थे। दीवान जी को पता लगा कि स्वामी अमेरिका जाने को हैं और अभी वे मद्रास में हैं। राजा अजीत सिंह ने उन्हें तत्काल दौड़ाया, कहा, कैसे भी स्वामी को यहाँ लेकर आओ। दीवानजी तत्काल ही रवाना हो गए। वे मद्रास पहुंचे और मन्मथनाथ भट्टाचार्य के घर पहुँच गए। दरवाजा खटखटाया, नौकर बाहर आया और कहा कि स्वामी चले गए हैं। कहाँ ! दीवानजी ने व्याकुलता से पूछा। उत्तर मिला समुद्र की ओर। दीवान जी वहीं अपना सर पकड़कर बैठ गए। स्वामीजी अमेरिका रवाना हो चुके हैं और अब? तभी घर के सामने गाडी आकर रुकी और उसमें से स्वामीजी उतरे। वे दीवानजी को देखकर प्रसन्न हुए। दीवान जी ने पुत्र प्राप्ति के समाचार दिए और साथ में चलने का निवेदन किया। उन्होंने कहा कि स्वामी जी को अमेरिका भेजने का अधिकार खेतड़ी राजपरिवार का है। आप इसे अमान्य नहीं कर सकते। स्वामीजी दीवानजी के साथ खेतड़ी आए, पुत्र जन्मोत्सव में भाग लिया। अजीत सिंह ने कहा कि आप अमेरिका खेतड़ी दरबार के गुरु के रूप में जाएंगे। उन्होंने एक और निवेदन किया कि आप अपना नाम विविदिशानन्द बताते हैं, यह नाम उच्चारण में कठिन है इसलिए आज से आप विवेकानन्द कहलाएंगे। अब आप ज्ञान की खोज नहीं कर रहे हैं अब आप स्वयं ज्ञानवान हैं। उन्होंने स्वामीजी से प्रण लिया कि आप आज के बाद अपना नाम परिवर्तन नहीं करेंगे। क्योंकि इससे पूर्व कभी वे अपना नाम विविदिशानन्द तो कभी सचिदानन्द बताते रहते थे। अजीत सिंह ने दीवान जी को कहा कि आप स्वामीजी के साथ बम्बई जाएं और इनके लिए आवश्यकत वस्त्र एवं यात्रा की पूर्ण व्यवस्था करें।
मद्रास से खेतड़ी आते वक्त स्वामीजी बम्बई आए थे और उन्होंने अपने संचित धन से एक सामान्य श्रेणी की टिकट खरीद ली थी। लेकिन दीवान जी ने प्रथम श्रेणी की टिकट खरीदी। स्वामीजी ने कहा कि टिकट मेरे पास है, तब दीवानजी बोले कि आप खेतड़ी दरबार के राजगुरु की हैसियत से अमेरिका जा रहे हैं इसलिए आप जहाज में प्रथम श्रेणी में ही यात्रा करेंगे। दीवान जी ने उन्हें रेशमी वस्त्र अंगरखे बनवाकर दिए। सर पर केसरिया साफा धारण कराया। अब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका जाने के लिए पूर्णतया: तैयार थे।
जहाज जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, सर्दी का प्रकोप भी बढ़ रहा था और स्वामीजी के पास आवश्यक गर्म वस्त्र नहीं थे। स्वामीजी अपने ही कक्ष में बैठकर सर्दी से मुकाबला कर रहे थे। केप्टेन को चिन्ता हुई कि आज स्वामी बाहर कैसे नहीं आए? वे उनके कक्ष में गया और उन्हें सर्दी से लड़ते हुए पाया। केप्टन ने उनके लिए चार कम्बलों की व्यवस्था की। लोगों ने आपत्ति उठायी कि अकेले स्वामी के लिए ही ऐसा प्रबंध क्यों? लेकिन केप्टन ने कहा कि मैं किसी व्यक्ति को सर्दी से मरने नहीं दे सकता। विवेकानन्द को अपनी भूल मालूम हो गयी थी कि वे सर्दी के पर्याप्य वस्त्र लेकर नहीं आए थे। वे सोच रहे थे कि इतना ज्ञान लेने के बाद भी वे कैसे भूगोल को भूल गए? वे कनाडा के वेंकूर तक जहाज में गए और वहाँ से रेल द्वारा शिकागो पहुंचे। 31 मई 1893 को स्वामीजी बम्बई से चले थे और 25 जुलाई को कनाडा के वैंकुअर पर पहुंचे थे। रविवार 30 जुलाई को वे शिकागो पहुंचे। अमेरिका के शिकागो शहर में धर्म संसद आयोज्य था, इसके लिए पूर्व में ही पंजीकरण कराना आवश्यक था। स्वामीजी ने पंजीकरण नहीं कराया था। वहाँ पहुँचने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि वे धर्म संसद प्रारम्भ होने से छ: सप्ताह पूर्व ही शिकागो आ गए हैं और अब पंजीकरण की तिथि निकल चुकी है। इसलिए उन्हें एक होटल में रुकना पड़ा। वे इतने दिन होटल में नहीं ठहर सकते थे, क्योंकि इतना धन उनके पास नहीं था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या किया जाए? उन्हें स्मरण आया कि वैकुअर से आते समय जिस गाड़ी में स्वामीजी यात्रा कर रहे थे उसीमें उन्हें एक महिला मिली थी जो साहित्यकार भी थी, उसने कहा था कि अमेरिका में यदि कोई भी कठिनाई आए तो उनका घर सदैव सभी सहयात्रियों के लिए खुला है। मिस केथरीन एब्बाट सेनबोर्न का पता उनके पास सुरक्षित था। वह बोस्टन के पास एक छोटे शहर मेटकाफ ग्राम में रहती थी। वे उसे तत्काल तार करते हैं और कुछ ही दिनों में केथरीन का उत्तर भी आ जाता है कि वे तत्काल उनके घर चले आएं। केथरीन उनके लिए महिला क्लबों एवं जेल में व्याख्यान भी आयोजित कराती है। केथरीन का भाई फैंक्रलिन बैंजामिन सेनबोर्न विद्वान व्यक्ति था, उसने स्वामीजी से प्रभावित होकर उनका परिचय प्रो.जॉन हेनरी राइट से कराया, जो बोस्टन शहर के पास एनिक्वास्म ग्राम में रहते थे। विवेकानन्द प्रो राइट के आमंत्रण पर उनके घर जाते हैं और एक सप्ताह वहीं रहते हैं। प्रो.राइट उनकी विद्वता से प्रभावित होते हैं और उनके लिए धर्म संसद का पंजीकरण उपलब्ध कराते हैं। संसद प्रारम्भ होने से पूर्व विवेकानन्द प्रो.राइट से विदा लेकर पुन: शिकागो आते है लेकिन रेलयात्रा के दौरान उनकी जेब से धर्म संसद का पता और पैसे निकल जाते हैं। शिकागो पहुँचने पर उन्हें धर्म संसद का पता बताने के लिए कोई भी सहायता नहीं करते। वे उस रात मालगाडी के डिब्बे में रात बिताते हैं और दूसरे दिन पैदल ही शहर निकल पड़ते हैं। लेकिन किसी भी घर के दरवाजे पर उनके लिए सम्मान नहीं था। आखिर वे भूखे-प्यासे पैदल चलते रहते हैं और थककर एक स्थान पर बैठ जाते हैं। उन्हें लगता है कि क्या माँ जगदम्बा की इच्छा अभी नहीं हुई है? वे अभी विचार कर ही रहे थे कि सामने के घर से एक सम्भ्रांत महिला श्रीमती बेले हेल बाहर निकलकर आयी और उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि क्या आप धर्म संसद के लिए आए हैं? स्वामी जी ने कहा कि माँ, तू किस रूप में मेरे समक्ष आयी है! बेले हेल कुछ नहीं समझी कि स्वामी क्या कह रहे हैं? बेले हेल ने इतना ही कहा कि धर्म संसद में भाग लेने आए हो, न जाने कितने ग्रंथ कंठस्थ किये होंगे और एक छोटा सा पता याद नहीं रख सके! स्वामी विवेकानन्द ने बेले हेल को माँ के नाम से ही सम्बोधित किया। पहले तो वे चौंकी कि क्या मैं इतनी वृद्ध हो गयी हूँ लेकिन तत्काल ही उन्हें माँ सम्बोधन प्रिय लगने लगा। वे उन्हें अपने घर लेकर गयी, उनके स्नान और भोजन की व्यवस्था की तथा उन्हें धर्म संसद के अध्यक्ष डॉ. बेरोज से भी मिलवा दिया। डॉ.बेरोज ने उन्हें श्रीमती एमिली लियन का अतिथि बनाया।
11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद का शुभारम्भ था, स्वामी जी वहाँ गए। सभी विद्वानों के व्याख्यान प्रारम्भ हुए और स्वामीजी का भी नाम पुकारा गया। पूर्व में तीन बार अपना नाम पुकारे जाने पर स्वामीजी उद्बोधन देने के लिए नहीं उठे, आखिर में चौथी बार में वे उठे। उन्होंने जैसे ही सम्बोधन स्वरूप कहा – अमेरिकावासियों मेरे भाइयों और बहनों, पूरा सभाकक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। लोग बेंच पर खड़े होकर विवेकानन्द को देखना चाहते थे। सभा में हडकम्प सा मच गया था और जब शान्ति हुई तब विवेकानन्द ने अपना प्रथम और संक्षिप्त उद्बोधन दिया। भाइयों और बहनों के कथन के साथ ही वे भारतीय परिवारवादी संस्कृति की स्थापना कर चुके थे और अमेरिका के नागरिकों के मध्य भारत को जानने की ललक पैदा कर चुके थे। उनके चारों तरफ भीड़ थी, सभी लोग उन्हें आमंत्रित कर रहे थे। श्रीमती बेले हेल ने घर जाकर अपने पति से कहा कि मुझसे बहुत बड़ी चूक हो गयी है। वे बोली कि मैंने विवेकानन्द से कहा था कि इतने ग्रन्थों का कंठस्थ करने वाला व्यक्ति एक पता कैसे भूल गया लेकिन आज मुझे अनुभव हो रहा है कि एक माँ घर आए अपने पुत्र को कैसे नहीं पहचान पायी? वे दुखी थी कि मैंने स्वयं ने ही इतने विद्वान संन्यासी को दूसरे घर में जाने दिया। उनके पति ने कहा कि तुम उनके उद्बोधन प्रतिदिन सुनो और जब भी अवसर मिले तब कहना – पुत्र तुम्हारे घर पर तुम्हारी माँ इंतजार कर रही है, देखना विवेकानन्द अवश्य आएंगे।
अमेरिका में स्तब्धता छा चुकी थी, लोग भारतीय दर्शन को समझने के लिए उतावले हो उठे थे। ईसाइयत के मंसूबे ध्वस्त हो चुके थे। भारत के लिए स्वाभिमान जागरण का काल था और अब लोग गर्व से कह सकते हैं कि हम हिन्दू हैं। उन्होंने वेदों की व्याख्या की और सभी धर्मों को ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग बताया। उन्होंने कहा कि सत्य एक है, उसे प्राप्त करने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं। अन्त में सत्य ही शेष रहता है। ईश्वर से डरों नहीं अपितु ईश्वर से प्रेम करो। वह सदैव दयालु है। ईश्वर का प्रेम ही शाश्वत प्रेम है।
खुबसूरत यादों की पुनरावृत्ति बहुत सुन्दर . समापन अपेक्षा अनुरूप.
स्वामीजी के जीवन का यह अध्याय तो पूरे देश का गौरव गान सा लगता है ……
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
हम सबको उन पर गर्व हो..
डॉक्टर दीदी,
कुछ व्यस्तताओं में यह पढ़ने से रह गया.. समय निकालकर पूरा पढता हूँ और अपने पुत्र को पढ़ने के लिए कहता हूँ.. उसके तो हीरो हैं विवेकानंद!!
सलिल जी
आपके पुत्र को मेरा आशीर्वाद। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मेरी नियमित पाठक भी इस श्रृंखला को नहीं पढ़ रहे हैं, क्या उनके लिए विवेकानन्द प्रासंगिक नहीं हैं? या जिस महान व्यक्तित्व ने भारत का गौरव बढ़ाया और आज हम स्वयं को भारतीय कहने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं, वह नहीं होना चाहिए था। लेकिन इससे यह तो विदित हो ही रहा है कि भारत के गौरव के प्रति कितने लोग जागरूक हैं।
भारतीय संस्कृत और हिंदू धर्म की गौरव पताक सम्पूर्ण विश्व में फहराकर विश्व बंधुत्व
के भावों को संचरित करने वाले महा योगी विवेकानंद जी के जीवन से उद्घृत इस भाव पूर्ण आलेख के लिए कोटि कोटि अभिनन्दन !!!
श्रीप्रकाश जी
मैंने एक छोटा सा प्रयास किया है। आपने इसे पढ़ा इसके लिए आभारी हूँ।
साधारण से असाधारण की यात्रा, बहुत सुखदायी रहा इस शृंखला को पढना।