अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

छायादार पेड़ की सजा

Written By: AjitGupta - Feb• 26•21

मेरे घर के बाहर दो पेड़ लगे हैं, खूब छायादार। घर के बगीचे में भी इन पेड़ों की कहीं-कहीं छाया बनी रहती है। कुछ पौधे इस कारण पनप नहीं पाते और कुछ सूरज की रोशनी लेने के लिये अनावश्यक रूप से लम्बे हो गये हैं। एक दिन माली ने कहा कि इन पेड़ों को आधा कटा देते हैं जिससे सूरज की रोशनी सारें पौधों पर आ सकेगी। एक बार तो मन ने बगावत की लेकिन दूसरे ही पल मन ने स्वीकार कर लिया। पेड़ों को यदि काट-छाँट नहीं करेंगे तो उनका विकास भी नहीं होगा।

पेड़ कट गये। पर्याप्त रोशनी हो गयी। लेकिन मनुष्य के जीवन में क्या यही प्रयोग होता है! हम छायादार व्यक्तित्व को इसलिये काट देते हैं कि दूसरे उसके समक्ष पनप नहीं पाते? पेड़ कट जाता है क्योंकि उसके पास विरोध का साधन नहीं है लेकिन व्यक्ति संघर्ष करता है। कुल्हाड़ी लेकर तो लोग उसके सामने भी खड़े हो जाते हैं लेकिन उसके अन्दर विरोध की क्षमता उसे बचा लेती है।

लेकिन बहुत ही कम ऐसे क्षमतावान लोग होते हैं जो सारे आघातों से पार पा लेते हैं। कभी परिवार की सामूहिक शक्ति हमें काट डालती है को कभी समाज की और कभी राजनैतिक शक्ति। अक्सर सुनाई देते हैं ये शब्द कि बहुत बढ़ गया है अब थोड़े पर कतरनें चाहिये। जब सामूहिक आक्रमण होता है तब हम जड़ हो जाते हैं और जड़ हुए व्यक्ति को कोई भी काट डालता है।

हम भी न जाने कितनी बार कटते हैं लेकिन फिर हमारी जिजीविषा हमें वापस पल्लवित करती है। फिर किसी राहगीर को छाया देने लगते हैं। फिर किसी बगीचे के पनपने में बाधक लगने लगते हैं। फिर कटते हैं। हम बार-बार कटते हैं और बार-बार पनपते हैं। किसी के लिये छाया बनते हैं और किसी की धूप में बाधक बन जाते हैं। यही जीवन है। छायादार पेड़ बनने की सजा मिलती रहेगी। मुझे भी और आपको भी।

कबाड़ ना बन जाए ज़िन्दगी!

Written By: AjitGupta - Feb• 07•21

मेरी मिक्सी के एक जार में मामूली सी खराबी आ गयी, बेटी-दामाद घर आए हुए थे, वे बोले कि मैं नयी मिक्सी आर्डर कर देता हूँ। मैंने कहा कि इतनी सी खराबी और नयी! एक बार रिपेयर-शॉप पर जाओ, दस मिनट में ठीक हो जाएगी। खैर, मेरे कहने पर वे शॉप पर गये और मात्र २०₹ में और पाँच मिनट में जार ठीक हो गया। आप गुस्सा मत होइए कि मैं क्या पुराण लेकर बैठ गयी हूँ! हमारा जीवन भी अब कुछ इसी तरह का हो गया है। छोटी-छोटी शरीर की टूट-फूट होती है और सब कहने लगते हैं कि बुढ़ापे में अब यह सब होगा ही। नया चोला बदलना ही है! डॉक्टर भी यही कह देता है कि अब उम्र हो गयी है। मैं कहती ही रह जाती हूँ कि एक बार देख तो लो क्या पता खराबी छोटी सी ही हो। लेकिन कोई नहीं सुनता! पुराने को फेंकना ही है, लेकिन कब फेंकना है, यह निश्चित तो करना ही होगा! छोटा सा पेच ढीला हो जाए और पूरी मशीन को ही अत्तू कर दो, यह कैसे सम्भव होगा! मशीन तो बदल जाती है लेकिन शरीर कैसे बदले? उसकी तो उम्र होती है, वह बिना पेच के खड़खड़ाते हुए चलेगा लेकिन चलेगा! हम या तो पेच की खराबी ढूँढ ले या फिर रोज़ की खड़खड़!पुरानी मशीन मानकर ना घर के लोग और ना ही डॉक्टर आपकी चिन्ता करेंगे लेकिन आपको स्वयं चिन्ता करनी होगी। आपको छोटी-मोटी टूट को ढूँढना पड़ेगा और ज़िन्दगी को राहत देनी होगी। बुढ़ापे में केवल आपका स्वास्थ्य ही आपका मित्र है। अच्छी खासी मशीन कबाड़ में फेंक दी जाए, इससे पहले आप स्वयं की चिन्ता कर लीजिए। क्योंकि परिवार में भी हर कोई नयी और चमचमाती मशीनों को ही रखना चाहते हैं, पुरानी कबाड़ में ही फेंकने को तैयार रहते हैं। पुराना जमाना था जब आख़िरी दम तक पुरानी से काम लिया जाता था लेकिन अब नहीं। तो सावधान हो जाइए। आपकी मशीन कोई कबाड़ में ना फेंक दे! ध्यान दें लीजिए अपनी ओर! बस छोटी-छोटी सावधानी आपको घर में बनाये रखेगी नहीं तो कबाड़ की दुकान तो है ही। अब घर भी छोटे हैं तो घर की किसी कोठरी में भी जगह नहीं मिलेगी।

बजट के बहाने यूँ ही

Written By: AjitGupta - Feb• 03•21

मेरा बजट भगवान बनाता है। कितना सुख और कितना दुख का लेखा-जोखा उसी के हाथ है। मेरी सारी संचित समृद्धि का बजट भी भगवान ही बनाता है। इस साल तुम इस व्यक्ति के लिये अपना अर्थ का उपयोग करोगी और उस व्यक्ति से वसूल करोगी! सभी कुछ तो भगवान के हाथ में है। मेरी इच्छाएं मुझे अपनी ओर खींचती हैं लेकिन तभी भगवान बताता है कि अपनी इच्छाओं से परे भी दुनिया है। पिछले साल तो सारे ग़ैर ज़रूरी ख़र्चों तक पर कटौती कर दी गयी और रोटी-कपड़े तक की ज़रूरतों पर बजट केन्द्रित कर दिया गया। भगवान ने बताया कि सुख इसी में खोजो। सभी कुछ देने पर और कुछ नहीं होने पर सुख में क्या अन्तर आया, इसे खोजो! भीड़ से भरी दुनिया में और एकान्त में क्या अन्तर है, इसका भी आकलन करो। कभी हम किसी वस्तु का प्रयोग ही नहीं करते तो भगवान उसे जीवन से हटा लेता है। रिश्ते कभी बेमानी से हो जाते हैं, हमारे भी हुए, तब भगवान ने कहा कि इनके बिना ज़िन्दगी का अनुभव करो। अपने सात समन्दर पार जाकर बैठ गये, भगवान ने कहा कि इस बिछोह का दर्द भी सभी को अनुभूत करने दो। हमारे बजट से उसने रिश्ते के नाम का व्यय ही हटा दिया। अब देखो कौन है तुम्हारे आसपास! कौन तुम्हारे लिये चिंतित होता है? बस वहीं पर बजट में ध्यान दो। भगवान ने सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। मैं सोचती ही रह गयी कि यह करना है और वह करना है लेकिन कौन सा सुख देना है और कौन सा दुख, भगवान ने ही तय कर दिया। अब लोग मांग रहे हैं, मुठ्ठी भर राहत सरकार से, मैं तो भगवान की ओर देख लेती हूँ! इतना होने पर भी सुख की दो बूँद का प्रसाद देते रहना। अपनों से ना सही अपने आप से ही सुख की अनुभूति करा देना। जो मिला उसे भी सम्भाल नहीं पाए, तब भगवान ने कहा कि अकेले रहकर देख लो, शायद अकेलापन ही रास्ता दिखा दे! खैर, सभी का लेखा-जोखा होता है, सरकार भी बनाती है और आम आदमी भी। मैं नहीं बनाती। ज़िन्दगी को संघर्ष मानकर चलती हूँ। संघर्ष करते हुए जब लम्बी सांस लेने का अवसर मिल जाता है तो उसे सुख मान लेती हूँ और चलती रहती हूँ। मेरा को बजट यही है, कितना सुख समेटा और कितना दे दिया बस।

भगवान हर पल साथ हैं

Written By: AjitGupta - Feb• 02•21

फेसबुक पर एक कहानी चल रही है – एक दिन भगवान के साथ। एक युवक के पास एक दिन भगवान पहुँच जाते हैं और पूरा दिन उसके साथ रहते हैं। युवक के व्यवहार में पूर्णतया परिवर्तन आ जाता है क्योंकि उसे लग रहा था कि भगवान मुझे देख रहे हैं। ना गाली दी गयी, ना काम के लिये रिश्वत ली गयी और ना ही घर में भोजन में कमियाँ निकाली गयी। सारा परिवार आश्चर्यचकित था कि यह परिवर्तन कैसे!आपका बचपन याद कीजिए। आप एक परिवार का हिस्सा होते थे, आपके साथ दसों आँखें होती थी, जो आपको समाज के नियमों के विरूद्ध जाने को रोकती थी। परिवार में नवदम्पत्ती को नौकरी के लिये दूसरे शहर में जाना है, साथ में परिवार के एक बच्चे को साथ चिपका दिया जाता था। वह बच्चा परिवार की आँख होता था, नवदम्पत्ती समझते थे कि कुछ भी मनमानी की तो इस बच्चे के माध्यम से बात परिवार के बड़ों तक पहुँच जाएगी। परिवार में बामुश्किल ही गलत बातों का प्रवेश होता था। एक छोटे से बच्चे का साथ भी भगवान का साथ ही होता था।विदेशों में संतान के युवा होते ही उनका अधिकार होता है कि वे अपना अलग घर बसा लें। बस बच्चे 16 साल का इंतजार करते हैं। उनके साथ परिवार का बच्चा तक नहीं होता है। पूर्ण स्वतंत्रता! समाज के कैसे भी नियम हो, सारे ही टूट जाते हैं। देश में भी यह चलन आ गया है, लेकिन यहाँ 16 साल के बाद नहीं! अपने पैरों पर खड़ा हुए नहीं की अलग घर बसाने का रिवाज चल पड़ा है। इसका प्रारम्भ भी बॉलीवुड की ही देन है। बॉलीवुड इसके परिणाम भुगतने भी लगा है, न जाने कितने कलाकार आत्महत्या तक कर लेते हैं। परिवार में वैसे ही बात चली, पता लगा कि गाली-गलौज की भाषा ही बाहर की भाषा है! मैंने पूछा कि घर में क्यों नहीं है? घर में तो सभी है, वहाँ भला असभ्यता कैसे दिखायें! मतलब अकेले हैं तो असभ्यता और साथ हैं तो सभ्यता! कहानी के मर्म को समझो, भगवान के साथ रहने से ही आप सुधरते नहीं हैं, किसी के भी साथ रहने से आप सुधर जाते हैं। जिस दिन घर में अतिथि आता है, आप की भाषा बदल जाती है। किसी का भी साथ हमारे लिये समाज के नियमों की आँखें होती हैं। हमें लगता है कि हमारा आकलन हो रहा है, हमारी असभ्यता बाहर प्रचारित हो जाएगी। हमारा आकलन समाज प्रतिक्षण करता है। अब आप कहेंगे कि कैसे करता है? आपके घर में काम करने वाले कर्मचारी आपके लिये भगवान की आँख है, वे आकलन भी करते हैं और निर्णय भी करते हैं कि आप कैसे हैं। घर से बाहर आपके दूसरे कर्मचारी यही आँख बनते हैं। आप चारों तरफ से घिरे हैं। आप कितने भी अकेले रहने का प्रयास करें, आपका आकलन होता ही है। इसलिये इस सत्य को मानिये कि हर क्षण भगवान आपके साथ है। परिवार रूपी सदस्यों के साथ यदि आप रहेंगे तो आपका जीवन सुखद होगा क्योंकि आपको हरपल सुधरने का और सम्भलने का अवसर मिलेगा नहीं तो आप असभ्यता को रोक नहीं पाएंगे। केवल आप ऐश्वर्य के साधन एकत्र करने में ही जुटे रहेंगे फिर वे साधन किसी भी प्रकार से अर्जित क्यों ना हो! क्योंकि भगवान की आँख का डर आपको नहीं है। ना आपके साथ भगवान है और ना ही उसका प्रतिनिधि! फिर एक दिन कोई कहानी पढ़ेंगे और कल्पना करेंगे कि काश मेरे पास भी एक दिन के लिये भगवान आते और मुझे अच्छा बनने का अवसर मिलता। यह अवसर आपके पास हर पल आता है, बस आप इसे समेट नहीं पाते और खो देते हैं। आप अपनी स्वतंत्रता को इतना महत्व देते हैं कि अपने परिवार और अतिथियों से दूर होते चले जाते हैं। पूर्णतया एकाकी।

झाड़ू-फटके से बचने को काम की तलाश!

Written By: AjitGupta - Feb• 01•21

शर्माजी की पत्नी बगुले की तरह एक टांग पर खड़े होकर घर के काम कर-कर के तपस्या कर रही थी, उसकी एक नजर पतिदेव पर भी थी कि अब यह नौकरी से सेवानिवृत्त होने वाले हैं तो इनके हाथ में  भी झाड़ू-फटका पकड़ा सकूंगी जिससे मेरे काम का बोझ कम हो सकेगा। लेकिन वह सोचती ही रह गयी और शर्मा जी किसी संस्था में जाकर बैठ गये। समाज सेवी बन गये थे वे, पत्नी उन्हें परिवारसेवी बनाती उससे पहले ही वे समाजसेवी बन चुके थे।

देश के हर कोने में संस्थाएं खुलने लगी और शर्माजी जैसे लोग परिवार से छूटकर समाज के काम में व्यस्त हो गये। पत्नियाँ हाथ मलते ही रह गयी।

देश में सबकुछ ठीक चल रहा था, पतियों को घर से  बाहर निकलने के सौ बहाने मिल चुके थे। बड़े गर्व से कहते भी थे कि हम तो समाजसेवी हैं लेकिन अचानक ही उल्कापात हो गया। देश क्या दुनिया ही सात तालों में बन्द हो गयी। सभी को घर बैठना था और पत्नियों के काम में हाथ बँटाना था। नौकर-चाकर सभी तालाबन्दी का शिकार थे तो घर का काम कराना ही पड़ेगा। लेकिन हमारे देश के खालिस मर्द फिर भी निठल्ले बैठे रहे और बोर होते रहे।

घर का काम नहीं करना तो लोगों की आँखों में खटकने भी लगे, लोगों के क्या खुद की आँखों में भी खटकने लगे! उन्हें लगा कि जल्दी ही किसी काम का बहाना नहीं मिला तो घर के काम हाथ में ना आ जाएं! कभी इधर फोन तो कभी उधर फोन, अरे कोई संस्था तो खोलो, हम कहीं जाकर मुँह तो छिपाएं लेकिन कोरोना है कि कुछ खोलने ही ना दे। कोरोना मानो कसम खाकर आया हो कि इन कामचोरों को घर का काम कराकर ही रहूँगा।

अंग्रेजों ने इतने क्लब बनाये थे, जहाँ शान से लोग जाकर ताश पीटते थे, दारू पीते थे, अब वे भी बन्द हो गये थे। काम भी गया और शान भी गयी! पत्नी के हाथ का झाड़ू-फटका उनकी ओर टिकटिकी लगाए लगातार देखता रहता कि कब इनके गले पड़ूं लेकिन शर्माजी बचने की तरकीब निकाल ही नहीं पाते।

काम से बचने के और भी तरीके थे जैसे मन्दिर जाना और भक्त बनना। हाय री किस्मत मन्दिर भी बन्द हो गये! अब घर में ही पूजा पाठ कर लो, लेकिन घर में पूजा-पाठ का आनन्द नहीं। एकाध घण्टे में ही समाप्त और फिर झाड़ू-फटका की नजर! सर्दियों में बुरा हाल था, मटर आ गयी, इसे ही छील लो। मोगरी को चूंट लो। पालक साफ कर लो। नहीं, यह बहुत कठिन काम है! हमें काम चाहिये, काम। बस हर घर से यही आवाज आने लगी कि बिना काम के बोर हो जाते हैं! झाड़ू-फटका इंतजार कर रहा है और ये बोर हो रहे हैं! आश्चर्य है!

काम से बचने को काम चाहिये! परिवार की जिम्मेदारी से बचने को बाहर का काम चाहिये! शर्माजी कुछ तो शर्म कर लो। कोरोना में हर आदमी घर के काम पर लगने लगा है और आप काम की तलाश बाहर कर रहे हैं! कोरोना से सबक नहीं सीखा, अब भगवान कौन सा अस्त्र प्रयोग में लाएगा?

कुछ लोग अपना कम्प्यूटर खोल कर भी बैठ गये, पहले ज्योतिष का काम भी कम्प्यूटर पर कर लेते थे लेकिन अब ज्योतिष बहुत बड़ी रिस्क हो गयी। सारी दुनिया के ज्योतिष चुप होकर बैठ गये।

शादी-ब्याह भी कम हो गये या फिर उनमें भी संख्या सीमित हो गयी तो वहाँ की पटेलाई का धंधा चौपट हो गया! अब शादी में फूफा को बुलाने का नम्बर ही ना लगे तो रूसना-मटकना दूर की कौड़ी हो गयी। यहाँ भी काम चौपट!

मरण-मौत तक में जा नहीं पाते शर्माजी! कोरोना का डर सर पर चढ़कर जो  बोलता है! अब यह काम भी नहीं। बेचारे शर्माजी करे तो क्या करे? घर में आते-जाते समय चुपके से झांक लेते हैं कि कहीं झाड़ू-फटका उनकी ओर टकटकी लगाए देख तो नहीं रहा! लेकिन शर्माजी ने अभी हार नहीं मानी है, लगे हैं काम की तलाश में। शायद कोई काम मिल ही जाए तो इस निगोड़े झाड़ू-फटके की आँख से बच जाऊँ! देखते हैं किस शर्माजी को काम मिलता है और किसे झाड़ू-फटका अपनी चपेट में लेता है!