अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

भीड़ से अलग होना ही असाधारण है

Written By: AjitGupta - May• 21•20

भीड़ में खड़ा हर व्यक्ति साधारण है लेकिन मंच पर बैठा व्यक्ति असाधारण हो जाता है। साधारण व्यक्ति को हम नहीं जानना चाहते लेकिन असाधारण व्यक्ति को हम समझना चाहते हैं, उसे जानना चाहते हैं। कल मेरे हाथ में “अग्नि की उड़ान” पुस्तक थी। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की जीवनी पर लिखी पुस्तक। स्मपूर्ण पुस्तक पढ़ लीजिए आप को यही लगेगा कि एक साधारण व्यक्ति की कहानी है। हम में से हर उस व्यक्ति की कहानी है जो शिक्षित होना चाहता है, कुछ बनना चाहता है! कुछ भी अनोखा नहीं है। फिर कैसे कलाम असाधारण बन गये? दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक मंच पर बैठे हैं और दूसरे मंच से सामने है। मंच पर जो हैं वे नेतृत्व कर रहे हैं और वे सार्वजनिक जीवन जी रहे हैं, मंच के सामने वाले नेपथ्य में जीवन जी रहे हैं, बस। जब हमारा सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ होता है तब हमें लोग जानना चाहते हैं, वे समझना चाहते हैं कि इसमें ऐसा क्या है, जो यह इस मंच तक जा पहुँचा! कई बार लगता है कि यह तो हम जैसा ही है, फिर मंच तक कैसे पहुँच गया? लोग कह उठते हैं कि भाग्य है भाई!

हो सकता है भाग्य हो लेकिन साधारण और असाधारण व्यक्तित्व में बस यही अन्तर होता है कि वह नेतृत्व के योग्य ठहराया जाता है और फिर उसके व्यक्तित्व की परते उघड़ने लगती है जब लगता है कि कुछ तो है! किसी भी क्षेत्र का भीड़ से अलग व्यक्ति हमेशा जानने योग्य रहता है। लोग उसकी जड़े तक खोद डालते हैं और फिर कलाम जैसे व्यक्ति असाधारण बन जाते हैं। सोचिये यदि कलाम राष्ट्रपति नहीं बनते तो क्या वे इतने असाधारण होते? वे अपने क्षेत्र में असाधारण होते लेकिन आमजन उनके जीवन में रुचि नहीं लेते। एक लड़का छोटे से गाँव में, गरीब परिवार में जन्म लेता है, पढ़ता है और वैज्ञानिक बन जाता है। सभी की कहानी तो ऐसी ही है। भीड़ से अलग हटने में उसने क्या प्रयास किये बस यही मूल्यवान है। कलाम ने हर कदम पर स्वयं को भीड़ के अलग रखा, वे सभी की दृष्टि में आते रहे। अपने काम की धुन के कारण, अपनी सोच के कारण या किसी ओर बात के कारण। बस जैसे ही हम भीड़ से अलग दिखने लगते हैं, वैसे ही स्वयं मंच पर पहुँच जाते हैं। साधारण से असाधारण बन जाते हैं और लोग हमें जानने की चाह करने लगते हैं।

कुछ लोग कहते सुने जाते हैं कि क्या है इस व्यक्तित्व में? हम भी ऐसे ही हैं, इससे ज्यादा शिक्षित हैं लेकिन यह क्यों नेतृत्व कर रहा है और मैं क्यों नहीं? वे समझ नहीं पाते कि भीड़ का हिस्सा बनकर रहना और भीड़ से अलग बन जाना ही अन्तर है! कलाम को पढ़ते हुए मुझे यही लगा कि जो भीड़ से अलग दिखने लगता है वह असाधारण बन जाता है और जो भीड़ में खो जाता है वह साधारण बनकर रह जाता है। जब भीड़ से पृथक खड़ा व्यक्ति सार्वजनिक जीवन के योग्य बन जाता है तब उसे असाधारण व्यक्ति मानकर उसे समझने की ललक पैदा होती है। आप या मैं सभी एक पृष्ठभूमि से आए हैं, सभी भीड़ का अंग हैं, बस कोशिश करिये कि भीड़ से पृथक होकर अपना अलग व्यक्तित्व बना सकें। इसलिये वैज्ञानिक कलाम और राष्ट्रपति कलाम में बस यही अन्तर है। किसी भी ऐसे ही व्यक्तित्व की आलोचना करने से पूर्व यह देख लीजिये की वह कहाँ खड़ा है! मैंने जब अपने पिता पर पुस्तक लिखी तो परिवार के एक सदस्य ने कहा कि एक साधारण व्यक्ति पर पुस्तक? मैंने तब समझा कि भीड़ से अलग खड़ा व्यक्ति ही असाधारण बन जाता है और उन्हीं पर लिखने का मन करता है। जब कलाम को  पढ़ा तो मैंने जाना कि साधारण और असाधारण में बस यही अन्तर  होता है।

मन की किवड़ियां खोल

Written By: AjitGupta - May• 17•20

समय काटे से कट नहीं रहा है, एक अनजान भय भी सभी के सर पर मंडरा रहा है, लोग अपनी जमापूंजी का बहीखाता लेकर बैठ गये हैं। सोना-चाँदी, बैंक डिपाजिट, रोकड़ा, जमीन, जायदाद सभी सम्भालने में लगे हैं। जीवन में लाभ-हानि का हिसाब लगा रहे हैं। अपनी शेष आयु को भी हिसाब में सम्मिलित कर लिया है। कितना उपभोग कर पाएंगे और कितना शेष रह जाएगा? मैं इस आपदा काल में ही नहीं पहले से करती आयी हूँ। अपने जीवन को सुव्यवस्थित रखने का हमेशा से ही प्रयास किया है। ऐसा कोई कर्तव्य नहीं जो पूर्ण नहीं किया हो और ऐसी जीवनचर्या का साधन नहीं जिसे प्राप्त नहीं किया हो! प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक स्तर होता है, समाज के अनुरूप वह स्तर रहता है, उसी स्तर के अनुरूप हम श्रेष्ठ करते रहे हैं। लाभ-हानि भी बहुत हुई है फिर भी बूंद-बूंद करके घड़ा भरता ही गया। सारी आवश्यकतों की पूर्ति करने के बाद, संतानों को अच्छा जीवन देने के बाद भी घड़ा भर गया। सोचा अब इस घड़े का सदुपयोग वृद्धावस्था में होगा। लेकिन किसे मालूम था कि कोरेना काल उपस्थित हो जाएगा और दुनिया को जीवन का मर्म समझा देगा!

जीवन की आवश्यकताएं मुठ्ठीभर अर्थ से पूर्ण हो जाती हैं, शेष तो प्रतिस्पर्धा है। इस काल में प्रतिस्पर्धा समाप्त हो गयी है, विलासिता कहीं मुँह ढककर सो गयी है, बस आवश्यकताएं ही शेष हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने घड़े को टटोल रहा है, किसी के पास एक घड़ा है, किसी के पास दो हैं या फिर किसी के पास अनगिनत है। रात-दिन हिसाब लग रहा है, सभी आश्चर्य चकित भी हैं कि इतना वैभव संचित कर लिया! फिर उम्र का गणित देखते हैं, पता लगता है कि यह तो फिसलती जा रही है! जीवन क्षणभंगुर दिखने लगा है, अब?

मेरे पास चिंतन के लिये समय हमेशा रहा है, यह समय और यह चिंतन ही मेरी पूंजी है। लोग कह रहे हैं कि अब समय बहुत मिल रहा है लेकिन मेरे पास तो पूर्व में भी बहुत समय था। जीवन के प्रत्येक कदम पर मैंने चिन्तन किया है। मैंने जीवन के सारे ही उपादानों को संतोष पूर्वक जीया है और मन को भी संतुष्ट किया है। लेकिन अब सभी लोगों को कहते सुन रही हूँ कि यह अर्थ का संचय व्यर्थ गया! यह अब किसी काम का नहीं है। इस अर्थ के कारण ही तो हमने प्रेम की जगह अहंकार को चुना था, निरन्तर हम प्रदर्शन कर रहे थे। लोग कह रहे हैं कि रिश्तों की हमने कद्र नहीं की, यहाँ तक की अपनी गृहस्थी तक सुखपूर्वक भोग नहीं पाए! केवल अर्थसंग्रह में लगे रहे और सारा दिन यायावर बनकर घर से बाहर रहे। किसी के पास एक मिनट का समय नहीं था जो अपनों को दे सके! आज समय ही समय है, पति-पत्नी के पास इतना समय है कि वह इस छोटे से काल में ही सात जन्मों का समय व्यतीत कर सकते हैं। जिस संतान के पास माता-पिता के लिये समय ही नहीं था आज वे भी क्या बात करें, यह ढूंढ रहे हैं! अभी भी लोग खेलों का सहारा ले रहे हैं, अपने मन को नहीं खोल रहे हैं। अपने जीवन के आनन्द को नहीं पा रहे हैं। कितने बेटे हैं जो माँ की गोद में लेटकर सर में तैल लगवा रहे हैं, या कितनी बेटियाँ हैं जो माँ को कुर्सी पर बैठाकर उनकी चोटी बना रही हैं। सारे ही लाड़ आज भी अधूरे से खड़े हैं। कर लो इन्हें भी पूरा कर लो, जीवन के ये पल दो क्षण के ही सही लेकिन अमृत की दो बूंद जैसे लगेंगे। घड़े की ओर मत देखो वह तो इतिहास में किसी अन्य के काम आएगा लेकिन अपना सुख, अपना लाड़-प्यार अपने लिये ही है, इसे प्राप्त कर सको तो कर लो। बतिया लो अपनों से, जो आपको लाड़ दे सके, जो आपके अस्तित्व को स्वीकार कर सके। समय व्यर्थ मत करें, जहाँ विष है उसे जीवन से दूर रखे, बस अमृत की दो बूंद की तलाश करिये।

डर कम होना चाहिए

Written By: AjitGupta - May• 08•20

दो खबरे एक साथ आयी, एक भाई ने बहन के कोरोना होने पर छत से छलांग लगायी और एक पोते ने दादी के कोरोना पोजेटिव होने पर फाँसी का फन्दा लगा लिया! डर हमारे रोम-रोम में समा रहा है, यह डर मृत्यु से अधिक दुर्दशा का डर है। कल ही एक खबर और आयी कि कोरोना पोजेटिव की मृत्यु हो गयी। उसे सीधे ही श्मशान ले गये लेकिन उसके बेटे ने हाथ लगाने की हिम्मत नहीं जुटायी! मृत्यु का यह सत्य सभी को दिखायी देने लगा है, घर से निकलते समय व्यक्ति इतना डरा रहता है कि आधी जंग तो वह वहीं हार जाता है। प्रशासन को थोड़ा संयम दिखाना चाहिये और समाज यदि इस देश में कहीं किस कोने में दुबका है तो उसे धीरज बंधाने के लिये आगे आना चाहिये।
पूरे देश में जो अफरा-तफरी मची है, वह भी इसी डर से मची है कि कब कौन किस शहर में गुमनाम सी मौत मर जाएंगे! कम से कम अपने घर तो पहुँच जाएं! हिन्दू दर्शन में मृत्यु को संस्कार माना गया है, अन्तिम संस्कार। मृत्यु को भी हमने जीवन की तरह महत्व दिया है इसलिये सम्मानपूर्वक संस्कार का महत्व है। लेकिन समाज का कोई भी अंग ऐसे परिवारों को ढांढस बंधाने आगे नहीं आ रहा है! व्यक्ति का डर समाप्त होना चाहिये, कि वह गुमनाम सी जिन्दगी अस्पताल में जीने को और मरने को मजबूर ना हो। उसे लगना चाहिये कि उसका परिवार और उसका समाज उसके साथ खड़ा है। संक्रमण को देखते हुऐ चाहे रोगी को पास ना जाएं लेकिन रोगी को लगना चाहिये की उसके अपने उसके पास हैं। यह काल ऐसा है कि जब अपने भी दूसरे शहरों में या विदेश में हैं तब समाज को और अधिक ध्यान देने की जरूरत हैं। समाज के लोगों के, लोगों के पास संदेश पहुँचने चाहिये कि कुशलता नहीं होने पर सूचित करें, किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर सूचित करें। नागरिकों की सूची बनाकर कुशलक्षेम पूछना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को लगना चाहिये कि वह अकेला नहीं है, उसके साथ समाज और देश खड़ा है। भारत में सरकार तो आज विश्वास दिलाने में सफल हो रही है लेकिन समाज अभी आगे नहीं आया है। सामाजिक नेतृत्व को समाज का संरक्षक बनकर आगे आना ही होगा नहीं तो यह डर बढ़ता ही जाएगा। बस डर कम होना चाहिये।

दोनों जीवन देख लिये

Written By: AjitGupta - Apr• 20•20

पुराने जमाने में विलासिता का प्रदर्शन दो जगह होता था – एक राजमहल तो दूसरा किसी गणिका का कोठा। हर आदमी लालायित रहता था कि कैसे भी हो एक बार राजमहल देख लिया जाए! इसी प्रकार जैसे ही जवानी की दस्तक हुई नहीं कि मर्द सोचने लगता था कि इस गणिका के कोठे पर नृत्य देखने तो जाना है! वक्त बदला और विलासिता ने पैर पसारे। विलासिता के दर्शन सभी के लिये सुलभ होने लगे बस पैसे फेंको और तमाशा देखो।

एक जमाना था जब भोजन सादगी लिये होता था लेकिन भोजन में भी राजमहलों जैसी विलासिता ने घर करना शुरू किया। आम आदमी के पास करने को दो ही कार्य रह गये, विलासिता पूर्ण वैभव को देखना और ऐसे जीवन का उपभोग करना। पर्यटन इसका सबसे सुन्दर साधन बन गया। एक सामान्य व्यक्ति से मैंने एक बार  पूछ लिया कि बहुत दिनों से दिखायी नहीं दिये, कहाँ थे? वे बोले कि हम साल में दो बार विदेश यात्रा पर जाते हैं, एक लम्बी दूरी की और दूसरी छोटी दूरी की। हमने सारा संसार देख लिया है, अच्छे से अच्छे होटल देख लिये हैं और मंहगे से मंहगा खाना खा लिया है।

मैं अपने शहर के जीवन पर नजर घुमाने लगी, देखा कि शनिवार-रविवार को कोई भी सभागार और होटल-रेस्ट्रा खाली नहीं है, सभी में कुछ ना कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं। वहाँ भी अच्छे भोजन के लिये जा रहे हैं और मंचों पर मिलने वाले फूलों के हार का भी लालच है। कहीं पिकनिक है, कहीं किट्टी है, कही जन्मदिन मन रहा है तो कहीं विवाह की वर्षगाँठ। शहर में विवाह समारोह की तो धूम मची है, औसतन आदमी साल में 30-40 दिन तो समारोह में चले ही जाता है। याने की हर व्यक्ति विलासिता में डूब जाना चाहता है।

ऐसे जीवन के चलते अचानक ही हो गया लॉकडाउन। सब कुछ बन्द। विलासिता के दर्शन बन्द, पकवानों की वजह बन्द! एक तरफ डर पसर रहा था, जीवन के आनन्द छिन रहे थे तो दूसरी तरफ नई रोशनी भी हो रही थी। घर की मुंडेर पर चिड़िया चहकने लगी थी, धूल से पटा आंगन साफ रहने लगा था। सड़क के पार वाले घर से भी आवाजें सुनायी दे रही थीं। घर-घर में सादगीपूर्ण भोजन बन रहा था, सभी के पेट स्वस्थ हो रहे थे। कपड़ों से अटी पड़ी अल्मारी की ओर सुध ही नहीं थी! पैसे भी कृपणता से घर छोड़ रहे थे। बच्चों का जिद करना भी कम से कम होता जा रहा था।

पहले हम भाग रहे थे, अब घर में शान्त से बैठे हैं। विलासिता देखते-देखते हमने घर को भी अजायबघर बना डाला था। सादी दाल-रोटी खाना पुरातनपंथी लगती थी और विदेशी खाना हमारे लिये फैशन बन गया था। दुनिया की दौड़ में हम शामिल होकर अपना चैन खो बैठे थे। बस दौड़ रहे थे, दौड़ रहे थे। अपना स्वाद भूल गये थे, पराये स्वाद के पीछे पागल हो रहे थे! शाम 5 बजे बाद अब घर बसने लगते हैं, मर्द घर में आने लगते हैं, रात 9 बजे तक सारे घरों में अंधेरा होने लगता है। सड़कें खामोश हो जाती हैं। झिंगुर की आवाज भी सुनायी दे जाती है। लगता है जीवन का परम सुख पा लिया हो।  

विलासिता इतनी भी नहीं पैर पसारे कि कोरोना जैसा विषाणु हमारे अन्दर ही प्रवेश कर लें और वहीं बस जाएं! हम दौड़ना भूलकर घर में कैद हो जाएं! जीवन ने करवट बदली है, दोनों जीवन हमने देख लिये हैं, बस कौन सा कितना अच्छा है, यह आकलन हमें करना है। विलासिता के लिये कितनी दौड़ लगानी है और अपने घर के लिये कितनी हद बनानी है, यह निर्णय हम सबका है।

आते रहा करो

Written By: AjitGupta - Apr• 17•20

निंदक टाइप के लोग बड़े कमाल के होते हैं, किसी की बाल की खाल निकालनी हो तो ये ही याद आते हैं। क्या मजाल ऐसे बन्दे किसी की तारीफ कर दें, कोई ना कोई अवगुण निकाल ही लेते हैं। आप कहेंगे कि इसमें क्या कमाल है, मैं कहती हूँ की कमाल ही कमाल है। तभी तो कवि ने भी कह दिया कि निंदक नियरे राखिय़े। आंगन में अच्छी सी कुटिया बनाकर इन्हें जगह देनी चाहिये। अब कल की ही बात ले लीजिए, बन्दा लाकडाउन के आंदोलन की निंदा करके चले गया। एण्टी वायरस बनाने में जितना दिमाग चाहिये उतना ही दिमाग निंदा करने में लगता है, ऐसे ही नहीं कपिल सिब्बल जैसे लोग रोज उग आते हैं और लोग इन्हें हाथों हाथ लेते हैं। किसी के परचक्खे उड़ता देख आनन्द आता है लोगों को।

लेकिन बन्दा सच्चा होना चाहिये, यह नहीं की किसी ने कागज पर लिख दिया, थोड़ी मशक्कत करा ली और बन्दा आकर बक गया। ऐसे नहीं निंदक बन जाओगे प्यारे लाल। खुद का दिमाग  होना चाहिये तब जाकर अंगद की तरह पैर जमा पाओंगे! माना कि तुम तुरप के पत्ते के समान बोल गये कि लोकडाउन दवा नहीं है, लेकिन दवा से कम भी नहीं है! छूत की बीमारी को संक्रमण से बचा लो तो दवा जैसा ही काम करती है! ढूंढ-ढूंढकर लाते तो बहुत हो लेकिन खुद का दिमाग नहीं होने से सारा गुड़-गोबर हो जाता है। मेरे हीरालाल खुद को खुरचो, तब जाकर हीरे में चमक आएगी। कब तक कॉपी-पेस्ट करके काम चलाते रहोंगे! नेता बनना है तो खुद का ही दिमाग चाहिये नहीं तो ना घोड़ा और ना गधा, कुछ नहीं बन पाओगे।

खुद को कभी कन्हैया लाल बना लेते हो, कभी कजरी जैसा तो कभी अहमद पटेल की नकल करते हो, लेकिन सारे ही जतन बेकार हो जाते हैं क्योंकि ऑरिजिनल नहीं हैं ना! तुम ने कभी भी सुना है कि कोई भी व्यक्ति यह कह रहा हो कि मैं गाँधी परिवार के कुल दीपक जैसा बनना चाहता हूँ! बस तुम ही लगे पड़े हो, लोगों के पीछे! कभी यह बन जाऊँ, कभी वह बन जाऊँ! जब तक ऑरिजनल निंदक नहीं बनोंगे तब तक तुम्हारा कुछ नहीं होने का। कुछ और कुटिल लोगों के साथ रहो, उनको अपना गुरु मानो और धार पैनी करो। नकल से तो कुछ नहीं मिलने वाला। प्रेस के सामने आओ और मनोरंजन करके चले जाओ, बस यही काम रह गया है तुम्हारा। अब तो तुम्हारे पास माँ का बेटा होने के अतिरिक्त कोई आधार-कार्ड भी नहीं है, फिर भी तुम मनोरंजन करने चले आते हों और हमारी  प्रतिभा को भी लिखने को उकसा जाते हो, इसके लिये तो आभार बनता ही है। कब से सोशल मीडिया खामोश सी थी, तुम्हारे आने से हलचल तो हुई। आते रहा करो। निंदक तो नहीं बन सकते, हाँ वैसे ही आ जाया करो, कुछ तो मसाला मिल ही जाता है।