अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

घौंसला बनाता नर-बया

Written By: AjitGupta - Aug• 28•20

शाम को घूमने का एक ठिकाना ढूंढ लिया है, एक ऐसा गाँव जहाँ पर्याप्त घूमने की जगह है। जहाँ जंगल भी है, और जंगल है तो पक्षी भी हैं। नाना प्रकार की चिड़ियाएं हैं जिनकी चींचीं से हमारा मन डोलता रहता है। काश हम इनकी भाषा समझ पाते! हम देख रहे हैं एक पेड़, जहाँ बया के खूबसूरत कई घौंसले लटक रहे हैं। अभी अधूरे हैं, नर-बया उन्हें बुनने में लगे हैं। मादा बया खुशी से प्रफुल्लित होकर चींचीं कर रही है। मादा-बया की खुशी से नर-बया उत्साहित होकर घौंसला बनाने में फुर्ती लाता है। दौड़-दौड़कर तिनके ला रहा है और बहुत ही खूबसूरती  से उन्हें घौंसलों में बुन रहा है। धीरे-धीरे घौंसला तैयार हो रहा है। मादा बया का निरीक्षण शुरू हो गया है। यह क्या? एक घौंसला अधूरा छूट गया है! अब नर बया दूसरे घौंसले पर काम कर रहा है! पता लगा कि मादा बया ने कहा कि यह घौंसला ठीक नहीं बन रहा है, इसमें गृहस्थी नहीं जमायी जा सकती है। बस मादा बया ने रिजेक्ट कर दिया तो रिजेक्ट हो गया। नर क्या करता! उसने फिर मादा बया को खुश रखने का प्रयास किया। पेड़ पर ऐसे अधूरे और पूरे कई घौंसले हो गये। अब मादा बया स्वीकृति देगी तो गृहस्थी बनेगी और फिर अण्डे सुरक्षित रह पाएंगे।

हम प्रतिदिन देख रहे हैं, नर-बया का कृतित्व। चित्र लेने का प्रयास भी करते हैं लेकिन चिड़िया आती है और फुर्र हो जाती है। हम आपस में बया की कहानी कहने लगते हैं फिर किसी पेड़ की जानकारी बताने लगते हैं और एक घण्टा घूमने का कब पूरा हो गया, खबर ही नहीं लगती! हमारे सामने प्रकृति है, कभी मोर को उड़ते देखते हैं। नाचते तो सभी ने देखा ही होगा लेकिन मोर उड़कर कैसे दूरियाँ नाप लेता है, यह भी देख लिया है। प्रकृति को समझने और देखने का जितना सुख है, यह सुख बहुत प्यारा है।

कभी इस निर्जन जगह पर कुछ युवक बोतल लिये युवा भी दिख जाते हैं, साथ में चबेना भी है। वे प्रकृति को देखने नहीं आए हैं अपितु प्रकृति की गोद में बैठकर छिपने आए हैं। वे प्रकृति को समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्होंने प्रकृति के बारे में कुछ पढ़ा ही नहीं है। उनमें जिज्ञासा ने जन्म ही नहीं लिया है। वे तो भोग में लगे हैं, इस निर्जर जंगल में डर पैदा करने में लगे हैं। यही तो असुरत्व है। डर पैदा करो। कल दो माँ-बेटी भी हमें देखकर यहाँ आ गयीं। उन्होंने बताया की बस पहाड़ी के उस पार ही हमारा गाँव है लेकिन यहाँ आने की कभी हिम्मत नहीं की। हमने पूछा क्यों? वे बोली की लोग कहते हैं कि यहाँ लोग शराब पीने आते हैं, बहुत कुछ हो जाता है यहाँ।  हमने कहा कि कुछ नहीं होता, रोज आया करो। अब वे निर्भय हो गयी है, आने लगी हैं। लेकिन प्रश्न जो मेरे मन में उदय हो रहा था कि लोग यहाँ आकर प्रकृति में क्यों नहीं खो जाते हैं? क्यों वे यहाँ असुरत्व पैदा करते हैं? शायद इसका कारण है हम पढ़ते ही नहीं हैं। आज का युवा भोगवाद के पीछे भाग रहा है, वह किताबों को हाथ ही नहीं लगा रहा है! उसे पता ही नहीं है कि जीवन कैसे बनाया जाता है। क्या अमीर और क्या गरीब सारे ही सुख के साधनों के पीछे भाग रहे हैं। अपनी हैसियत को धता बताकर माता-पिता को भी दुत्कार, बस सुख के साधन उनकी जीवन नैया हो गयी है। वे प्रकृति को देख ही नहीं रहे हैं कि प्रकृति में एक छोटी सी चिड़िया कितना परिश्रम करती है। परिश्रम करने पर ही उसे गृहस्थी का सुख मिलता है। लेकिन हम बोतल लेकर यहाँ आते हैं। ज्ञान नहीं है, तभी तो कुछ देख ही नहीं पाते। यदि ज्ञान होता तो बोतल घर पर भी याद नहीं आती। बस प्रकृति में ही खो जाने का मन करता। काश हम ज्यादा समय वहाँ रह पाते। उस बया के घौंसले बनाने वाले नर-बया से कुछ और सीख लेते!

हम ऊर्जा कहाँ से लेते हैं?

Written By: AjitGupta - Aug• 21•20

कल माँ और बेटे के बीच हुई रोचक बात सुनिये। परिवार की बात नहीं है ना ही सामाजिक है, विज्ञान की बात है। लेकिन आप सभी को पढ़ लेनी चाहिये और अपनी राय भी देनी चाहिये जिससे यह बात आगे बढ़े। तो सुनिये – कल ही समाचार पत्र में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि धरती पर भार बढ़ रहा है इस कारण चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है और यदि ऐसा ही रहा तो धरती दो भागों में विभक्त हो जाएगी!

मैंने बेटे को बताया कि यह क्या है? अब वह इंजीनियर है तो विज्ञान क्षेत्र में कुशल ही है। वह बोला कि मैंने भी पढ़ा था। प्रश्न यह है कि भार कैसे बढ़ रहा है? पृथ्वी की ऊर्जा से ही सब कुछ बनता है, यहाँ की ऊर्जा यहाँ ही लगती है तो भार कैसे बढा?

मैंने कहा कि पृथ्वी तो कण पैदा करती है लेकिन हम मण हो जाते हैं!

उसने कहा यह सब इसी ऊर्जा से होता है। यदि किसी की मृत्यु होती है तो इसी उर्जा में समा जाती है। मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी, पूछा कि मतलब पंचतत्व में विलीन हो जाती है? लेकिन हम तो जलकर शीघ्र ही पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं और वे जो दफन होते हैं?

वे भी कभी ना कभी पंचतत्व में विलीन होते ही हैं। मतलब यहीं की ऊर्जा यहीं पर काम आ गयी।

अब मेरा जो प्रश्न था वह ही धमाका था, मैंने पूछा कि हम तो ऊर्जा सूर्य से भी लेते हैं और सारे ही जीव जगत सूर्य के कारण ही बढ़ते हैं, तो यह तो पृथ्वी के अतिरिक्त हुआ ना! फिर हमारे इतने ग्रह हैं जिनकी ऊर्जा भी हम लेते ही हैं! हमारे यहाँ ज्योतिष विज्ञान है जो कहता है कि  हमारे जीवन में ग्रहों का प्रभाव होता है, तो सत्य ही है। हम सभी से ऊर्जा लेते हैं तो सभी से प्रभावित भी होते हैं। इसलिये ज्योतिष एक बहुत बड़ा विज्ञान है, जिसे समझना अति आवश्यक है।

इस एनर्जी याने की ऊर्जा के सिद्धान्त ने हम दोनों को ही अवाक कर दिया, उसने कहा इसे मैं विस्तार से पढ़ूंगा। विज्ञान कुछ भी कहे लेकिन मुझे तो समझ यही आया है कि ज्योतिष ज्ञान है और अब इसे बिन्दू-बिन्दू के रूप में समझकर विज्ञान की तरह सिद्ध करना होगा। कब मंगल से हम उर्जा लेते हैं, कब बृहस्पति से और कब बुद्ध से! इसी के अनुरूप  हमारा जीवन  बनता है। बस यह विज्ञान समझने की जरूरत है, फिर बहुत सारी गुत्थियाँ सुलझ जाएंगी। शायद यह भी पता लगे कि कौन सा वायरस किससे ऊर्जा ले रहा है!

अपने बच्चों से ऐसी रोचक बातें करते रहिये, बहुत नवीनता मिलती है। वैसे आप सब करते ही होंगे लेकिन थोड़ा कुरदेकर सीखने की दृष्टि से करेंगे तो सार्थक परिणाम मिलेंगे।

फेसबुक का कमरा

Written By: AjitGupta - Jul• 31•20

हमारे यहाँ कहावत है कि दिन में कहानी सुनोंगे तो मामा घर भूल जाएगा! यहाँ मामा का रिश्ता तो सबसे प्यारा होता है, भला कौन बच्चा चाहेगा कि मामा ही घर का रास्ता भूल जाए! माँ जब  बच्चों से कहती है, तब बच्चे जिद नहीं करते और रात को ही आकर कहानी सुनते हैं लेकिन यह जुकरबर्ग ने तो हमें कठिनाई में डाल दिया! फेसबुक की हमारी दीवार पर लोगों की कहानी चिपका दी। अब दिन उगते ही हमें स्टोरी याने की कहानी पढ़नी पड़ती है। एक को सरकाओ तो दूसरी तैयार है, कब तक सरकाओगे! जुकरबर्ग कह रहा है कि मैं मामा का रास्ता  बन्द कराकर ही रहूंगा। भला यह भी कोई बात हुई! तुम्हारा मामा तुम्हें प्यार नहीं करता होगा, हमारे देश में तो शकुनी मामा तक भानजे से प्यार करता था। हमने जिद ठान ली कि हम कहानी दिन में नहीं पढ़ेंगे, जुकरवा ने अब हमारे ऊपर एक अदद कमरा तान दिया! यह फेसबुक है या कमरा बनाने की जगह! कमरा बन्द कर लेंगे और चाबी खो जाएगी तो क्या होगा? कोई जोर जबरदस्ती है क्या कि कहानी भी पढ़ो और कमरे में भी झांको!

हमने आजतक किसी के कमरे में ताक-झांक नहीं की। अब सरेआम कहा जा रहा है कि कमरे में जाओ! अपनी फोटो चिपकाकर कहानी से पेट नहीं भरा जो कमरा छान दिया हमारी दीवार पर! सुबह उठकर हम प्रभु को प्रणाम तो कर नहीं पाते लेकिन यहाँ जरूर करना पड़ता है। एक अदद मेसेंजर से ही दुखी थे और ऊपर से यह और लाद दिया हमारे ऊपर! ऐसा लग रहा है जैसे यूआईटी वाले कह दें कि खाली छतों पर आप अपना कमरा बना लीजिये। कर लो बात! छत मेरी और कमरा तेरा! किस-किस पर ताला लगाएं, जहाँ भी खुला रह जाता है, वहीं दूसरे के कब्जे होने का डर बना रहता है। सारे ही हमारी वॉल पर लिखने को टेग करते ही रहते हैं, अब कमरा और तान दिया! एक कोरोना से परेशान है कि वह मौका तलाश रहा है, हमारे शरीर में अपना खूंटा गाड़ने के लिये। जरा सी नाक खुली रह जाए तो वह घुस जाता है,  फिर तो उसी का राज हो जाता है। दूसरी तरफ फेसबुक का आतंक है कि चारों तरफ से आक्रमण हो रहे हैं। किले को चारों तरफ से घेर लिया है, चारों तरफ की दीवारे देखी जा रही हैं, जाँच पड़ताल जारी है कि कहाँ से घुसा जाए! एक तरफ मेसेन्जर की दीवार है, यह सबसे कच्ची है. यहाँ आराम से घुसा जा सकता है, दूसरी टेग की दीवार है, यहाँ थोड़ी सी अड़चन है। अब स्टोरी की जगह  देने से इस दीवार में भी रास्ता निकल सकता है और कमरे को  भी भेदकर घुसा जा सकता है! याने कि किला चारों तरफ से असुरक्षित  है! हे मेरे जुकरबर्ग! हमारी इस मुखपुस्तिका को थोड़ा सा सुरक्षित कर दो। हम तो अपना कीमती सामान मन्दिर के खजाने में सुरक्षित समझकर रख रहे हैं और आप हैं कि हमें चारों और से बेपर्दा कर रहे हैं।

हटा दीजिए ना हमारे ऊपर से ये कमरें और कहानी की दीवार। हम वैसे ही पढ़ाकू टाइप के लोग हैं, पढ़ ही लेंगे। क्यों हमारे घर पर आकर ही सत्यनारायण की कथा करनी है! ढ़ोल- मंजीरे अपने घर पर ही बजा लीजिये। हमें कुछ शान्ति चाहिये। हमारी बात आपको समझ आए तो सुन लीजिये, नहीं तो हम भला क्या कर सकते हैं!

सूरज को पाने की जंग

Written By: AjitGupta - Jul• 29•20

हमारे बंगले की हेज और गुलाब के फूल के बीच संघर्ष छिड़ा है, हेज की सीमा बागवान ने 6 फीट तक निर्धारित कर दी है। इस नये जमाने में, मैं बंगले और हेज की बात कर रही हूँ, अरे अब तो नया जमाना है, बस फ्लेट ही फ्लेट चारों तरफ हैं। लेकिन सोसायटी में भी दीवारें हैं और इन दीवारों के सहारे हेज को जगह मिली हुई है। मैं छोटे शहरों की बात कर रही हूँ, जहाँ अभी भी छोटे-बड़े बंगलें होते हैं और साथ में होती है हेज। हेज हमें सड़क से पृथक भी करती है और एक झीना सा पर्दा हमारे और सड़क के बीच डाल देती है। बागवान ने हेज के साथ गुलाब की डाली भी रोप दी। गुलाब बढ़ने लगा, उसे सूरज की किरणों की चाहत हुई, वह तेजी से बढ़ा। देखते ही देखते गुलाब की नन्हीं सी डाली हेज के ऊपर निकल गयी। बागवान आए और डाली को सीमित कर जाए लेकिन गुलाब माने ना! उसे तो सूरज का प्रकाश चाहिये ही, क्योंकि उसे फूल खिलाने हैं, बगिया में ही नहीं अपितु वातावरण में सुगन्ध फैलानी है।

मुझे रोज लगता है कि मेरी छोटी सी बगिया में मानो सूरज को पाने के लिये रोज संघर्ष छिड़ता है। एक बार बचपन में मसूरी गये थे, वहाँ लम्बे-लम्बे देवदार के वृक्ष हैरान कर रहे थे। गहरे जंगल में उगे देवदार सूरज को पाने के लिये जंग छेड़े हुए थे। बस बढ़ते ही जा रहे थे, जब तक सूरज का प्रकाश ना मिल जाए! मेरे गुलाब भी बढ़ते ही जा रहे हैं, जब तक सूरज का प्रकाश ना मिल जाए! गुलाब और देवदार प्रकृति के साथ रहते हैं, अपने रास्ते स्वयं तलाश लेते हैं। गुलाब नाजुक है और देवदार सुदृढ़, लेकिन दोनों ने ही अपना हित साध लिया है। वे जान गये हैं कि बिना सूर्य प्रकाश के हमारा जीवन नहीं है! लेकिन इन्हीं देवदार और गुलाब को गमले में कैद करके घर की दीवारें के बीच सजा दो तो? वे रुक जाएंगे, वहीं थम जाएंगे।

मेरे बंगले में दो सीताफल के पेड़ भी लगे हैं, हर साल इतने सीताफल आ जाते हैं कि बाजार से खरीदना नहीं पड़ता लेकिन इस बार सीताफल बहुत ही कम आए, क्योंकि बारिश ही नहीं है। प्रकृति जो पानी दे रही है, वह नहीं मिला और जब पानी नहीं मिला तो सीताफल बड़े नहीं हो पाए और गर्मी से पककर नीचे गिरने लगे। कमजोर सीताफल को फंगस ने आ घेरा और फिर सब कुछ विनष्ट! लाख दवा डाल लो लेकिन प्रकृति का साथ नहीं है तो कुछ भी नहीं है। संघर्ष तो सीताफल ने भी किया ही होगा लेकिन वह गुलाब की तरह वर्षाजल नहीं ले पाया। प्रकृति हमें सूर्य का प्रकाश देती है, प्रकृति हमें वर्षाजल देती है, लेकिन हम लेते ही नहीं हैं, देने वाला दोनों हाथ से दे रहा है लेकिन हमने हाथ बांध लिये हैं। हम सिमट गये हैं।

हमारे बंगले अब सिमटते जा रहे हैं, फ्लेट ने उनकी जगह ले ली है। सूरज अब वहाँ झांक भी नहीं सकता। हम जो नयी पौध उगाते हैं उन्हें सूरज को छूने का अवसर ही नहीं मिलता। हमारे बच्चे सूरज के प्रकाश को सीधा पाते ही नहीं। वे गुलाब की तरह संघर्ष करके हेज से बाहर निकल ही नहीं पाते। वे कमजोर बनकर रह जाते हैं। सीताफल की तरह उन्हें भी वर्षाजल चाहिये लेकिन हम छुईमुई बनाकर उन्हें दूर कर देते हैं। ना धूप मिले और ना वर्षाजल! ना मिट्टी के साथ रहें और ना ही खुली हवा के साथ! तो फिर कब कौन सा फफूंद हमारे जीवन के आ घेरता है, हमें पता ही नहीं चलता! छोड़ दो बच्चों को प्रकृति के साथ, कुछ पल तो उन्हें दे दो कि वे स्वतंत्र होकर सूरज के प्रकाश को ढूंढ सकें। उनकी हड्डियां मजबूत होंगी तो वह लड़ सकेंगे हर  रोग से नहीं तो फिर कृत्रिम विटामिन डी3 खाकर काम चलाना पड़ेगा। सीताफल की तरह कृत्रिमता से पक तो जाएंगे लेकिन अपनी सुरक्षा कितनी कर पाएंगे पता नहीं!

मैं अभिव्यक्ति हूँ

Written By: AjitGupta - Jul• 08•20

जी हाँ मैं अभिव्यक्ति हूँ। अपने अन्दर छिपे हुए भावों को प्रत्यक्ष करने का माध्यम। न जाने कितने प्रकार हैं मेरे! कितने भावों से भरी हूँ मैं! कभी छिपना चाहती हूँ और कभी प्रकट होना चाहती हूँ। कभी प्रकट नहीं हो पाती और कभी किसी अन्य माध्यम से प्रकट हो जाती हूँ। मैं प्रेम को प्रकट करना चाहती हूँ लेकिन प्रेम के स्थान पर आक्रोश फूट पड़ता है, फिर भी मेरा प्रेम प्रकट हो जाता है। आक्रोश में छिपकर प्रेम बाहर निकल आता है। मेरा जन्म मनुष्य के जन्म के साथ ही हुआ है। शिशु के रूप में, माँ की कोख से बाहर आते ही मेरी अभिव्यक्ति प्रारम्भ हो जाती है, मैं रोकर अभिव्यक्त होती हूँ। शिशु कहता है कि मैं आ गया हूँ, मैं तुम्हारी संतान के रूप में इस धरती पर, तुम्हारे घर में, तुम्हारे परिवार में आ गया हूँ। जिस माँ की कोख से बाहर आकर शिशु ने खुद को अभिव्यक्त किया, उसी माँ के स्तन से अमृत झरने लगता है और माँ की ममता अभिव्यक्त होने लगती है। परिवार थाली बजाकर, नाच-गाकर, अपनी अभिव्यक्ति को उजागर करते हैं। सारी दुनिया जान जाती है कि नन्हें शिशु के रूप में, मैं उसकी अभिव्यक्ति बनकर साथ आ गयी हूँ।

मैं प्रेम को बाहर निकालती हूँ, मैं आक्रोश को बाहर निकालती हूँ, मैं लोभ को बाहर धकेलती हूँ, मैं विरक्ति को बाहर प्रकट करती हूँ, मैं अहंकार को सार्वजनिक करती हूँ, मैं स्वाभिमान को फूलों की महक के साथ जिन्दा करती हूँ। मैं मेरे अन्दर की महक हूँ, मैं मेरे अन्दर की दुर्गन्ध हूँ, मैं कायरता हूँ, मैं ही साहस हूँ, मैं ही घृणा हूँ और मैं ही आसक्ति हूँ। न जाने मेरे कितने प्रकार है? 64 कलाओं की तरह मेरे 64 रूप हैं। कभी मैं शब्दों से प्रकट होती हूँ, कभी नृत्य से तो कभी गान से। कभी मैं रंगों से सजती हूँ और कभी बदरंग में भी दिखायी देती हूँ। कभी किसी वाद्य से झंकृत होती हूँ तो कभी मौन सी पसर जाती हूँ। कभी मुखर हो जाती हूँ तो कभी अपने ही अहसासों तले दबकर रह जाती हूँ। मेरी कल्पना लोग वर्तमान में करते हैं, कभी भूत में भी कर लेते हैं और कभी भविष्य में भी मुझे पा लेते हैं। मेरे पास न जाने कितनी उपमाएं हैं! मैं रोज ही नये की ओर कदम बढ़ाती हूँ।

एक समय था कि मैं कुछ सीमित दायरे में ही दिखायी देती थी,  लेकिन आज मेरा कोई भी दायरा नहीं है, मैं घर में भी हूँ, दुनिया में भी हूँ, अंतरिक्ष में भी हूँ। मेरी पहुँच हर जगह है। कहीं से भी मैं प्रकट हो जाती हूँ और कहीं से भी मैं दिख जाती हूँ, सुनी जाती हूँ। सृष्टि के सारे प्राणियों में से मनुष्य के पास ही मैं सर्वाधिक मात्रा में हूँ। जब से मनुष्य के पास मैं गयी हूँ और मनुष्य के रूप में मेरा धरती पर आविर्भाव  हुआ है, मैंने मेरी 64 कलाओं को अपना माध्यम बनाना शुरू किया है। सारी कलाएं प्रत्येक व्यक्ति के पास नहीं हैं लेकिन व्यक्ति के अन्दर सुख-दुख-राग-विराग सारे ही गुण हैं, इसलिये हमें इन कलाओं की उपासना करनी पड़ती हैं कि हम अभिव्यक्ति का मार्ग तलाश लें। कई बार हम अपने राग-विराग सात तालों में बन्द कर लेते हैं, अभिव्यक्ति अपना मार्ग तलाशने लगती है लेकिन हम सारे ही मार्ग बन्द करते जाते हैं और कभी विस्फोट होकर अभिव्यक्ति खुद को प्रकट कर ही देती है।

एक कथा याद आ रही है – शंकराचार्य की कथा! शंकराचार्य बाल ब्रह्मचारी थे, उन्हें गृहस्थी का ज्ञान नहीं और ज्ञान नहीं तो अभिव्यक्ति भी नहीं! लेकिन यौन सम्बन्ध ज्ञान का विषय नहीं, यह तो शारीरिक गुण हैं, जो प्रत्येक प्राणी का आवश्यक गुण है। एक शास्त्रार्थ में उभय भारती ने प्रश्न कर लिया, पति-पत्नी के सम्बन्धों पर! बस फिर क्या था, शंकराचार्य से उत्तर देते नहीं बना। उनकी अभिव्यक्ति मौन हो गयी। शरीर के अन्दर सुगन्ध है लेकिन अभिव्यक्ति का मार्ग नहीं! क्योंकि हमने सात तालों में बन्द कर लिया है! शंकराचार्य हार की कगार पर खड़े थे लेकिन उभय भारती ने कहा कि मार्ग तलाशकर आओ। एक माह का समय मिला, शंकराचार्य ब्रह्मचारी ठहरे, मार्ग कैसे तलाशें, अनुभव कैसे लें! एक रूग्ण और मरणासन्न राजा की काया में प्रवेश किया और अभिव्यक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि अभिव्यक्ति नहीं है तो आप ज्ञान शून्य ही कहलाएंगे और अभिव्यक्ति है तो ज्ञानवान! सृष्टि में न जाने कितने प्रकार के जीव हैं, कहते हैं कि कोई एकेन्द्रीय है तो कोई दो-इन्द्रीय तो कोई तीन, कोई चार और कोई पाँच। सभी में अभिवयक्ति की क्षमता है। मनुष्य  पाँच-इन्द्रीय वाला प्राणी है तो उसके पास नाना  प्रकार की अभिव्यक्ति के साधन हैं। लेकिन यदि मनुष्य भी अपनी अभिव्यक्ति ना कर सके तो उसमें और एकेन्द्रीय प्राणी में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। ऐसे प्राणी केवल भोग करते हैं, अभिव्यक्ति नहीं होते। इसलिये संसार में इन्हें भोगवादी कहा जाता है। मनुष्य चूंकि कर्म करता है, स्वयं को अभिव्यक्त करता है इसलिये वह कर्मवादी कहलाता है।

संसार के हर कण में अभिव्यक्ति है, कहीं शिल्प है, कहीं लेखन है, कहीं चित्रकारी है, कोई नृत्य का मार्ग बता रहा है तो कोई गायन का और कोई वाद्य का। प्रकृति भी अपनी अभिव्यक्ति करती है, कभी नदी बनकर बहने लगती है तो कभी झरना बनकर कलकल करती है, कभी पर्वत बनकर ऊँचाइयों को बता देती है तो कभी सागर बनकर विशालता का परिचय दे देती है। रेत में पृथकता और एकता दोनों को दर्शाती है, बादलों में अपने अन्दर जल को समेटने के गुण को बता देती है। हवा कितने प्रकार की अभिव्यक्ति को एक साथ लेकर चलती है, कभी सुकून दे जाती है तो कभी अंधड़ बनकर सब कुछ उड़ा ले जाती है। कभी बर्फ पड़ने लगती है तो कभी भीषण गर्मी मन तक को झुलसा देती है। प्रकृति अपने आप में ही कभी मोहक तो कभी दुर्दान्त सी लगती है।

सभी कुछ अभिव्यक्ति में ही निहीत है। पर्वत ने स्वयं को अभिव्यक्त कर दिया तो रत्न निकल आते हैं, सागर ने अभिव्यक्त किया तो अमृत और विष दोनों ही निकल आते हैं। नदी ने अभिव्यक्त किया तो पृथ्वी के साथ मिलकर दुनिया क लिये धान पैदा कर देती है। मनुष्य अभिव्यक्त होने लगता है तब सारा ही ज्ञान-विज्ञान-कला प्रगट होने लगती है। कहाँ मनुष्य प्रकृति के बीच खड़ा था और कहाँ मनुष्य ज्ञान-विज्ञान-कला को अभिव्यक्त करने के बाद अपने ही बनाए स्वर्ग में खड़ा है! अब जन्नत की कल्पना की जरूरत नहीं, मनुष्य ने धरती पर ही जन्नत बना ली है, इसे चाहे जन्नत कह लो, इसे चाह स्वर्ग कह लो और इसे चाहे हैवन कह लो। बस सारा ही अभिव्यक्ति का खेल है। जितने हम अभिव्यक्त होते जाएंगे उतना ही नवीन संसार रचते जाएंगे। हमारी आँखों में उतने ही सपने बड़े होते जाएंगे, हमारी कल्पना की दुनिया विशाल होती जाएगी।

जब समुद्र-मंथन हुआ था, तब अभिव्यक्ति को ही मार्ग मिला था, मंथन में विष निकला था। हमारे अन्दर भी नकारात्मक भाव जो विष रूप में होते हैं, वे ही सबसे पहले बाहर निकलते हैं। अभिव्यक्ति का प्रकार कैसा भी हो, सबसे पहले हमारे अन्दर का विष ही निकलता है। इसलिये बिना अभिव्यक्त हुए अन्दर का विष बाहर नहीं आ पाता है। जितना भी हमारा कलुष है उसे मार्ग मिलने लगता है और फिर धीरे-धीरे निर्मल होते-होते अमृत का घड़ा निकल आता है। समुद्र मंथन में कहा गया कि मंथन करते समय समुद्र में से कामधेनु नामक गाय प्रगट हुई याने की हमारे अन्दर चाहतों का पुंज है, हम चाहते है कि जैसे ही हम इच्छा करे और बस तुरन्त हमें अपना इच्छित मिल जाए! हम सब कुछ एक ही अभिव्यक्ति से चाह लेते हैं। जैसे ही हमारी चाहतें प्रगट  होने लगती हैं, हम घोड़े के समान दौड़ लगाने लगते हैं। इसलिये समुद्र-मंथन में कामधेनु के बाद घोड़ा निकला जिसका नाम था – उच्चै:श्रवा। मन की तरंग घोड़े जैसी होने लगती है और हम सात मुँह और ऊँचे कान से खुद को प्रगट करने लगते हैं। अभिव्यक्त होते समय हम ऐरावत हाथी बन जाते हैं, इसलिये समुद्र-मंथन में घोड़े के बाद हाथी का वर्णन मिलता है। समुद्र-मंथन से ही हम कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रम्भा, लक्ष्मी की कल्पना को साक्षात् करते हैं और अन्त में अमृत को पा लेते हैं। इसलिये यदि अपने अन्दर के विष को निकालकर अमृत प्रदान करना चाहते हो तो अभिव्यक्ति का मार्ग चुनो। यह मार्ग कोई भी हो सकता है, बातों से लेकर लेखन, गीत से लेकर नृत्य या फिर शिल्प से लेकर चित्रकला। ज्ञान का प्रस्फुटन हो या फिर विज्ञान का। पाक-कला से लेकर युद्ध कला तक में  हम खुद को अभिव्यक्त करते हैं। जब भी हम सृजन करते हैं तब कला को माध्यम चुनते हैं और कला के माध्यम से हम खुद को अभिव्यक्त्त करते हैं। अभिव्यक्ति के बाद शरीर और मन प्रस्फुटित होता है, उसके परागकण दिग-दिगन्त में फैल जाते हैं और फिर हमारा सृजन हर ओर स्थापित हो जाता है। कभी आपने सेमल या आक को फलते देखा है? जब इसका बीज परिपक्व होकर प्रस्फुटित होता है तब लाखों तंतु हवा में बिखर जाते हैं, वे अपनी चाल पकड़ लेते हैं और उड़ान भरने लगते हैं, जहाँ भी धरती का स्पर्श होता है, वे वहीं जम जाते हैं और फिर अंकुरित होकर नवीन सृजन करते हैं। उस बीज को भी पता नहीं कि वह किस धरती पर पुन: अंकुरित होगा, उसकी उड़ान कहाँ तक होगी और वह अपना नवीन जीवन कब प्रारम्भ करेगा!

इसलिये हमेशा मन को कहते रहिए कि मैं अभिव्यक्ति हूँ, बिना अभिव्यक्ति मैं सूक्ष्म प्राणी समान हूँ। इस धरती पर ऐसे प्राणी भी हैं जो जन्म लेते हैं, जन्म लेते ही शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं, नवीन जीव को जन्म देते हैं और फिर उनका जीवन समाप्त हो जाता है। लेकिन हम मनुष्य हैं, हम में अपार ऊर्जा है, हम धरती पर परिवर्तन करने में सक्षम हैं और परिवर्तन के लिये निरन्तर अभिव्यक्ति करते रहिए। स्वयं को रिक्त करना फिर भरना ही कर्म है, जैसे कुआं खुद को जितना रिक्त करता है, उतना ही जल वापस भर लेता है। जिसके पास भी कला है, वह निरन्तर झरता रहता है, उसके अन्दर प्रवाह भरा है, वह मार्ग तलाशता है और जैसे ही उचित मार्ग मिलता है, वह निर्झरणी बन जाता है। मेरी अभिव्यक्ति का कोई ओर नहीं है और ना ही कोई छोर है, बस मैं दिग-दिगन्त तक फैली हूँ। ना मुझे पहाड़ पीछे छिपा सकते हैं और ना ही समुद्र मुझे डुबोकर समाप्त कर सकते हैं। मैं रात हो या दिन, खुले आसमान के नीचे हो या फिर बन्द कमरों में, मैं अभाव में हूँ या फिर प्रचुरता में, सभी समय अभिव्यक्त हो सकती हूँ, अभिव्यक्त होकर सृजन कर सकती हूँ और सृजन करके नवीन दुनिया स्वर्ग के रूप में विकसित कर सकती हूँ। मैं उन लोगों को भी सत्मार्ग पर ला सकती हूँ जो इस धरती पर जन्नत बनाने की जगह कल्पना लोक के जन्न्त को वरीयता देकर इस धरती क जन्नत को तबाह कर रहे हैं। इसलिये मैं अभिव्यक्ति हूँ, मुझे निरन्तर अपना बनाकर रखने में ही सभी का कल्याण है। अभिव्यक्ति ही व्यक्तित्व का निर्माण करती है।