जी हाँ मैं अभिव्यक्ति हूँ। अपने अन्दर छिपे हुए भावों को प्रत्यक्ष करने का माध्यम। न जाने कितने प्रकार हैं मेरे! कितने भावों से भरी हूँ मैं! कभी छिपना चाहती हूँ और कभी प्रकट होना चाहती हूँ। कभी प्रकट नहीं हो पाती और कभी किसी अन्य माध्यम से प्रकट हो जाती हूँ। मैं प्रेम को प्रकट करना चाहती हूँ लेकिन प्रेम के स्थान पर आक्रोश फूट पड़ता है, फिर भी मेरा प्रेम प्रकट हो जाता है। आक्रोश में छिपकर प्रेम बाहर निकल आता है। मेरा जन्म मनुष्य के जन्म के साथ ही हुआ है। शिशु के रूप में, माँ की कोख से बाहर आते ही मेरी अभिव्यक्ति प्रारम्भ हो जाती है, मैं रोकर अभिव्यक्त होती हूँ। शिशु कहता है कि मैं आ गया हूँ, मैं तुम्हारी संतान के रूप में इस धरती पर, तुम्हारे घर में, तुम्हारे परिवार में आ गया हूँ। जिस माँ की कोख से बाहर आकर शिशु ने खुद को अभिव्यक्त किया, उसी माँ के स्तन से अमृत झरने लगता है और माँ की ममता अभिव्यक्त होने लगती है। परिवार थाली बजाकर, नाच-गाकर, अपनी अभिव्यक्ति को उजागर करते हैं। सारी दुनिया जान जाती है कि नन्हें शिशु के रूप में, मैं उसकी अभिव्यक्ति बनकर साथ आ गयी हूँ।
मैं प्रेम को बाहर निकालती हूँ, मैं आक्रोश को बाहर निकालती हूँ, मैं लोभ को बाहर धकेलती हूँ, मैं विरक्ति को बाहर प्रकट करती हूँ, मैं अहंकार को सार्वजनिक करती हूँ, मैं स्वाभिमान को फूलों की महक के साथ जिन्दा करती हूँ। मैं मेरे अन्दर की महक हूँ, मैं मेरे अन्दर की दुर्गन्ध हूँ, मैं कायरता हूँ, मैं ही साहस हूँ, मैं ही घृणा हूँ और मैं ही आसक्ति हूँ। न जाने मेरे कितने प्रकार है? 64 कलाओं की तरह मेरे 64 रूप हैं। कभी मैं शब्दों से प्रकट होती हूँ, कभी नृत्य से तो कभी गान से। कभी मैं रंगों से सजती हूँ और कभी बदरंग में भी दिखायी देती हूँ। कभी किसी वाद्य से झंकृत होती हूँ तो कभी मौन सी पसर जाती हूँ। कभी मुखर हो जाती हूँ तो कभी अपने ही अहसासों तले दबकर रह जाती हूँ। मेरी कल्पना लोग वर्तमान में करते हैं, कभी भूत में भी कर लेते हैं और कभी भविष्य में भी मुझे पा लेते हैं। मेरे पास न जाने कितनी उपमाएं हैं! मैं रोज ही नये की ओर कदम बढ़ाती हूँ।
एक समय था कि मैं कुछ सीमित दायरे में ही दिखायी देती थी, लेकिन आज मेरा कोई भी दायरा नहीं है, मैं घर में भी हूँ, दुनिया में भी हूँ, अंतरिक्ष में भी हूँ। मेरी पहुँच हर जगह है। कहीं से भी मैं प्रकट हो जाती हूँ और कहीं से भी मैं दिख जाती हूँ, सुनी जाती हूँ। सृष्टि के सारे प्राणियों में से मनुष्य के पास ही मैं सर्वाधिक मात्रा में हूँ। जब से मनुष्य के पास मैं गयी हूँ और मनुष्य के रूप में मेरा धरती पर आविर्भाव हुआ है, मैंने मेरी 64 कलाओं को अपना माध्यम बनाना शुरू किया है। सारी कलाएं प्रत्येक व्यक्ति के पास नहीं हैं लेकिन व्यक्ति के अन्दर सुख-दुख-राग-विराग सारे ही गुण हैं, इसलिये हमें इन कलाओं की उपासना करनी पड़ती हैं कि हम अभिव्यक्ति का मार्ग तलाश लें। कई बार हम अपने राग-विराग सात तालों में बन्द कर लेते हैं, अभिव्यक्ति अपना मार्ग तलाशने लगती है लेकिन हम सारे ही मार्ग बन्द करते जाते हैं और कभी विस्फोट होकर अभिव्यक्ति खुद को प्रकट कर ही देती है।
एक कथा याद आ रही है – शंकराचार्य की कथा! शंकराचार्य बाल ब्रह्मचारी थे, उन्हें गृहस्थी का ज्ञान नहीं और ज्ञान नहीं तो अभिव्यक्ति भी नहीं! लेकिन यौन सम्बन्ध ज्ञान का विषय नहीं, यह तो शारीरिक गुण हैं, जो प्रत्येक प्राणी का आवश्यक गुण है। एक शास्त्रार्थ में उभय भारती ने प्रश्न कर लिया, पति-पत्नी के सम्बन्धों पर! बस फिर क्या था, शंकराचार्य से उत्तर देते नहीं बना। उनकी अभिव्यक्ति मौन हो गयी। शरीर के अन्दर सुगन्ध है लेकिन अभिव्यक्ति का मार्ग नहीं! क्योंकि हमने सात तालों में बन्द कर लिया है! शंकराचार्य हार की कगार पर खड़े थे लेकिन उभय भारती ने कहा कि मार्ग तलाशकर आओ। एक माह का समय मिला, शंकराचार्य ब्रह्मचारी ठहरे, मार्ग कैसे तलाशें, अनुभव कैसे लें! एक रूग्ण और मरणासन्न राजा की काया में प्रवेश किया और अभिव्यक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि अभिव्यक्ति नहीं है तो आप ज्ञान शून्य ही कहलाएंगे और अभिव्यक्ति है तो ज्ञानवान! सृष्टि में न जाने कितने प्रकार के जीव हैं, कहते हैं कि कोई एकेन्द्रीय है तो कोई दो-इन्द्रीय तो कोई तीन, कोई चार और कोई पाँच। सभी में अभिव्यक्ति की क्षमता है। मनुष्य पाँच-इन्द्रीय वाला प्राणी है तो उसके पास नाना प्रकार की अभिव्यक्ति के साधन हैं। लेकिन यदि मनुष्य भी अपनी अभिव्यक्ति ना कर सके तो उसमें और एकेन्द्रीय प्राणी में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। ऐसे प्राणी केवल भोग करते हैं, अभिव्यक्ति नहीं होते। इसलिये संसार में इन्हें भोगवादी कहा जाता है। मनुष्य चूंकि कर्म करता है, स्वयं को अभिव्यक्त करता है इसलिये वह कर्मवादी कहलाता है।
संसार के हर कण में अभिव्यक्ति है, कहीं शिल्प है, कहीं लेखन है, कहीं चित्रकारी है, कोई नृत्य का मार्ग बता रहा है तो कोई गायन का और कोई वाद्य का। प्रकृति भी अपनी अभिव्यक्ति करती है, कभी नदी बनकर बहने लगती है तो कभी झरना बनकर कलकल करती है, कभी पर्वत बनकर ऊँचाइयों को बता देती है तो कभी सागर बनकर विशालता का परिचय दे देती है। रेत में पृथकता और एकता दोनों को दर्शाती है, बादलों में अपने अन्दर जल को समेटने के गुण को बता देती है। हवा कितने प्रकार की अभिव्यक्ति को एक साथ लेकर चलती है, कभी सुकून दे जाती है तो कभी अंधड़ बनकर सब कुछ उड़ा ले जाती है। कभी बर्फ पड़ने लगती है तो कभी भीषण गर्मी मन तक को झुलसा देती है। प्रकृति अपने आप में ही कभी मोहक तो कभी दुर्दान्त सी लगती है।
सभी कुछ अभिव्यक्ति में ही निहीत है। पर्वत ने स्वयं को अभिव्यक्त कर दिया तो रत्न निकल आते हैं, सागर ने अभिव्यक्त किया तो अमृत और विष दोनों ही निकल आते हैं। नदी ने अभिव्यक्त किया तो पृथ्वी के साथ मिलकर दुनिया केो लिये धान पैदा कर देती है। मनुष्य अभिव्यक्त होने लगता है तब सारा ही ज्ञान-विज्ञान-कला प्रगट होने लगती है। कहाँ मनुष्य प्रकृति के बीच खड़ा था और कहाँ मनुष्य ज्ञान-विज्ञान-कला को अभिव्यक्त करने के बाद अपने ही बनाए स्वर्ग में खड़ा है! अब जन्नत की कल्पना की जरूरत नहीं, मनुष्य ने धरती पर ही जन्नत बना ली है, इसे चाहे जन्नत कह लो, इसे चाह स्वर्ग कह लो और इसे चाहे हैवन कह लो। बस सारा ही अभिव्यक्ति का खेल है। जितने हम अभिव्यक्त होते जाएंगे उतना ही नवीन संसार रचते जाएंगे। हमारी आँखों में उतने ही सपने बड़े होते जाएंगे, हमारी कल्पना की दुनिया विशाल होती जाएगी।
जब समुद्र-मंथन हुआ था, तब अभिव्यक्ति को ही मार्ग मिला था, मंथन में विष निकला था। हमारे अन्दर भी नकारात्मक भाव जो विष रूप में होते हैं, वे ही सबसे पहले बाहर निकलते हैं। अभिव्यक्ति का प्रकार कैसा भी हो, सबसे पहले हमारे अन्दर का विष ही निकलता है। इसलिये बिना अभिव्यक्त हुए अन्दर का विष बाहर नहीं आ पाता है। जितना भी हमारा कलुष है उसे मार्ग मिलने लगता है और फिर धीरे-धीरे निर्मल होते-होते अमृत का घड़ा निकल आता है। समुद्र मंथन में कहा गया कि मंथन करते समय समुद्र में से कामधेनु नामक गाय प्रगट हुई याने की हमारे अन्दर चाहतों का पुंज है, हम चाहते है कि जैसे ही हम इच्छा करे और बस तुरन्त हमें अपना इच्छित मिल जाए! हम सब कुछ एक ही अभिव्यक्ति से चाह लेते हैं। जैसे ही हमारी चाहतें प्रगट होने लगती हैं, हम घोड़े के समान दौड़ लगाने लगते हैं। इसलिये समुद्र-मंथन में कामधेनु के बाद घोड़ा निकला जिसका नाम था – उच्चै:श्रवा। मन की तरंग घोड़े जैसी होने लगती है और हम सात मुँह और ऊँचे कान से खुद को प्रगट करने लगते हैं। अभिव्यक्त होते समय हम ऐरावत हाथी बन जाते हैं, इसलिये समुद्र-मंथन में घोड़े के बाद हाथी का वर्णन मिलता है। समुद्र-मंथन से ही हम कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रम्भा, लक्ष्मी की कल्पना को साक्षात् करते हैं और अन्त में अमृत को पा लेते हैं। इसलिये यदि अपने अन्दर के विष को निकालकर अमृत प्रदान करना चाहते हो तो अभिव्यक्ति का मार्ग चुनो। यह मार्ग कोई भी हो सकता है, बातों से लेकर लेखन, गीत से लेकर नृत्य या फिर शिल्प से लेकर चित्रकला। ज्ञान का प्रस्फुटन हो या फिर विज्ञान का। पाक-कला से लेकर युद्ध कला तक में हम खुद को अभिव्यक्त करते हैं। जब भी हम सृजन करते हैं तब कला को माध्यम चुनते हैं और कला के माध्यम से हम खुद को अभिव्यक्त्त करते हैं। अभिव्यक्ति के बाद शरीर और मन प्रस्फुटित होता है, उसके परागकण दिग-दिगन्त में फैल जाते हैं और फिर हमारा सृजन हर ओर स्थापित हो जाता है। कभी आपने सेमल या आक को फलते देखा है? जब इसका बीज परिपक्व होकर प्रस्फुटित होता है तब लाखों तंतु हवा में बिखर जाते हैं, वे अपनी चाल पकड़ लेते हैं और उड़ान भरने लगते हैं, जहाँ भी धरती का स्पर्श होता है, वे वहीं जम जाते हैं और फिर अंकुरित होकर नवीन सृजन करते हैं। उस बीज को भी पता नहीं कि वह किस धरती पर पुन: अंकुरित होगा, उसकी उड़ान कहाँ तक होगी और वह अपना नवीन जीवन कब प्रारम्भ करेगा!
इसलिये हमेशा मन को कहते रहिए कि मैं अभिव्यक्ति हूँ, बिना अभिव्यक्ति मैं सूक्ष्म प्राणी समान हूँ। इस धरती पर ऐसे प्राणी भी हैं जो जन्म लेते हैं, जन्म लेते ही शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं, नवीन जीव को जन्म देते हैं और फिर उनका जीवन समाप्त हो जाता है। लेकिन हम मनुष्य हैं, हम में अपार ऊर्जा है, हम धरती पर परिवर्तन करने में सक्षम हैं और परिवर्तन के लिये निरन्तर अभिव्यक्ति करते रहिए। स्वयं को रिक्त करना फिर भरना ही कर्म है, जैसे कुआं खुद को जितना रिक्त करता है, उतना ही जल वापस भर लेता है। जिसके पास भी कला है, वह निरन्तर झरता रहता है, उसके अन्दर प्रवाह भरा है, वह मार्ग तलाशता है और जैसे ही उचित मार्ग मिलता है, वह निर्झरणी बन जाता है। मेरी अभिव्यक्ति का कोई ओर नहीं है और ना ही कोई छोर है, बस मैं दिग-दिगन्त तक फैली हूँ। ना मुझे पहाड़ पीछे छिपा सकते हैं और ना ही समुद्र मुझे डुबोकर समाप्त कर सकते हैं। मैं रात हो या दिन, खुले आसमान के नीचे हो या फिर बन्द कमरों में, मैं अभाव में हूँ या फिर प्रचुरता में, सभी समय अभिव्यक्त हो सकती हूँ, अभिव्यक्त होकर सृजन कर सकती हूँ और सृजन करके नवीन दुनिया स्वर्ग के रूप में विकसित कर सकती हूँ। मैं उन लोगों को भी सत्मार्ग पर ला सकती हूँ जो इस धरती पर जन्नत बनाने की जगह कल्पना लोक के जन्न्त को वरीयता देकर इस धरती कीे जन्नत को तबाह कर रहे हैं। इसलिये मैं अभिव्यक्ति हूँ, मुझे निरन्तर अपना बनाकर रखने में ही सभी का कल्याण है। अभिव्यक्ति ही व्यक्तित्व का निर्माण करती है।