तथाकथित किसान या दलाल आन्दोलन ने कई भ्रम तोड़ दिये हैं। जब भी कोई नया सम्प्रदाय अस्तित्व में आता है तब वह अपनी संख्या बढ़ाने के लिये तलवार भी उठा लेता है। विश्व में अनेक देशों का उदय तलवार के दम पर ही हुआ। लेकिन जिस सम्प्रदाय का जन्म देश और समाज बचाने के लिये हुआ वह भी अपना देश बनाने के लिये तलवार उठा लेगा ! अपने लोगों की रक्षा के लिये नहीं अपितु अपनों पर वार करने के लिये!हर परिवार से एक पुत्र दिया गया, हिन्दू समाज ने एक-एक पुत्र से सिख समाज की नींव रखी। सभी ने इन्हें अपना रक्षक मानकर सम्मान किया। सेना में भी सिख समाज को अलग से सम्मान मिलता रहा है। ओरंगजेब के काल के बाद इस समाज की रक्षक वाली भूमिका दिखायी नहीं दी फिर भी सारा देश सम्मान करता रहा। आजादी के समय लाखों की संख्या में सरदार मारे गये और लाखों की संख्या में पलायन कर गये लेकिन उन्होंने बहादुरी का परिचय नहीं दिया। पाकिस्तान निर्माण के बाद लाखों की संख्या में सिख समाज भारत के सम्पूर्ण देश में जा बसा, सभी ने उनका स्वागत किया क्योंकि वे हमारे समाज के बड़े पुत्र से बना हुआ समाज था और हमारा रक्त था। लेकिन जैसे-जैसे समृद्धि आयी ये अपने लिये अलग देश की मांग करने लगे। मांग करते-करते कब अपने पुरखों के समाज के सामने तलवार लेकर खड़े हो गये, पता ही नहीं लगा। इस दलाल आन्दोलन ने सारे भ्रम तोड़ दिये। अब किस संगठन पर विश्वास किया जाए! कौन सा रक्षक समाज हमारे सामने तलवार लेकर खड़ा हो जाएगा यह यक्ष प्रश्न बन गया है। हम एक रक्त का नारा लगाते रहते हैं लेकिन कौन सा रक्त हमें अपना समझता है? हाँ यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर हमारा ही रक्त बहता है लेकिन वे हमारे रक्त के प्यासे कैसे हो जाते हैं? आज समाज को और हमें इस मानसिकता को समझने की जरूरत है। कल किस समाज के हाथ में तलवार होगी, इसका भी आकलन करते रहना चाहिये। पृथकता का जैसे ही अंकुर फूटे, समाज को सावधान होने की ज़रूरत है। पता नहीं यह पृथकतावाद कहाँ जाकर रुकेगा?
राजतंत्र की भेड़ें
जी हाँ हम राजतंत्र की भेड़े हैं, गडरियाँ हमें अपनी मर्जी से हांकता है। विगत 6 सालों से देश में लोकतंत्र को स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन हर बार राजतंत्र किसी ना किसी रूप में हम भेड़ों को घेरकर अपनी ओर ले जाता है। सदियों से हम राजतंत्र के अधीन रहे हैं याने राज वंश के अधीन। स्वतंत्रता के बाद हमें लोकतंत्र मिला लेकिन वह भी शीघ्र ही राजतंत्र में परिवर्तित हो गया। हम कभी लोकतंत्र के झूले पर झूलते हैं तो कभी राजतंत्र का झूला हमें अपने पलड़े में बैठा लेता है। चूंकि सामान्य व्यक्ति भेड़ों के समान होता है और वह हर पल किसी नेतृत्व का मुँह देखता है। हमारी बुद्धि जितनी भेड़ों के समकक्ष होगी उतनी ही नकारात्मक होती जाती है। हम विकास के स्थान पर विनाश को पसन्द करने लगते हैं। हमें प्रत्येक नकारात्मक संदेश अपने दिल के नजदीक लगता है और हम जिस ईष्ट को पूजते हैं, एक नकारात्मक संदेश से उसी पर वार कर बैठते हैं और दूसरे ईष्ट को अपना लेते हैं।सोशल मीडिया ने इन भेड़ों को भी उजागर कर दिया है। ये भेड़ें केवल पिछलग्गू हैं, जैसा किसी ने कह दिया बस उसे ही मान लिया। हमारे देश में इतनी जाति के लोग रहते हैं और प्रत्येक प्रांत में सभी जाति और सम्प्रदाय के लोग हैं। लेकिन कुछ मुठ्ठी भर लोगों के मन में राजा बनने का ख्वाब जागा और उन्होंने अपनी भेड़ें एकत्र करना शुरू किया। अपने खेत में थोड़ा चारा डाला और अपने पाले में बैठा लिया। बस उपद्रव शुरू। सभी को राजा बनना है, और राजा बनने के लिये कटना भेड़ों को ही है! यह भी तय है कि कोई भेड़ राजा नहीं बन सकती लेकिन वे तो भेड़ें हैं और भेड़े तो पिछलग्गू ही होती हैं!राजा को पता है कि मेरी भेड़े पूरी दुनिया में फैली हैं, एक कुएं में नहीं समा सकती लेकिन फिर भी जिद है कि मुझे मेरी भेड़ों के लिये अलग देश चाहिये। यहीं से लोकतंत्र पर आक्रमण शुरू होता है। हम सोचते हैं कि चारों ओर बस हमारे ही लोग होंगे, अपने ही अपने लोग तो कोई दुख नहीं होगा! लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि हम परिवार में भी एकजुट नहीं रह पाते, भाई-भाई ही सबसे बड़े दुश्मन होते हैं तो एक देश में कैसे खुश हो जाएंगे?एक परिवार को हम बचा नहीं पाते हैं और एक देश की मांग कर बैठते हैं! पाकिस्तान इसी मांग पर बना था, आज वहाँ के क्या हाल हैं? लेकिन जिसमें भी गड़रिये के गुण हैं वे भेड़ों को हांकने लगता है और लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने लगता है। प्रजा कहती है कि हमें तो बस राजकुमार ही चाहिये फिर वह कितना ही अबोध क्यों ना हो! देश में कितने राजकुमार पैदा हो चुके हैं, उनकी नेतृत्व क्षमता भी दुनिया देख रही है लेकिन फिर भी भेड़े कह रही हैं कि नहीं हमें हमारा राजकुमार ही चाहिये। इसलिये मुझे लगने लगा है कि लोकतंत्र की उम्र अधिक नहीं है। किसी ना किसी प्रकार का राजतंत्र स्थापित होकर ही रहेगा क्योंकि हम अधिकांश भेड़ें हैं और हमें एक गड़रिये की ही जरूरत हर वक्त रहती है। हम भेड़े बस यूँ ही कटती रहेंगी और गड़रियां हमें ऐसे ही उकसाता रहेगा। जैसे पहले देश में 565 राजवंश थे, कमोबेश उतने राजा तो भेड़ों को एकत्र करने में आज भी जुटे हैं। शायद यह अच्छा भी हो, क्योंकि हमें तब भेड़ बनकर केवल मिमियाना ही है। देखते हैं कि लोकतंत्र के पर्व से शुरू हुआ ताण्डव लोकतंत्र को कब तक समाप्त कर पाता है! पुराना युग कब लौटकर वापस आएगा जब हम पुन: राज दरबार में हाथ जोड़े खडे रहेंगे! माई बाप जो कुछ हैं बस आप हैं हम तो आपके खेत में बैठकर मींगनी कर देंगी जिससे आपको भरपूर खाद मिल सकेंगा और आप को भरपूर ऊन और मांस दे देंगी। बस राजा शान से रहना चाहिये हमारा क्या है, हम तो कैसे भी जी लेंगे! गड़रियों को भेड़े चाहिये और भेड़ों को गड़रियां, बस इसे ही राजतंत्र कहते हैं, लोकतंत्र तो सभी को बराबर अधिकार देता है, ऐसे में कुछ भी सम्भव नहीं है।
हमने देखा नाग-लोक
माया-सभ्यता, नाग-लोक जैसे नाम हम बचपन से ही सुनते आए हैं। तिलस्मी दुनिया का तिलस्म हमारे सर चढ़कर बोलता रहा है। चन्द्र कान्ता संतति सका सबस् बड़ा उदाहरण है। लेकिन कल माया-सभ्यता और नाग-लोक को देखकर आँखें विस्फारित होकर रह गयी! माया-सभ्यता और नाग-लोक मिला भी तो कहाँ – अमेरिका में! डिस्कवरी चैनल पर ग्वाटेमाला के घने जंगलों में एक पुरातत्व वैज्ञानिक खोज में लगा है, वह हजारों की संख्या में बने पिरामिड़ों का अध्ययन कर रहा है, उसे खोज हैं नाग-राजा के पिरामिड़ की। क्योंकि राजा के पिरामिड़ में ही अकूत खजाना होने का अनुमान है। बीसियों साल हो गये, खोज निरन्तर जारी है, न जाने कितने पिरामिड़ खोज लिये गये हैं लेकिन अभी राजा का पिरामिड़ खोजना शेष है।
एंकर बता रहा है कि यह दुनिया का विशालतम साम्राज्य था, शायद ईसा से 300-400 वर्ष पूर्व। इन जंगलों में हजारों की संख्या में पिरामिड़ हैं। घने वृक्षों के बीच जहाँ भी कोई टीले जैसी ऊँची पहाड़ी दिखती है, वहाँ पिरामिड़ होता है। इतना बड़ा सम्राज्य आखिर नष्ट कैसे हो गया? कहते हैं कि सभ्यता के विकास में वृक्षों के संरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया और धीरे-धीरे जंगल कटते चले गये और एक दिन सारा साम्राज्य भरभरा के जमीदोंज होकर समाप्त हो गया! इसे नाम दिया गया माया सभ्यता।
हमारे यहाँ भी माया सभ्यता और नाग-लोक की चर्चा है, महाभारत में तो पूरा कथानक है। शायद भारत की सभ्यता भी यहाँ से जुड़ी हो! पिरामिड़ों में घूमते हुए पुरातत्व का दल भोजन के लिये आ गया है। भोजन सजा हुआ है, एक बर्तन में राजमा है, दूसरे में चावल, एक दो व्यंजन और है लेकिन इनके साथ हैं मक्की की रोटियाँ। बस वे इसे टोटिया कहते हैं। पूरी तरह से भारतीय थाली। नाग-राजा और रानी की कल्पना भी हमारे पुराणों जैसी ही है। पत्थर पर भी कुछ चित्र नुमा संकेत उभारे गये हैं।
बड़े-बड़े पिरामिड़ आकर्षित करते हैं, वहाँ के पत्थर को जाँचा-परखा जा रहा है। एक विशाल पत्थर पर चित्र मिल जाते हैं, वे बताते हैं कि ये संकेत हैं कि यहाँ नाग-राजा का पिरामिड़ हो सकता है। एक पिरामिड को बिना हानि पहुँचाए, ड्रिल मशीन से छेद किया जाता है और उस छेद में केमरे से देखा जाता है। वहाँ कमरे जैसा स्थान होने का अंदेशा होता है। यहाँ खोज जारी रहेगी।
इतने घने जंगलों में, जहाँ मौसम भी पल-पल बदलता है, वहाँ पहुँचना भी चुनौति है। हेलिकोप्टर के सहारे, टीम एक टीले पर पहुँचती है, अभी जाँच-पड़ताल चल ही रही है कि मौसम बिगड़ने लगता है। तूफान का संकेल मिलने लगता है और वे झटपट दौड़ पड़ते हैं, हेलिकोप्टर की तरफ! खोज का काम धीरे-धीरे ही हो पाता है। पिछले दो हजार साल से अनखोजी जगह को खोजने में अभी समय लगेगा। न जाने इस माया-सभ्यता के कितने पहलू निकलकर बाहर आएं!
रोमांचकारी अनुभव था, इस डोक्यूमेंट्री को देखना। मनुष्य निरन्तर अतीत को खोज रहा है, स्वयं को खोज रहा है! पता तो लगे कि हम आज जिस सभ्यता के दौर में जी रहे हैं, कल की सभ्यता क्या थी? आज जिस विज्ञान को लेकर हम फूलें नहीं समा रहे, उस युग में कौन सा ज्ञान था? अभी बहुत कुछ खोजना शेष है। ईसा से पूर्व की दुनिया को खोजना शेष है! हमारे यहाँ तो महाभारत और रामायण के माध्यम से उन्नत सभ्यता के दर्शन होते हैं लेकिन क्या शेष विश्व में भी इतनी उन्नत सभ्यताएं थी? मीलों तक फैले इस विशाल साम्राज्य में कितना कुछ छिपा है अभी शेष है। कहानी बहुत बड़ी होगी शायद महाकाव्य जैसी! मनुष्य के परिश्रम की कहानी, मनुष्य के ज्ञान की कहानी और मनुष्य के विनाश की कहानी!
एक पक्षी की कुटिया
अपने आसपास से इतर आखिर दुनिया क्या है? हमारी सोच से परे आखिर दुनिया की सोच क्या है? दुनिया देखने के लिये झोला लेकर, दुनिया की सैर तो नहीं की जा सकती है बस टीवी ही हमें दुनिया दिखा देती है। मनुष्यों की दुनिया कमोबेश एक जैसी है, वही सत्ता का संघर्ष, वही अहंकार का वजूद! दुनिया के हर कोने के मनुष्य का यही फलसफा है, बस अधिकार और अधिकार।
डिस्कवरी से प्रकृति को देखने की चाहत बहुत कुछ दिखा देती है, तब लगता है कि मनुष्य को अभी बहुत कुछ सीखना है। प्रकृति में सामंजस्य है लेकिन जागरूकता भी है। अपने परिवार की रक्षा कैसे करनी है, वे जानते हैं। प्रणय से लेकर नयी पीढ़ी के पंख आने तक कैसी साधना करनी है, वे जानते हैं। उनकी साधना का प्रकार बदलता नहीं है, छोटे से जीवन में भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही साधना चली आ रही है, कुछ बदलता नहीं।
एक सुन्दर सा पक्षी, कबूतर से कुछ बड़ा, घने जंगल में फूल एकत्र कर रहा है। सुन्दर बीजों का ढेर सजा दिया है। तिनकों से झोपड़ी बना ली है। लग रहा है कि जंगल में किसी तपस्वी कन्या ने घर सजाया है। जब सब कुछ सज गया है, तब प्रणय निवेदन के लिये पुकार के स्वर गूंज जाते हैं। साथी पक्षी आता है, प्रणय निवेदन स्वीकार करता है और कुटिया में परिवार का डेरा सज जाता है। इतना सुन्दर दृश्य, मन कहीं खो सा गया, एक पक्षी का सौन्दर्य बोध सीधे दिल में उतर गया। अभी तक बया-पक्षी के घौंसले को ही उत्सुकता से देखा है लेकिन इस पक्षी की कुटिया को देखकर मन रीझ सा गया!
इतनी सुन्दर कुटिया तो बचपन में भी नहीं बना पाए थे! बरसात की भीगी मिट्टी, पैरों के ऊपर मिट्टी की तह जमा देना और फिर आहिस्ता से पैर को बाहर निकाल लेना! फिर फूल चुनकर लाना, उस घरोंदे को सजाना, एक खूबसूरत अहसास था। लेकिन इस पक्षी की खूबसूरती किसी भी पैमाने से नापी नहीं जा सकती थी! बेहद खूबसूरत।
पहाड़ की ऊँची सतह, जहाँ मिट्टी की पर्त थी, वहीं कोटरों में घौंसले बने थे। बाज पक्षी के छोटे-छोटे बच्चे वहाँ रह रहे थे। बाज पक्षी अपनी यात्रा पर है, शायद भोजन की तलाश में गया है। लेकिन उसकी दृष्टि में उसका परिवार है। वह देखता है कि एक विशालकाय अजगर पहाड़ की ऊँचाई पर चढ़ रहा है. तेजी से आगे बढ़ रहा है। बाज पक्षी ने उड़ान भर ली है। अभी अजगर कोटर तक नहीं पहुँच पाया है और बाज उस पर प्रहार कर देता है एक ही झटके में अजगर, हवा में तैरता हुआ पहाड़ से गिरने लगता है। बाज पक्षी को अभी भी विश्वास नहीं, वह पीछा करता है। बीच पहाड़ में जहाँ अजगर को जमीन मिलने के आसार दिखते हैं, वह वहाँ से भी उसे धकेलता है। तब कहीं जाकर निश्चिन्त होता है।
अपने परिवार को अपनी नजर में रखना, प्रकृति सिखाती है। लेकिन मनुष्य भूल गया है। परिवार को छोड़ देता है, समाज को छोड़ देता है और देश को भी छोड़ देता है। बस अकेला ही दुनिया को जीतने निकल पड़ता है! कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति को जीतने निकला है लेकिन लगता ऐसा है कि वह प्रकृति को जान भी नहीं पाया है! प्रत्येक जीव अपनी परम्परा से बंधा है, जो उसके पूर्वज करते रहे हैं, बस वह भी वही कर रहा है। उसके गुण-सूत्रों में ही समाहित हो गये हैं, उसी से उसकी पहचान है। लेकिन मनुष्य बस परिवर्तन दर परिवर्तन कर रहा है, उसकी पहचान क्या है? कहीं खो सी गयी है। क्या मनुष्य रक्षक है या भक्षक? वह अपने युगल के साथ भी ढंग से व्यवहार नहीं कर पा रहा है। जब युगल से ही व्यवहार का पता नहीं है तब अन्य प्रणियों के साथ सामंजस्य कैसे रख सकेगा?
लगता है मनुष्य को प्रकृति से बहुत कुछ सीखना है, सामंजस्य बनाकर चलना है। जो उसके मूल गुण-सूत्र हैं, उन्हीं पर कायम रहना है। अपने सौन्दर्य बोध को जिंदा रखना है। बहुत उन्नति कर ली है मनुष्य ने लेकिन फिर भी इन छोटे से प्राणियों से हार जाता है। उस छोटे से पक्षी जैसा सौन्दर्य बोध शायद मनुष्य ने खो दिया है। वह प्रणय निवेदन करना भी भूल गया है। अपने अधिकार को जगा लिया है, सब कुछ छीनकर प्राप्त करना चाहता है। शायद प्रकृति का सौन्दर्य बोध उससे दूर होता जा रहा है! सब कुछ कृत्रिम सा है! प्रकृतिस्थ कुछ भी नहीं! काश हम प्रकृति के साथ चले होते, जैसे हमारे ऋषि-मुनियों की दुनिया थी! किसी पड़ाव पर तो शान्ति मिलती! जीवन के अन्तिम पड़ाव पर खोज रहे हैं कि कहाँ बसेरा हो? लेकिन कृत्रिम दुनिया के मकड़जाल में ऐसे फंसकर रह गये हैं कि कहीं मार्ग दिखता नहीं। फूलों को एकत्र करने की चाहत भी जैसे इस कृत्रिमता के नीचे दब गयी है। काश हम भी उसी पक्षी की तरह बन पाते, जो अपनी चोंच के सहारे ही इतना सुन्दर घर बना लेती है!
खिलौनों का संसार
अमेरिका में हम एक परिवार से मिलने गये, कुछ देर में ही बात चल पड़ी खिलौनों पर! वे आपस में पूछ रहे थे कि तुम्हारे बच्चे के पास कौन सा खिलौना है? अभी नया खिलौना जो बाजार में आया है, वह खरीदा है या नहीं! मैं आश्चर्यचकित थी कि खिलौने भी आपके रहन-सहन की सीमा तैयार करते हैं क्या! बच्चे भी खिलौनों की जरूरत समझने लगे, यदि उसके पास है तो मेरे पास भी होना ही चाहिये। दुनिया में जो है या था, उसे खूबसूरत खिलौने में ढाल दिया गया था। डिज्नीलैण्ड तो खिलौनों की दुनिया ही है। अमेरिका, यूरोप आदि विकसित देशों में सारी दुनिया को खिलौनों के रूप में बच्चे के सामने ला दिया। अब बच्चा सोते-जागते उसी दुनिया में जीने लगा। टॉय स्टोरी प्रमुख हो गयी और वास्तविक कहानी पीछे धकेल दी गयी। खिलौना उद्धोग बढ़ता गया और बच्चा सिमटता गया। उसकी दुनिया केवल मात्र खिलौने हो गये।
मोदीजी ने मन की बात कही। खिलौनों पर बात रखी। खिलौने हमारे बचपन को कैसे सृजनात्मक बनाते रहे हैं, यह हम सब जानते हैं। हमने खिलौने से लेकर ट्रांजिस्टर, पंखे आदि सभी खोलकर देखे हैं कि यह कैसे चलते हैं और इन्हें कभी वापस जोड़ लिया जाता था और कभी जोड़ नहीं पाते थे। बस वहीं से सृजन की शुरुआत हुई थी। अब थीम पर आधारित खिलौने बनने लगे हैं, जिससे बच्चे बहुत कुछ सीख जाते हैं। लेकिन थीम कुछ ही विषय पर बनती हैं। भारत में कहानी की भरमार है, हर प्रदेश के अपने नृत्य हैं, वेशभूषा है, मन्दिर हैं। यदि हम नृत्य शैली और उनकी वेशभूषा को आधार बनाकर एक थीम बनाएं तो कितनी सुन्दर खिलौनों की दुनिया होगी! प्रदेश के मन्दिरों की थीम बनाकर खिलौने बनाएं तो कितनी सुन्दर होगी! हमारे पौराणिक कथानकों पर कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! दुनिया में लोगों के पास कितनी कहानियां हैं? भारत के पास अनगिनत कहानियां हैं।
भारत में ऐसी संस्कृति है जो जीवन के प्रत्येक पहलू को दिखाती है, गृहस्थी-परिवार से लेकर देश तक के दर्शन कराती है। हमारे यहाँ खिलौना का संसार बस सकता है। न जाने कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! हमारे यहाँ कठपुतली के रूप में कुछ प्रयोग हुए हैं, ऐसे ही प्रयोग खिलौनों में होने चाहियें। न जाने कितने कलाकरों को नवीन सृजन का अवसर मिलेगा! बस आवश्यकता है, खिलौना व्यवसाय को नया रूप देने की। जब देश का प्रधानमंत्री लोगों का आह्वान करता है तब लोग इस उद्धोग में रुचि लेंगे ही। बस आवश्यकता है भारतीय दृष्टिकोण की। एक बार कलाकार को समझ आ जाए कि कैसे भारत की कला का दुनिया को परिचय कराया जा सकता है, बस तभी बात बनेगी।