अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

कविता – बचपन के पन्ने मेरे हाथों में

Written By: AjitGupta - Sep• 17•13

इक बंद पिटारी खोली तो

कुछ गर्द उड़ी कुछ सीलन थी

कुछ पन्ने उड़कर हाथ आ गए

इक बूंद आँख से तभी गिरी

बूंदों के अन्दर तैर गई

मेरे अतीत की सारी रेखाएं।

गर्द हटी तो काले अक्षर थे

दिल को छू छूकर मुझमें समा गए।

 

पन्नों को हाथों में थामा तो

सहलाने पर शब्दों ने हरकत की

जो पन्ना मेरे हाथ आ गया

वह तो बेहद कोरा था

कहीं कहीं पर अक्षर थे

कहीं कहीं पर केवल स्याही थी

उस पन्ने में मैं ढूंढ रही

मेरे बचपन की परछाई।

 

बचपन बाहों का झूला है

बचपन माँ का पावन आंचल है

बचपन एक खेल खिलौनों का

बचपन तो सुंदर सपना है

पर इससे आगे भी बचपन है

मैंने कितना पाया

कितना हाथों से रपट गया

इन पन्नों में मैं ढूंढ रही

उस बीते कल की किलकारी।

 

क्या मेरा बचपन बाहों का नरम बिछौना था

या संघर्षों का ताना बाना था

कुछ शब्द तभी तो दिखे उधर

ये तो मेरे जीवन के आधार बने

‘जन्ती में तार निकलता है

तब ही वह मजबूती पाता है”

अक्सर ये शब्द सुनाई देते थे

बचपन को बाहों का झूला बोलूं

या फिर जन्ती का कोई पुर्जा

अक्षर अक्षर में सिमटा है

मेरे अतीत का वह मजबूत किला

कल तक बाहों का झूला आकर्षण था

पर आज बदलते इस युग में

याद आ रहे तात और

तात का वह मजबूत किला।

 

 

कहीं सरसराहट तभी हुई

मानो जैसे कोई आंचल सरका

माँ का प्रतिबिम्ब निखर आया

उसके आंचल का कैसे आभार करूं

लाड़ नहीं, कोई भावों का अतिरेक नहीं

बस था तो केवल गौरव था

ना चिंता थी ना उम्मीदें

बस थी तो निश्चिंता थी

मेरे सुख की मेरे जग की।

आज पलट कर देखूं तो

इतना देने पर भी संदेह बना

क्या सुख पाएंगे या वैसे ही रह जाएंगे

अपने बच्चे या जग के बच्चे

आज उन शब्दों को मैं ढूंढ रही

इन अतीत के पन्नों में

जो दे दे हर मां को

और पा लें जीवन का मूल मंत्र

माँ तो बस आंचल है

आगे तो हमको ही बढ़ना है।

 

 

इन पन्नों के सादे से शब्दों में

अक्षर तो थोड़े थे पर संदेशा ज्यादा था

इन बीते शब्दों को आंसू से धोऊं

या फिर माथे पर रखकर अपने अंदर पी जाऊं

उस सख्त धरातल को महसूस करूं

या मजबूत नींव को याद करूं?

अक्षर तो ना जाने क्या क्या कहते हैं

कोरे कागज भी अपनी मांगे रखते हैं

जो हमको शायद नहीं मिला

अब हमको देने को कहते हैं।

 

 

कुछ चहका,  कहीं पर रुनझुन थी

क्या होगा?

देखा ये तो यौवन था!

तुम तो तब भी नहीं गूंजे

फिर आज भला क्या बात हुई?

लेकिन पन्नों के अक्षर यूं बोले

मैं तब शान्त रहा ना मदहोश हुआ

ना गीत रचा ना ख्वाब सजे

आंखों ने सच को देखा था।

गीतों का क्या है इनको तो अब रच लो

जब प्यार समेटा अपने में

ना व्यर्थ गवायां सपनों में

आज निकल कर गूंज रहा

मेरे अंदर से मेरे अपनों में

आज बांट दो इस नेह को

जो भी आए इस जीवन में।

 

बचपन के पन्ने मेरे हाथों में

सरसर करते रहते हैं

कभी अतीत बन जाते हैं

कभी वापस अपने बन जाते हैं

कैसे भूलूं उस गाथा को

जिसमें निर्माणों का जज्बा था।

मैं उस बालू को मुट्ठी में थामे हूँ

जिसके हर कण ने मेरा मार्ग चुना

मेरा अतीत भी इस जैसे ही

ना मुझसे चिपका ना गर्द बना।

इस बंद पिटारी की पूंजी

मुझको शक्ति देती है

बस आज सम्भाले बैठी हूँ

इन पन्नों को, अपने अपनों को।

 

 

जब भी मैं अपने अंदर झांकूंगी

कुछ ना कुछ तो पा ही लूंगी

किस की अंगुली ने मुझको थामा था

किससे जीवन का पाठ पढ़ा

किसने सौंपा किसने छीना

जीवन का यह आधार नहीं

मैंने कितना पाया, कितना सीखा

कितना अपने अंदर जज्ब किया

आज पिटारी खोली तो

बस ये ही देखूंगी

इसको ही अपने अंदर रख लूंगी

इन काले अक्षर,  धुंधली स्याही

में अपना अतीत फिर पा लूंगी।

 

( आप सभी के आग्रह पर यह लम्‍बी कविता यहाँ प्रस्‍तुत है, झेल सकें तो झेल लें)

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17 Comments

  1. मन के कितने की भाव समेटे पन्ने …..सुंदर कविता

  2. झेल ली और बखूबी झेली ….. अतीत के पन्नों से होते हुये आज तक का संघर्ष…..माता-पिता की यादों के साथ खुद को मजबूत करते पल । सुंदर अभिव्यक्ति

  3. AjitGupta says:

    आभार संगीता जी ।

  4. dnaswa says:

    बचपन बाहों का झूला है
    बचपन माँ का पावन आंचल है
    बचपन एक खेल खिलौनों का
    बचपन तो सुंदर सपना है…

    लंबी पर मानवीय संवेदनाओं से सरोबित रचना … हर छंद मन को छूता है … कितना पीछे ले जाता है … यादों के झंझावात से खेलती हुई सारगर्भित रचना …

  5. इस बंद पिटारी की पूंजी

    मुझको शक्ति देती है

    बस आज सम्भाले बैठी हूँ

    इन पन्नों को, अपने अपनों को।” बढ़िया पंक्तियाँ
    गहन भाव लिए रचना |
    आशा

  6. AjitGupta says:

    आशाजी मेरे ब्‍लाग पर आपका स्‍वागत है।

  7. अतीत की यादें सजीव हो उठी हैं, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

  8. किसने सौंपा किसने छीना

    जीवन का यह आधार नहीं

    मैंने कितना पाया, कितना सीखा

    कितना अपने अंदर जज्ब किया
    ….कितना सटीक…एक एक पन्ना अतीत की यादों को सजीव कर गया…बहुत सुन्दर…

  9. बहुत सुंदर! इस हृदयस्पर्शी रचना को यहाँ साझा करने के लिए आपका आभार!

  10. बचपन सबका, रह रह उमड़े।

  11. अक्षर अक्षर में सिमटा है मेरे बचपन का मजबूत किला।
    लंबी पर सुंदर।

  12. Kajal Kumar says:

    अतीत को पाना भी कम बात नहीं.

  13. anju(anu) says:

    जीवन गाथा को शब्दों में बांधना सबसे कठिन है …पर आपने वो कर दिखाया है

  14. डॉक्टर दी,
    बहुत ही सुन्दर कविता है.. झेलने का तो प्रशन ही नहीं उठाता… यह तो एक यात्रा की तरह है और यात्राएं छोटी होती ही नहीं… हाँ, एक बात कहना चाहूँगा कि इस कविता को दुबारा लिखने की ज़रूरत है.. सम्पूर्ण लयात्मकता में…!!

  15. AjitGupta says:

    सलिल जी, आपका कहना सही है, मैं प्रयास करूंगी। अभी कुछ दिन पुणे में हूं इसलिए ब्‍लाग से दूर हूं।

  16. rashmi prabha says:

    आपने ज़िक्र किया तो बचपन की पिटारी मुझे मिल गई,होठों पर मुस्कान तैर गई – भावनाओं की मित्रता बड़ी निश्छल, एक सी होती है – अंदाज जो भी हो

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