नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द का निर्माण : भारत का स्वाभिमान जागरण
स्वामी विवेकानन्द का यह 150वां जन्मशताब्दी वर्ष है। यदि नरेन्द्र से विवेकानन्द बनने की यात्रा पूर्ण नहीं होती तो आज भारत अपना स्वाभिमान खोकर यूरोप का एक उपनिवेश के रूप में स्थापित हो जाता। भारत का हिन्दुत्व कहीं विलीन हो जाता और ईसाइयत महिमा मण्डित हो जाती। त्यागवादी एवं परिवारवादी भारतीय संस्कृति का स्थान भोगवादी एवं व्यक्तिवादी पाश्चात्य संस्कृति ने ले लिया होता। इसलिए आज स्वामी विवेकानन्द के महान त्याग को स्मरण करने का दिन है। जिस प्रकार एक सैनिक सीमाओं पर रात-दिन हमारी रक्षा के लिए अपनी युवावस्था को कुर्बान कर देता है उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने अपना जीवन भारत की संस्कृति को बचाने में कुर्बान कर दिया था। उनकी जीवन यात्रा को समझने के लिए श्री नरेन्द्र कोहली का उपन्यास “तोड़ो कारा तोड़ो” श्रेष्ठ साधन है। उसी के आधार पर नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द के जीवन निर्माण की यात्रा का संक्षिप्तिकरण प्रस्तुत है।
* स्वामी विवेकानन्द का जन्म मकर संक्रान्ति के दिन 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में तब हुआ जब भारत में अंग्रेजों का आधिपत्य हो चुका था। मुगल सल्तनत का अन्त हो गया था और ईसाइयत अपने पैर पसार रही थी। सामाजिक सुधारों के नाम पर केवल हिन्दु धर्म को ही रूढीवादिता से सम्बोधित किया जा रहा था। ऐसे में स्वयं को हिन्दु कहना भी शर्म की बात होने लगी थी।
* इस काल में स्वामी रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के काली मन्दिर में पुजारी के रूप में प्रतिष्ठित थे और उनकी ख्याति आध्यात्मिक संत के रूप में होने लगी थी। उनके सम्पर्क में आने के बाद अनेक युवाओं का आध्यात्म की ओर रुझान बढ़ने लगा था। वैसे भी भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान संस्कृति रही है इसलिए यहाँ ईश्वर प्राप्ति प्रमुख उद्देश्य रहा है।
* अत: जिस काल में ईसायइत के कारण धर्म पर समाज का ध्यान आकृष्ट किया जा रहा हो, उस काल में हिन्दुत्व को समझने की ललक भी युवाओं के मन में जागृत होने लगी थी। स्वामी विवेकानन्द के परिवार का भी धार्मिक वातावरण था और उनके दादा ने संन्यास ग्रहण किया था। उनके पिता सफल एडवोकेट थे लेकिन साथ ही धार्मिक पुरुष भी थे। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे और ईसाइयत को समझने के लिए अपने साथ हमेशा बाइबिल रखते थे।
विवेकानन्द पर पारिवारिक, समाजिक एवं राष्ट्रीय परिवेश का प्रभाव पड़ा। उनकी रुचि ज्ञान प्राप्ति एवं ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करने की ओर अग्रसर होने लगी। वे अधिक से अधिक पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। उनकी स्मरण शक्ति इतनी प्रबल थी कि एक बार किसी भी पुस्तक को पढ़ लेने पर वह पुस्तक उन्हें कंठस्थ हो जाती थी। उस काल में संगीत साधना भी सामाजिक जीवन का प्रमुख आयाम था। उनकी माँ का आग्रह था कि नरेन्द्र ( संन्यासी जीवन के पूर्व परिवार प्रदत्त नाम) संगीत की शिक्षा ले, लेकिन केवल ईश्वर के लिए ही इस संगीत का उपयोग करे। नरेन्द्र ने संगीत की साधना की और उन्होंने संगीत में महारथ प्राप्त की। उनके भजन के बिना कोई भी संगीत संध्या अधूरी लगती थी।
भजनों के माध्यम से उनका ईश्वर के प्रति लगाव और बढ़ गया। वे ईश्वर से साक्षात्कार करना चाहते थे। वे इस सत्य को अपनी आँखों से अनुभूत करना चाहते थे कि वास्तव में ईश्वर का अस्तित्व है? वे ब्रह्म-समाज के सम्पर्क में भी आए और निराकार ब्रह्म की उपासना में विश्वास करने लगे। वे शिक्षा को अर्थोपार्जन का साधन नहीं मानते थे, केवल उनका ध्यान ज्ञान प्राप्ति की ओर था। उनके मन में बाल्यकाल से ही संन्यास के प्रति रुझान था इसलिए वे ध्यान- साधना में लीन रहने लगे थे। उन दिनों प्रत्येक हिन्दु परिवार में रामायण, महाभारत के साथ ही सभी पौराणिक ग्रंथों का पठन और उनमें लिखित कहानियों को बच्चों को सुनाने की परिपाटी थी। इसलिए नरेन्द्र उन कहानियों को अपने घर पर ही बच्चों की सहायता से नाटक का रूप देते थे। संगीत में रुचि होने के कारण वे ब्रह्म समाज के कार्यक्रमों में किशोर अवस्था से ही अक्सर भजन गाते थे।
ऐसे ही एक भजन संध्या में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र का भजन सुना और उन्होंने उसी क्षण उनकी दिव्य आत्मा के दर्शन कर लिए। उनका नरेन्द्र को बारबार आग्रह रहा कि वे दक्षिणेश्वर आएं। लेकिन नरेन्द्र उन्हें बिना परखे ही उनके पास नहीं जाना चाहते थे। वे रामकृष्ण के बुलावे पर आखिर दक्षिणेश्वर स्थित काली मन्दिर गए। नरेन्द्र परमहंस के सामने बैठे थे, परमहंस ने उन्हें अपने नजदीक बुलाया और अपना एक पैर उनके वक्षस्थल पर रख दिया। नरेन्द्र के शरीर में विद्युत दौड़ गयी, लगा जैसे सारा ब्रह्माण्ड डोल गया हो और वे घबराकर बोले की यह क्या कर रहे हैं आप? हटाइए इस पैर को। नरेन्द्र कई दिनों तक काली मन्दिर नहीं गए। लेकिन परमहंस को नरेन्द्र के अन्दर अपने प्रभु के दर्शन होते थे तो वे उनके बिना तड़पने लगते थे और उन्हें बुलावा भेजते रहते थे। नरेन्द्र वहाँ आते रहे और घण्टों तक परमहंस को भजन सुनाते रहे लेकिन ना कभी परमहंस ने उन्हें काली माँ के समक्ष नतमस्तक होने को कहा और ना ही नरेन्द्र कभी मन्दिर में गए। परमहंस कहते थे कि कोई निराकार को पूजता है और काई साकार को। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। आखिर एक दिन नरेन्द्र ने उनसे प्रश्न किया कि क्या आपने साक्षात ईश्वर के दर्शन किए हैं? परमहंस का उत्तर था – हाँ साक्षात दर्शन किये हैं। तब नरेन्द्र ने फिर प्रश्न किया कि क्या आप मुझे भी ईश्वर का साक्षात्कार करा सकते हैं? तब परमहंस ने कहा कि करा सकता हूँ।
बाल्यकाल में नरेन्द्र को उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त विद्यालय में प्रवेश कराते हैं। नरेन्द्र विद्यालय जाते हैं लेकिन वहाँ से वापस लौटकर अपने चचेरे भाई को बोलते हैं- “अबे साले क्या कर रहा है?” उनका चचेरा भाई “हरि” ये शब्द सुनकर सन्न रह जाता है और रुआंसा होकर वहाँ से चला जाता है कि आज नरेन्द्र मुझे किस भाषा में बात कर रहा है? वह नरेन्द्र की माँ भुवनेश्वरी देवी से नरेन्द्र की शिकायत करता है कि आज नरेन्द्र ने मुझसे अपशब्दों का प्रयोग किया। भुवनेश्वरी देवी चिन्ता में पड़ जाती हैं कि ऐसे शब्दों का प्रयोग नरेन्द्र ने क्योंकर किया? वे अपने पति विश्वनाथ दत्त को बताती है और विश्वनाथ नरेन्द्र से पूछते हैं कि उन्होंने इन शब्दों को कहाँ से सीखा? नरेन्द्र बताते हैं कि विद्यालय में सभी लड़के ऐसा ही बोलते हैं। उन्होंने कहा कि तुमने गुरुजी को क्यों नहीं बताया, तब नरेन्द्र ने कहा कि गुरुजी भी ऐसे ही बोलते हैं। विश्वनाथ जी ने तत्क्षण निर्णय किया कि नरेन्द्र विद्यालय नहीं जाएगा और घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त करेगा। घर के सभी बच्चों के लिए अब घर ही विद्यालय हो गया था।
दो-तीन वर्ष बाद नरेन्द्र को ईश्वर चन्द विद्यासागर के विद्यालय में प्रवेश कराया गया। वे इतने मेधावी थे कि उन्होंने पूर्व की शिक्षा को बहुत ही आसानी से इस वर्ष पूर्ण कर लिया। उनका चयन अंग्रेजी शिक्षा के लिए हुआ लेकिन नरेन्द्र ने विरोध कर दिया। वे बोले कि मुझे अपने देश की भाषा हिन्दी और बांग्ला में ही शिक्षा प्राप्त करनी है, मैं विदेशी भाषा नहीं पढूंगा। लेकिन बहुत समझाने के बाद वे अंग्रेजी शिक्षा के लिए सहमत हुए। इसी के साथ संगीत एवं संस्कृत की शिक्षा भी वे घर पर ही लेने लगे। बचपन से अपने आराध्य की तलाश थी उन्हें। इसी कारण एक बार वे राम-सीता की मूर्ति ले आए और उसे अपने कक्ष में स्थापित कर दी। वहीं वे ध्यान लगाकर बैठ गए। उन्होंने बच्चों की भी एक टोली बना रखी थी और वे कभी भक्त प्रहलाद तो कभी नचिकेता और ध्रूव के नाटकों का मंचन घर पर ही किया करते थे। उन्हें शारीरिक व्यायाम भी पसन्द था और उन्होंने घर में ही एक व्यायामशाला निर्मित कर ली थी। लेकिन उनके काका को यह पसन्द नहीं था तो एक दिन उनके काका ने इसे नष्ट कर दिया। ऐसे में वे पड़ोस के अखाड़े में जाने लगे और उनका व्यायाम नियमित चलता रहा। विद्यालय में कोई भी छात्र उनसे किसी भी खेल में कभी भी नहीं जीत पाया। क्रमश:
स्वामी विवेकानंद के बारे में अच्छी जानकारी देती पोस्ट
सुन्दर , समसामयिक और सार्थक पोस्ट . अच्छा लगा पढ़कर .
कृपया जन्म तिथि सही कर दीजिये .
दराल साहब बहुत आभार। मैंने तिथि ठीक कर दी है।
बढ़िया श्रंखला , इस बहाने महापुरुषों से कुछ सीखने का मौक़ा तो मिलेगा ! आभार आपका !
बहुत बढिया श्रंखला
कृपया ,
ऐसी पोस्ट नरेन्द्र से विवेकानंद पर भी प्रेषित करे किंवा इस पृष्ठ पर शेयर की अनुमति देवें .. .. ..
हरिदत्त जी, आप इसे शेयर कर सकते हैं।
विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति के बारे में सारे विश्व की उत्सुकता बढ़ा दी थी।
यही खासियत होती है सच्चे धर्मरक्षक की गाथा की कि उसे जितनी पढ़ा जाए उतनी बार नई लगती है।
विवेकानंद जी के बारे में पढना अच्छा लगा . ऐसे महापुरुष पर कितनी बार भी पढ़े , सब नया ही लगता है
सुन्दर जीवन शैली और आध्यात्मिक ,सामाजिक ,राष्ट्रिय परिदृश्य का अंकन साफ सुथरी पोस्ट
डॉक्टर दी,
एक महान सन्यासी और मूल नायक की जीवन गाथा पढकर लाभान्वित हुए हम.. आभार आपका!!
स्वामी विवेकानंद जी के और नरेंद्र कोहली जी के तो हम प्रशंसक हैं, अवश्य ही पठनीय पुस्तक होगी| अगले कड़ी का इन्तेजार रहगा|
संजय जी, आप इसे अवश्य पढ़े, एक बार हाथ में आने पर जब तक सभी ६ खण्ड पूर्ण नहीं हो जाते मन किसी काम में लगता ही नहीं। यही कारण है कि इन दिनों ब्लाग पर कम हूं।
स्वामी जे के बारे में विस्तार से लिखा है आपने …
आशा है आपने नरेंद्र कोहली की पुस्तक तोडो कारा तोडो जरूर पढ़ी होगी .. अगर नहीं तो सभी पढ़ने वालों से इल्तजा है की स्वामी विवेकानंद को जानने के लिए इसे जरूर पढ़ें … मेरा मानना है शुरू करने के बाद खत्म करने पे ही उठेंगे …..
दिगम्बर जी, मैंने तो भूमिका में ही लिखा है कि नरेन्द्र कोहली के उपन्यास “तोड़ो कारा तोड़ो” से लिया है। सभी ६ खण्ड पढ़े हैं। ६ अक्टूबर को उनसे मिलना है, यदि किसी के भी कोई प्रश्न हो तो बताए, उनसे मिलने पर एक साक्षात्कार हो जाएगा।
मैं उनसे जरूर जानना चाहूंगा की स्वामी जी को लिखते हुवे कवि किस मानसिकता में जी रहे थे … इतना जीवंत तो तभी लिखा जा सकता है जब आत्मा से आत्मसात हो सकें कोई … उन्हें जरूर कहियेगा की मैंने उनकी अधिकतर (रामायण, महाभारत या अपनी प्राचीन पुस्तकों पे लिखी) पुस्तकें पढ़ी हैं और उनका आभारी हूँ अपनी संस्कृति को इतने प्रभावी और दिलचस्प तरीके से पुन्ह्प्रेषित करने के लिए … ये अपने आप में महान कार्य है देश, समाज और मातृभूमि के प्रति …
दिगम्बर जी आपकी भावना से मैं उन्हें अवश्य अवगत कराऊँगी।
अगली कड़ी का इंतजार है स्वामी के बारे में अधिक जानकारी के लिए
अगली कड़ी का इंतजार है स्वामी जी के बारे में अधिक जानकारी के लिए
नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद की यात्रा रोचक रही।
धर्म एवं तत्वज्ञान के साथ-साथ भारतीय स्वतन्त्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- ‘मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।’
विवेकानंद जी के बारे में यह स्रंखला अच्छी लगी । अगली कडी का इन्तजार है ।
समय समय पर हिंदु संतो ने हमारे धर्म को जीवित रखा है ।
विवेकानन्द के बारे में कई जानकारी हासिल हुई | जब मै भी पहली बार अपनी बेटी के लिए एक स्कुल में गई तो वहा के एक बच्चे को गाली देता देख तुरंत ही वहा से भाग आई थी और चिंता में पड़ गई थी | जहा तक मेरी जानकारी है मकरसंक्रांति हमेसा १४ जनवरी को ही होता है तो उनका जन्म कब हुआ है १२ जनवरी या मकरसंक्रांति को |
अंशुमालाजी, मकर संक्रान्ति की तिथियां भी बदल जाती हैं। आज के 150 वर्ष पूर्व यह 12 जनवरी को ही थी। वर्तमान में भी 15 जनवरी मकर संक्रान्ति की तिथि होने वाली है।
बहुत अच्छा है , हमारी शुभकामना , प्रा,मकरंद दामले रत्नागिरी