मेरा बजट भगवान बनाता है। कितना सुख और कितना दुख का लेखा-जोखा उसी के हाथ है। मेरी सारी संचित समृद्धि का बजट भी भगवान ही बनाता है। इस साल तुम इस व्यक्ति के लिये अपना अर्थ का उपयोग करोगी और उस व्यक्ति से वसूल करोगी! सभी कुछ तो भगवान के हाथ में है। मेरी इच्छाएं मुझे अपनी ओर खींचती हैं लेकिन तभी भगवान बताता है कि अपनी इच्छाओं से परे भी दुनिया है। पिछले साल तो सारे ग़ैर ज़रूरी ख़र्चों तक पर कटौती कर दी गयी और रोटी-कपड़े तक की ज़रूरतों पर बजट केन्द्रित कर दिया गया। भगवान ने बताया कि सुख इसी में खोजो। सभी कुछ देने पर और कुछ नहीं होने पर सुख में क्या अन्तर आया, इसे खोजो! भीड़ से भरी दुनिया में और एकान्त में क्या अन्तर है, इसका भी आकलन करो। कभी हम किसी वस्तु का प्रयोग ही नहीं करते तो भगवान उसे जीवन से हटा लेता है। रिश्ते कभी बेमानी से हो जाते हैं, हमारे भी हुए, तब भगवान ने कहा कि इनके बिना ज़िन्दगी का अनुभव करो। अपने सात समन्दर पार जाकर बैठ गये, भगवान ने कहा कि इस बिछोह का दर्द भी सभी को अनुभूत करने दो। हमारे बजट से उसने रिश्ते के नाम का व्यय ही हटा दिया। अब देखो कौन है तुम्हारे आसपास! कौन तुम्हारे लिये चिंतित होता है? बस वहीं पर बजट में ध्यान दो। भगवान ने सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। मैं सोचती ही रह गयी कि यह करना है और वह करना है लेकिन कौन सा सुख देना है और कौन सा दुख, भगवान ने ही तय कर दिया। अब लोग मांग रहे हैं, मुठ्ठी भर राहत सरकार से, मैं तो भगवान की ओर देख लेती हूँ! इतना होने पर भी सुख की दो बूँद का प्रसाद देते रहना। अपनों से ना सही अपने आप से ही सुख की अनुभूति करा देना। जो मिला उसे भी सम्भाल नहीं पाए, तब भगवान ने कहा कि अकेले रहकर देख लो, शायद अकेलापन ही रास्ता दिखा दे! खैर, सभी का लेखा-जोखा होता है, सरकार भी बनाती है और आम आदमी भी। मैं नहीं बनाती। ज़िन्दगी को संघर्ष मानकर चलती हूँ। संघर्ष करते हुए जब लम्बी सांस लेने का अवसर मिल जाता है तो उसे सुख मान लेती हूँ और चलती रहती हूँ। मेरा को बजट यही है, कितना सुख समेटा और कितना दे दिया बस।
बजट के बहाने यूँ ही
Written By: AjitGupta
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Feb•
03•21
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