अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अमेरिका को कैसे अपनाएं? भाग 2

Written By: AjitGupta - Nov• 03•14

अब आते हैं अपने दिन और रात पर। केलिफोर्निया के सेनोजे शहर में सुबह जल्‍दी ही हो जाती थी। भारत में जून महिना भरपूर गर्मी भरा रहता है लेकिन यहाँ मौसम बेहतर था। सुबह की भोर ठण्‍डक लिए होती थी तो जैसे-जैसे दिन चढ़ता था, धूप में तेजी आती जाती थी। लेकिन रात होते ही गर्मी फिर से अपनी कोठरी में जा दुबकती थी और ठण्‍डक अपने पैर पसारने लगती थी। सुबह छ: बजे से रात को नौ बजे तक दिन बना रहता था। नौ बजे जाकर कहीं अंधेरा होता था। ऐसे में लम्‍बे दिन भी छोटे कैसे लगे, उसके लिए जुगाड़ लगानी पड़ती थी। मेरे शयन कक्ष की खिड़की पूरब की तरफ खुलती थी तो सूरज भैया सबसे पहले मुझे ही गुडमार्निंग बोलते थे। सामने बड़ी सी खिड़की में सूरज भैया मंद-मंद मुस्‍करा रहे हैं और उनकी किरणे हमारी चादर को बार-बार छेड़ रही हो तो उठकर गुडमार्निंग बोलना ही पड़ता था। उठकर जैसे ही नीचे लीविंग रूम में आते तो सबसे पहले निगाहे बेकयार्ड पर पड़ती थी। देखें साथ में लगी पहाड़ी से उतरकर हिरण महोदय आ गए हैं या नहीं। घर के पीछे बेकयार्ड और उसके साथ लगी पहाड़ी, प्रकृति से प्रेम करा देती थी। पहाड़ी पर सूखी घास उसे सुनहरा बना रही थी, बस केवल घास कोई झाड़ नहीं। बेकयार्ड की चारदीवारी के पास कुछ झाड़ जैसे पेड़ थे, वहीं से खरगोश निकलकर धरती में बिल बनाकर तारों को धता बताते हुए आराम से लोन पर चहलकदमी कर रहे होते थे। कभी प्रेम से घास को कुतर रहे होते तो कभी आलूबुखारे के पेड़ से टपके पके फलों का स्‍वाद ले रहे होते। बेटे ने बड़े चाव से सूरजमुखी के चन्‍द पौधे लगाए, खरगोश महाशय आये और तने को ही कुतर गए। बस मुश्किल से नमूने का एक पौघा बचा जिसमें एक फूल आया। खरगोश का साथ देने गिलहरी और चिड़ियाएं भी आ जाती, वे फलों को कुतर-कुतरकर गिराती और खरगोश महाशय जीमते। सुबह-सुबह का कलेवा देखकर मन खुश हो जाता। मन करता इस सुनसान शहर में कुछ तो जीवन्‍त है। यह सोसायटी शहर से दूर थी और पहाड़ों के मध्‍य थी तो चिड़िया, गिलहरी, खरगोश और हिरण दिखायी दे जाते थे। इसके विपरीत जहाँ फ्‍लेटनुमा सोसायटी हैं वहाँ बामुश्किल ही पंछी दिखायी देते थे। बस कभी-कभी कबूतर दिखायी दे जाते थे।

पुत्र और पुत्रवधु को अपने-अपने काम पर जाना होता तो सुबह की चाय भागमभाग में ही पी जाती। पोता घर पर ही रहता, उसकी तो छुट्टियां थी। हमारे अमेरिका आते ही उसके लिए एक दिनचर्या बनायी गयी, वाइट बोर्ड पर लिख भी दिया गया। हिन्‍दी पढ़ाने के लिए हमे पाबंद भी कर दिया गया। लेकिन उसके लिए हिन्‍दी ऐसे ही थी जैसे हमारे यहाँ के बच्‍चों के लिए अंग्रेजी। क्‍लास अ से शुरू होती और अ पर ही अटक जाती। उसका मुँह एकदम बकरी के बच्‍चे सा लटक जाता। जैसे ही कहते कि चलो दूसरी क्‍लास की ओर याने स्‍वीमिंग पूल पर तो एकदम से चहक पड़ता। सोसायटी का ही स्‍वीमिंग पूल था, मेम्‍बरशिप ले रखी थी। वहीं क्‍लासेस भी लगी रहती थी जिससे बच्‍चे अच्‍छी तरीके से और नयी-नयी विधा की तैराकी सीख जाएं। हम भी निकल पड़ते पैदल ही, क्‍योंकि पैदल के अलावा दूसरा कोई विकल्‍प नहीं था। आधा-पोन किलोमीटर पर था स्‍वीमिंग पूल, तो घूमना भी हो जाता और स्‍वीमिंग भी। पैदल चलना वहाँ बहुत ही आसान है, बस चलते रहिए, जहाँ मुड़ना हो मुड़ जाइए, आपको कुछ नहीं करना। जो करना है वह गाड़ी वाले को करना है। उसके लिए सड़क पर लिख दिया जाता है STOP, बस उसे रूकना ही है। एक बार चारों तरफ  देखना है तब आगे बढ़ना है। हम भी 10-15 मिनट में पहुंच ही जाते। पोता सायकिल से जाता, वह चलता फिर हमारे लिए रूकता और फिर चल पड़ता। पहले क्‍लब हाउस का ऑफिस, वहाँ प्रवेश करते ही बोर्ड लगा मिला कि वाय-फाय का पासवर्ड यह है। अरे वाह, अब तो फोन चल जाएगा और साथ में वाट्सअप, फेसबुक आदि सभी कुछ। फिर अपना पासवर्ड कम्‍प्‍यूटर में डाला जाता और आपको क्‍लब के अन्‍दर प्रवेश मिल जाता। दो स्‍वीमिंग पूल और एक जकुजी। दोनों के वाशरूम अलग-अलग। धूप सेकने के लिए आराम कुर्सियां भी हैं तो धूप से बचने के लिए बड़ी छतरी भी।

हमारे यहाँ बरसात के बाद जब धूप निकलती है और दीपावली आने लगती है तब हम हमारे रजाई-गद्दों को धूप लगाते हैं। दाल-चावल को भी डिब्‍बों से निकालकर धूप में फैला देते हैं। तात्‍पर्य की जितने आवरण हटा सको हटा दो, सीधे सूर्य से साक्षात्‍कार होने दो। ऐसा ही कुछ है मानव शरीर के साथ भी। जिस देश में धूप बहुत किफायत से मिलती हो, उस देश के लोग उसका उपयोग भी जानते हैं। शरीर के लिए उपयोगी विटामिन डी का अकेला देनदार है सूरज। तो अपने शरीर के आवरण जितने हटा सकें उतने हटा दीजिए और स्‍वयं को सूरज के सुपुर्द कर दीजिए। बस यही भाव रहता हैं स्‍वीमिंग पूल के किनारे। तैरना और धूप का सेवन बस दो ही काम। वाश रूम में जाइए, साफ धुला हुआ झकास तौलिया मिलेगा, शैम्‍पू, मोइस्‍चराइजर आदि सभी कुछ मिलेगा। पुरुषों को रेजर, शेविंग क्रीम भी मिलेगी। बस आइए, तैरिए, धूप खाइए और अपना दिन खुशहाल बनाइए। ना किसी के बदन को घूरती ललचायी नजरे हैं और ना ही अनावश्‍यक शोर। बस सकून भरी जिन्‍दगी। बच्‍चों को अच्‍छी तैराकी सिखाने के लिए कोच भी हैं। यहाँ कई बार बड़े लोग भी तैराकी सीख रहे होते हैं। एक अधेड़ सा और अच्‍छा तंदुरूस्‍त पुरुष तैराकी सीख रहा था और उसे एक छोटी सी लड़की सिखा रही थी। वहाँ काम की पूजा है, लिंग भेद नहीं है। स्‍वीमिंग पूल पर कभी पार्टी भी चलती रहती, वैसे वहाँ केण्‍टीन भी थी जिसमें अक्‍सर शाकाहारी कुछ नहीं होता था। हम जैसों के लिए पानी मुफ्‍त था। ऐसे ही एक-डेड घण्‍टा व्‍यतीत कर हम भी लौट आते।

अब शुरू होता है सबसे कठिन दौर। अमेरिका में भारतीय बच्‍चों को खाना खिलाना सबसे कठिन चुनौती है। ना अमरिकी खाने का पता और ना भारतीय खाने का। बस कुछ-कुछ चीजे हैं जिन्‍हें बच्‍चे पसन्‍द करते हैं। वैसे बच्‍चों के नखरे भारत में भी कम नहीं है लेकिन वहाँ कुछ अधिक कठिन है। भारतीय और अमेरिका की नकल करके कुछ मिलाजुला खाना खिलाना वहाँ की मजबूरी है। मैं जिस दिन भी पोते के मुँह में रोटी ठूंसने में सफलता प्राप्‍त कर लेती, समझती थी कि आज का काम हो गया। उस दिन मैं गर्व से फूली नहीं समाती थी। उसके लिए खास रोटी बनायी जाती, जिसे हमारे यहाँ लच्‍छा पराठा कहते हैं, वैसी ही रोटी। खूब घी वाली। लेकिन बेटा कभी तारीफ नहीं करता, खा लेता लेकिन तारीफ नहीं। यदि तारीफ कर दी तो रोज-रोज ही रोटी गले पड़ने का डर जो था। वहाँ के भोजन में थाली-कटोरी नहीं है। सभी कुछ रोटी पर रखा हुआ है तो छोटे बच्‍चों को ऐसी ही आदत है। उन्‍हें रोल बनाकर रोटी दे दो तो समझ आता है लेकिन सब्‍जी या दाल के साथ रोटी कैसे खाते हैं, समझ नहीं है। इस कठिनाई को शब्‍दों मे समझाया नहीं जा सकता, क्‍योंकि बहुत लम्‍बी गाथा हो जाएगी, बस कभी आप स्‍वयं अनुभव कर लीजिए।

हम ऐसे ही एक दिन खाने की मशक्‍कत से निजात पाकर चैन से बैठे थे कि तूफान बरपा हो गया। पोता रोता हुआ, घुटने फोड़कर ले आया था। एक जगह नहीं तीन जगह से शरीर को घायल किया था। मुझे तूफान दिखायी दे रहा था कि इस पराये शहर में कैसे मलहम पट्टी होगी! पता नहीं कहाँ फस्‍टएड का सामान है? डॉक्‍टर होकर भी हाथ-पैर फूल गए। फटाफट फोन लगाया बच्‍चों को कि जितना जल्‍दी हो सके आ जाओ। फिर ध्‍यान आया अपनी भारतीय पडोसन का, तत्‍काल उसे बुलाया। वह अपने साथ फस्‍टएड बाक्‍स लेकर आयी। अमेरिकी तरीके से ड्रेसिंग हुई। डॉक्‍टर पति देखते रहे, और वह हमें बताती रही कि क्‍या करना चाहिए। हम घाव पर पानी नहीं लगने देते और वहाँ पहले जितना पानी से धो सको, उतना अच्‍छा। मैं भगवान का नाम लेती रही कि जल्‍दी ही बहु आ जाए तो इसे सम्‍भाल ले। लेकिन जितने तूफान की मुझे उम्‍मीद थी, उतना नहीं आया और उसे नींद आ गयी। क्‍योंकि अपनी दोहिती के साथ का अनुभव बहुत कटु था, उसने तो जमीन-आसमान एक कर दिया था। यहाँ की भी पूर्व रिपोर्ट ब‍हुत अच्‍छी नहीं थी। पुत्रवधु जब घर आयी तब उसने कहा कि क्‍या है, बच्‍चों के लगती ही रहती है। अरे इसके मांस निकल आया है और तू कह रही है कि लगती ही रहती है! लेकिन अब मेरी चिन्‍ता समाप्‍त हो चली थी। दस-पन्‍द्रह दिन में उनके प्रयोगों से आखिर घाव भर ही गया। लेकिन अच्‍छी बात यह थी कि इतने बड़े और गहरे घाव में भी एण्‍टबायटिक नहीं देनी पड़ी। दिन हमारा ऐसी ही उठापटक में बीतता, कभी उसके दोस्‍त या सहेलियां घर आकर धमा-चौकड़ी मचा रहे होते तो कभी वह कई घण्‍टों तक बाहर रहता। टीवी पर हिन्‍दी चेनल भी थे तो एकाध सीरियल भी देख लिया जाता। उन दिनों में महाभारत आ रहा था तो उसी का चाव था कि उसे देख लिया जाए बस। पोते को भी पसन्‍द आ रहा था तो कभी मूड में होता तो बोलता महाभारत देखें?

शाम को 6 बजते बजते दोनों ही काम से वापस लौटने लगते, कभी कोई जल्‍दी आ जाता तो कभी कोई। आते ही खाने की दरकार रहती। मैं खाना तैयार रखती। वहाँ जितना पोते को खाना खिलाना मुश्किल काम है उतना ही आसान है युवा पीढ़ी को खाना खिलाना। कुछ भी बना दो, वे इतनी खुशी से खाते थे कि मन तृप्‍त हो जाता था। कभी तो लगता था कि यह सब्‍जी अच्‍छी नहीं बनी है लेकिन उनके लिए वह भी बहुत अच्‍छी हुआ करती थी। ना उन्‍हें ठण्‍डी रोटी खाने में गुरेज था और ना ही दो दिन पुरानी सब्‍जी खाने में। मैं ना ना करती रहती कि अभी गर्म बनी जाती है, लेकिन वे दोनों ही बोलते कि इसमें क्‍या बुराई है? यदि एक सब्‍जी है तो भी अच्‍छी बात है और यदि दो सब्‍जी है तो फिर लाजवाब है। साथ में और कोई व्‍यंजन है तो कहने ही क्‍या। मेरे जैसी महिला जो भारत में भी खाने के बारे में ज्‍यादा किटकिट नहीं करती, पूरा घर नौकरानी ही देखती हो, ऐसे में खाने में बहुत सारे व्‍यंजन तो नहीं बना पाती थी, इसलिए कभी शर्म भी आती लेकिन वे हमेशा खुश रहते। फिर खाने में आदतों के बदलाव ने भी व्‍यंजनों की संख्‍या कम कर दी थी। सलाद ही अधिक लेना है या फिर स्‍मूदी। स्‍मूदी सारे ही फलों को मिलाकर बनाया गया पेय पदार्थ है जो अमेरिका में बेहद पसन्‍द किया जाता है। इसे पुत्रवधु ही बनाती और शाम के भोजन में यह ही पर्याप्‍त हो जाता।

रात लगभग 9 बजे होने के कारण भोजन आदि से निवृत्ति के बाद हमारे पास शाम के दो-तीन घण्‍टे बाजार के लिए निकल ही आते। हमें लगता कि सारा दिन काम करके बच्‍चे घर लौटे हैं तो अब घर पर ही आराम करते हैं लेकिन उनका आराम ही बाजार घूमना था। बाजार भी मॉल में बसे हुए, एक मॉल में घुस जाओ और पूरा चक्‍कर लगाने में ही उसके बन्‍द होने का समय हो जाए। कहीं 8 बजे बाजार बन्‍द तो कहीं 10 बजे। रेस्‍ट्रा तो अधिकतर 8 बजे ही बन्‍द हो जाते बस भारतीय रेस्‍ट्रा थे कि 10 बजे तक खुले रहते।  क्रमश:

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3 Comments

  1. अन्तर सोहिल says:

    मजा आ रहा है आपके अनुभव पढके
    कुछ जानकारियां भी मिल रही हैं

    प्रणाम

  2. रोचक अंदाज है लेखन का। बहुत कुछ जानने को मिल रहा है !

  3. AjitGupta says:

    अन्‍तर सोहिल जी और वाणी गीत जी आभार आपका।

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