तृतीय कड़ी
कम्बोडिया बार्डर पहुंचने पर असली पसीना आया। पता लगा कि दूसरे देश में कितना मुश्किल होता है प्रवेश करना। बार्डर पर ही बस खाली करा ली गयी, अब हमें आगे की यात्रा दूसरी बस में करनी थी। सारा सामान ठेलों पर लाद दिया गया। पहले इमिग्रेशन की लाइन और फिर वीजा की लाइन में हमें लगना पड़ा। दो-तीन घण्टे इसी मसक्कत में बीते। लंच का समय भी हो चला था लेकिन लंच कहीं नहीं था। कुछ फल खरीदे गए और कुछ अपने पेकेट से निकाला गया और काम चलाया गया। जैसे-तैसे सामान ढोकर वीजा की प्रक्रिया पूरी हुई और हम दूसरी बस में बैठ गए। आखिर 4 बजे के लगभग रेड-चिली रेस्ट्रा मिला, वहाँ भोजन ढूंढने की कोशिश की गयी। लेकिन यह क्या? वहाँ तो सभी कुछ मांसाहारी था। सलाद के ऊपर भी न जाने किसकी टोपिंग थी। जो लोग अण्डा और मछली नहीं खाते हैं, यह बात वहाँ के लोगों के लिए अजूबा थी। खैर उन्होंने तरबूज काटकर देना शुरू किया और सभी ने तरबूज खाकर संतोष पाया। जो लोग मांसाहार का सेवन करते थे, उनके लिए तो कोई कठिनाई नहीं थी लेकिन शाकाहारी लोग कुड़-कुड़ ही करते रह गए।
हमारे यहाँ की नन्हीं सी चिड़िया, जो पहले घर की मुंडेर पर चहचहाती रहती थी, अब बहुत ही कम दिखायी देती है। न जाने कहाँ खो गयी है हमारी नन्हीं चिड़िया। इस चिड़िया पर हमने न जाने कितने गीत लिखे हैं और न जाने कितनी कहानियां बनी हैं लेकिन अब ढूंढने पर ही मिलती है, हमारी नन्हीं चिरैया। लेकिन कम्बोडिया में वही नन्हीं चिरैया फुदकती हुई दिखायी दे गयी। हमें बड़ा संतोष मिला कि हमारी नन्हीं चिरैया अब कम्बोडिया में है। हमारी यात्रा शुरू हो गयी थी और रात होने लगी थी। दूर-दूर तक फैले जंगल दिखायी देने लगे थे। लेकिन एक बात समझ से परे थी। वहाँ जंगलों में ट्यूब-लाइट लगी हुई थी। एक निश्चित दूरी पर ट्यूब-लाइट श्रंखलाबद्ध थी। सोचा कि किसान रात को काम करता होगा और उसे रोशनी की आवश्यकता रहती होगी। लेकिन इसका उत्तर हमें दूसरे दिन मिला। दिन की रोशनी में हमने देखा कि ट्यूब-लाइट के साथ ही सफेद पोलिथिन का टुकड़ा भी लगा है और नीचे पानी भरा है। रात को कीड़े-मकोड़े रोशनी से टकराते हैं और मरकर पानी में एकत्र हो जाते हैं। ये कीट-पतंग उनके भोजन का अहम हिस्सा है। वहाँ की दुकानों पर टोकरे भर-भर कर बिकने को तैयार थे। उन्हें भूनकर खाया जाता है और कच्चे भी खा लिया जाता है। पास की बस का ड्राइवर चने-मूंगफली की तरह उन्हें फांक रहा था। एक जगह जहाँ बस रूकी थी वहाँ मण्डी जैसी थी, टोकरे भरे कीट-पतंग और कुछ फल भी। हमारे साथियों ने वहाँ से फल खरीदना भी उचित नहीं समझा। छोटे-छोटे बच्चे जो स्कूल जाने के बाद इन सबको बेच रहे थे। कुछ भीख भी मांग रहे थे। गरीबी भारत जैसी ही दिखायी दी।
दिनांक 17 जून को कम्बोडिया के सीम-रीप शहर में सम्मेलन की तैयारी थी। हम सभी में उत्साह था। रात को ही सीम-रीम पहुंच गए थे और रात को अच्छी नींद निकालकर सुबह 8-30 पर सभागार में उपस्थित हो गये थे। कार्यक्रम निर्धारित समय पर प्रारम्भ हुआ लेकिन कुछ निराशा हुई। एकतरफ हम भारतीय संस्कृति का प्रचार करने आए थे तो दूसरी तरफ हम भारत को विस्मृत करके धर्मनिरपेक्षता निभा रहे थे। ना सरस्वती देवी की आराधना और ना ही माल्यार्पण, ना ही दीप प्रज्जवलन। बस कार्यक्रम की सीधे ही शुरूआत। कम्बोडिया बौद्ध अनुयायी है, वहाँ की 90 प्रतिशत जनसंख्या बौद्व है और वे सभी स्वयं को हिन्दुओं के नजदीक मानते हैं। उनकी विरासत में विष्णु का प्रभाव आज भी परिलक्षित होता है। उनके यहाँ होटल, दुकान, घर सभी के बाहर छोटा सा मन्दिर होता है, जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति होती है। अपने पूर्वजों की भी वे पूजा करते हैं। ऐसे सांस्कृतिक विरासत के देश में हम भारतीय संस्कृति के दर्शन नहीं करा सके।
साहित्य और हिन्दी के नाम दो सत्र रहे, उद्घाटन सत्र और प्रथम सत्र। प्रथम सत्र का विषय था भूमण्डलीकरण और हिन्दी। उद्घाटन सत्र में कई साहित्यकारों की कृतियों का विमोचन था। रात्रि में काव्य गोष्ठी थी। भोजन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम था, जिसमें श्री कल्याण सेन और सत्यनारायण झा द्वारा मधुशाला के कुछ अंश सुनाए गए। बिहार की ममता अहार द्वारा मीरां पर नृत्य नाटिका थी तो जयपुर की चित्रा जांगीड़ की नृत्य प्रस्तुति। भूमण्डलीकरण और हिन्दी पर कई विद्वानों के पत्र-वाचन थे। लेकिन सब कुछ हमी से था। कम्बोडिया से कोई हिन्दी सेवी विद्वान नहीं आया था। हमारी नजरे कम्बोडिया के विद्वानों को खोजती रहीं लेकिन वहाँ के किसी भी व्यक्ति की भागीदारी नहीं थी। यहाँ भी आयोजकों के परिश्रम की कमी दिखायी दी। ना कम्बोडिया के साहित्यकार, ना वहाँ के हिन्दी प्रेमीजन और ना ही वहाँ स्थित भारत के राजदूत! सम्मेलन के स्थान पर साहित्यकारों का भ्रमण हो गया था। लेकिन हम सभी ने बौद्धिक खुराक का इंतजाम कर लिया था। दो देशों के साहित्यकारों के मध्य साहित्य और भाषा का आदान-प्रदान ना सही लेकिन आपसी बौद्धिक चर्चा का समय बस में प्रचुर मात्रा में मिल गया था।
दूसरे दिन हमें कम्बोडिया की राजधानी फेनम-फेन के लिए रवाना होना था, फिर वही यात्रा। कम्बोडिया में केंग नदी बहती है जो उनकी जीवन रेखा है। नदी के उस पार जाने के लिए फेरी की सहायता लेनी पड़ती है। पूरी बस ही फेरी में लाद दी गयी और हम बस सहित नदिया के पार थे। कम्बोडिया में छ माह बारिश रहती है और बाढ़ जैसे हालात उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए वहाँ के मकानों की रचना कुछ अलग तरह से की गयी थी। सारे ही मकान नीचे से खम्बों के सहारे खड़े थे। नीचे का स्थान खाली था, उसे गोदाम के रूप में काम में लिया जाता था। ऊपर का मकान भी चारों तरफ से बन्द रहता है, केवल जाने के लिए सामने ही दरवाजा होता है। ना कोई खिड़की और ना ही कोई रोशनदान। साँप-बिच्छुओं से बचने के लिए ऐसा किया जाता है। आधुनिक मकान भी इसी प्रकार की रचना लिए होते हैं लेकिन उनमें खिड़की आदि होती हैं। वियतनाम युद्ध के समय कम्बोडिया को भी काफी जनहानि का सामना करना पड़ा था। उस समय ज्यादा संतान उत्पन्न करने का रिवाज था लेकिन वर्तमान में सीमित संख्या ही हो गयी है। लड़कियों के लिए खुशखबरी है कि वहाँ उन्हें दहेज मिलता है। कहीं-कहीं तो विवाह से पूर्व लड़के को लड़की के घर में दो-तीन वर्ष आकर काम भी करना पड़ता है। विवाह के बाद लड़की की ईच्छा पर ही निर्भर करता है कि उन्हें अपना घर लड़के के घर को बनाना है या फिर लड़की के घर को या स्वतंत्र। आबादी की दृष्टि से वहाँ 60/40 का प्रतिशत है। अर्थात लड़कियों की संख्या ज्यादा है। वहाँ सभी जगह लड़कियां ही काम करती हुई दिखायी देंगी। मोपेड का उपयोग वहां सर्वाधिक है। होण्डा ने छोटे आकार की मोपेड बनायी हैं और वे वहाँ बहु उपयोगी हैं। आगे मोपेड और पीछे सवारी गाडी, नाम है टुकटुक। ऑटो-रिक्शा के रूप में खूब प्रचलित है। इतना ही नहीं, मोपेड को चलित दुकान के रूप में भी काम लिया जाता है। मोपेड के साइड में पूरी दुकान चलती है। मोपेड से बड़े-बड़े ठेले भी बंधे देखे। कहने का तात्पर्य यह है कि वहाँ मोपेड सारे ही काम कर रही है। सस्ती, सुन्दर और टिकाऊ।
कम्बोडिया की राजधानी फेनम-फेन और शहर सीम-रीप दोनों ही विकास की दृष्टि से विकसित थे। साफ-सुथरे शहर, नदी के किनारे बसे हुए। एक तरफ राजमहल तो दूसरी तरफ साफ सुन्दर बहती हुई नदी। कम्बोडिया की पहचान है वहाँ का अंकोर-वट। प्राचीन बौद्ध मन्दिर। जहाँ विष्णु का प्रभाव कण-कण में दिखायी देता है। विशाल मन्दिर के प्रवेश द्वार पर सहस्त्र-नाग बने हैं, जो विष्णु के प्रतीक हैं। पूरा मन्दिर औरंगजेब के काल में लूट लिया गया और मूर्तियों को तोड़ दिया गया। लेकिन उसकी भव्यता आज भी विद्यमान है। मन्दिर की सबसे आखिरी मंजिल पर राजा का निवास था, जहाँ की सीढ़िया एकदम खड़ी है। गाइड ने बताया कि राजा के दरबार में जाने के लिए नजरे झुकी होनी चाहिए, इसलिए सीढ़ियां खड़ी बनायी गयी थी। आज भी वहाँ संस्कृति को सुरक्षित रखा जाता है। अधनंगे वस्त्र पहनकर ऊपर जाने की मनाही है। हमारे साथ की एक लड़की ने बिना बांह का कुर्ता पहन रखा था, उसे जाने से मना कर दिया गया। उसने हमारे ही किसी पुरुष साथी की कमीज लेकर पहनी तब जाकर उसे जाने दिया गया। लेकिन हम अपनी संस्कृति को विनष्ट करने पर तुले रहते हैं। समुद्र मंथन का दृश्य वहाँ पर प्रमुखता लिए रहता है। मन्दिर के अन्दर भी भित्ती चित्रों में उसे उकेरा गया था। बैंकाक एयर पोर्ट पर तो समुद्र मंथन का विशाल स्वरूप प्रदर्शित ही है।
जब हम अंकोर-वट का मन्दिर देख रहे थे तब वर्षा आ गयी। जैसे ही वर्षा आयी, छोटे-छोटे बच्चे बरसाती बेचने आ गए। ऐसा लगा जैसे वे उसी पल का इंतजार कर रहे हों। एक डॉलर में एक बरसाती, पोलिथीन की बनी हुई, एकदम पतली। एक और मजेदार बात रही, हमें टायलेट जाना था, ढूंढा तो देखा कि एक टीन के फाटक वाला टायलेट है। वहाँ एक लड़का बैठा था, उसने कहा कि एक डालर, एक व्यक्ति के। हमने दो डॉलर दे दिए। लेकिन तभी पास ही लगे बोर्ड पर निगाह गयी वहाँ लिखा था कि 1000 रियाल। हमने उसे समझाना चाहा लेकिन वह बच्चा ठस से मस नहीं हुआ और पूरे दो डॉलर हडप कर गया। एक डॉलर में 4000 रियाल आते हैं। लेकिन इस घटना ने हमें सावधान कर दिया था कि सावधानी से ही खरीददारी करनी है। हर चीज का भाव-ताव करना ही पड़ता था, नहीं तो आप एक को पांच देने पर मजबूर हो सकते थे। कम्बोडिया के शहर देखकर पश्चिम के देशों का स्मरण होता था तो गाँव देखकर भारत का। वहाँ भारतीय पद्धति के टायलेट भी थे और होटल में भी टायलेट के साथ हैण्ड-शॉवर था। बड़ा सुकून मिला। होटल भी बहु-मंजिला और वहाँ का खान-पान भी एकदम अमेरिका के समान। सुबह का नाश्ता होटल के किराये में ही शामिल होता है और नाश्ता सुबह 6 बजे से पूर्व ही लग जाता है। होटल में वाय-फाय की सुविधा नि:शुल्क थी इसलिए वहाँ जाते ही सबसे पहले पासवर्ड लेते थे। हम सब इसी सुविधा के कारण भारत से जुड़े रहे और फेसबुक पर समाचार देते रहे। कुछ लोग भारत से ही अन्तरराष्ट्रीय रोमिंग की सुविधा लेकर आए थे लेकिन अधिकतर लोगों के फोन नहीं चले। अन्त में सभी वाय-फाय सुविधा पर ही निर्भर रहे।
कंबोडिया का यात्रा वृतांत रोचक रहा. लगता है मोल भाव करने की बीमारी सिर्फ़ अपने यहां ही नही नल्कि दुनियां में सभी जगह है.
रामराम.
बहुत रोचक चित्रण….
कम्बोडिया के बारे में विस्तार से जानकारी के लिए शुक्रिया। अक्सर अंग्रेजी फिल्मों में देखने को मिला है। जहाँ गरीबी है वहां भारत जैसा ही नज़ारा देखने को मिलता है। शहरी विकास भी अब सब जगह होता है। लेकिन कुछ मूल विशेषताएं दिलचस्प होती हैं जैसे कम्बोडिया में क्रिकेट नाम के कीट को शौक से खाया जाता है क्योंकि इसे हाई प्रोटीन डाईट माना जाता है और बहुतायत में मिलता भी है।
आपको कष्ट जरूर उठाने पड़े लेकिन एक अनूठी संस्कृति का अनुभव भी मिला, रोमांचक रिपोर्ट।
हमें भी बहुत कुछ जानने को मिला….. रोचक वृतांत
रोचक वृत्तान्त के लिए आभार। औरंगजेब की पहुँच कंबोडिया तक थी यह जानकार आश्चर्य हुआ।
अनुराग जी, कम्बोडिया तो भारत का ही हिस्सा था, इसका नाम कम्बौज था।
हमारे देश में संस्कृति की बात करना पिछड़ापन माना जाने लगा है …
कम्बोडिया से सम्बंधित रोचक जानकारी मिली !
आभार !
सही मायने में कंबोडिया में भारतीय संस्कृति की झलक नहीं दिखा पाने का अफसोस औऱ कंबोडिया के साहित्याकारों से न मिल पाना कमी लग रही है आयोजन की। लगता है कि एक तरह से ये साहित्यकारों का विदेश भ्रमण ही बनकर रह गया है।
रोचक यात्रा … इस मंदिर के बारे में जानना अच्छा लगा …
कंबोडिया और अंकोर वाट के विषय में जानना अच्छा लगा.वह .विस्तृत भारत आज कितना सिमट गया है ,और भारतीय संस्कृति तो अपने मूलस्थान में ही तिरस्कृत हो रही है -कैसे -कैसे दिन देखने पड़ते हैं किसी देश को जब अपनी संताने ही ….
इस यात्रा संस्मरण के साथ ही काफी नयी जानकारियाँ मिली । आभार
भारतीय संस्कृति के प्रसार के क्षेत्र में भारतीय भाषा का प्रसार।
आपके अनुभव रोचक लगे …