आज बन्द पल्ले खोलने का अवसर दीमक ने दे दिया। कहीं नुकसान ना हो जाए इस डर से अल्मारी की फाइलें बाहर निकाल दी गयीं। सोचा कि पुरानी यादों का सफर अब समाप्त कर ही देना चाहिए। छटनी को तैयार फाइलों को जैसे ही हाथ में लिया, लगा कि अतीत सामने आकर खड़ा हो गया है। फाइलों के माध्यम से अतीत ने मुझे मोहग्रस्त कर दिया लेकिन इसबार मेरा निश्चय दृढ़ था और मैंने मोहबन्ध को उखाड़कर फेंकने का प्रयास कर लिया। जब हम स्वयं अतीत बन जाएंगे तब क्या होगा? यही सोच हावी हो गयी और फाइलों में सिमटे अतीत को अपने से दूर करने का मन बना ही लिया। जिन अध्यायों को मन बिसरा बैठा था, वे एक-एक कर निकल आए। कहीं गर्द थी और कही सीलन थी। कहीं प्रकाश था तो कहीं उल्लास भी था। लेकिन अब रेत हाथ से फिसलने लगी है, संचय का अर्थ दिखायी नहीं देता। कहीं आप किसी पत्रिका में हैं तो कहीं आप समाचार-पत्र की किसी कतरन में। कहीं प्रशस्ति-पत्र है तो कहीं पुरस्कृत करते चित्र। पुस्तकों की पाण्डुलिपि है तो कहीं प्रिंटर से निकाले आलेख। अपने व्यक्तित्व की छंटनी करते-करते भी बहुत कुछ शेष रह ही जाता है, जिसे समेटे रखने का मन कर ही जाता है। लेकिन कब तक? वे लोग भाग्यशाली होते हैं जिनके अपने उन्हें गर्व से देखते हैं, इसी गर्व को संचित करके रखते हैं हम भी और हमारे भी। लेकिन जब गर्व का स्थान अर्थ ले ले तब आप पर गर्व करने वाला कोई नहीं होता, बस आप अकेले रह जाते हैं।
हम अपने लिखे शब्दों पर कैसे हाथ फिराते हैं! लगता है जैसे अपने बच्चों को सहला रहे हों, लेकिन इस लिखी इबारत का कोई वारिस नहीं होता। कुछ लोग होते हैं जो अपना वारिस तलाश लेते हैं, लेकिन हमारे जैसे लोग तलाश में नहीं स्वत:र्स्फूत प्रेम में ही विश्वास करते हैं। जब स्वयं के ही गर्व की गाथा गाने का समय ना हो तब भला कोई दूसरों के गर्व की गाथा क्यों गाएगा? हम लेखक तो लिखने के लिए कहानी ढूंढते हैं और इसमें आसपास के गौरव को समाज को बांटने का कार्य करते ही हैं लेकिन जो लेखक नहीं हैं वे भला कैसे इस रचना-संसार से जुड़ पाएंगे? मेरी फाइलों में लगभग दो दशक बन्द थे। इन दशकों को गंगा को समर्पित कर दूं या फिर रहने दूं, ऐसे ही सुप्तावस्था में। आखिर इनका भविष्य तो कबाड़ में ही है, फिर स्वयं के हाथों से ही तर्पण क्यों नहीं? अभी तो बिटिया को विदा करने जैसा भाव उदित होगा, बाद में तो झुंझलाहट के भाव से ही विदा होना पड़ेगा, इन फाइलों को। सोच रही हूँ कि मुक्त हो जाऊँ अपने अतीत से। आखिर किस-किस को समेट कर रखूं? हर फाइल के साथ कैसा तो गहरा रिश्ता है? गुब्बारे की तरह हमने भी कार्य से स्वयं को आकाश में उड़ाया था, लेकिन ईर्ष्या के कांटों ने कब हमें बींध दिया, उसका अहसास कागजों में लिपटा मन आज भी कर रहा है। ऐसे बींधे हुए मन को कब तक सम्भाल कर रखूं? फाइले ही बता रही हैं कि हमने अपने मन को टूटने नहीं दिया, ठोकर खाने के बाद भी प्रयाण जारी रहा, बस दिशा बदल गयी। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सभी तो नाप लिए लेकिन ठहराव कहीं नहीं आया। जब लगा कि अब ठहराव आ गया है, तभी नश्तर से बिंध गए। नि:स्वार्थ कार्य में भी इतना स्वार्थ, कभी सोचा नहीं था? स्मरण आता है किसी का कथन – यहाँ कार्य करके भला तुम्हें क्या मिलेगा? तब मन ने कहा था कि ले तो बहुत लिया अब तो देने का नम्बर है। लेकिन देना भी इतना कठिन है, शायद जो इस मार्ग पर निकले हैं वे ही जान पाएंगे।
कई पड़ाव पार किए, हमेशा उसी मार्ग को चुना जहाँ प्रबुद्धता थी। स्वयं को हमेशा सबसे छोटा हस्ताक्षर माना, लेकिन धीरे-धीरे क्या हुआ कि बड़े-बड़े हस्ताक्षर भी हमारी लकीर को छोटा करने में लग गए। हमारे वजूद को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी और हमने भी अपना रास्ता बदल लिया। अबकी बार सोचा कि नहीं इसबार प्रबुद्धता का स्तर और बड़ा होगा, जहाँ हम कभी भी नहीं पहुँच पाएं। लेकिन फिर वही चोट हम खा बैठे। बदलती फाइले सारी ही तो कहानी कह रही हैं। दर-दर की ठोकरे भला किसलिए? बस कुछ करने के लिए और प्रबुद्धता का सान्निध्य पाने के लिए ही तो। लेकिन कुछ नहीं मिला, बस हम कोरे ही बनकर रह गए। हमारी लिखत-पढ़त फाइलों में दफ्न हो गयी। जिसे समाज प्रबुद्धता का ठेकेदार कहता है, हम घूमते-फिरते वहाँ भी जा पहुँचे, लेकिन वे तो व्यापारी से भी अधिक व्यापारी थे। इन फाइलों से अब सीलन की गंध आने लगी है, गर्द सी उड़ने लगी है। अब तो कम्प्यूटर में स्वयं को सिमेट लेने का मन है, जहाँ किसी हार्ड डिस्क पर हमारा व्यक्तित्व बन्द रहेगा। किसी कबाड़ी की आवश्यकता नहीं रहेगी और ना ही हमारे वारिसों को झुंझलाहट का सामना करना पड़ेगा। बस हार्ड डिस्क बदलो और आगे बढ़ चलो। कुछ नहीं समेटना है, पड़ा भी रहे तो जगह नहीं घेरेगा। इसलिए अब फाइलों का मोह नहीं, पुस्तकों का मोह नहीं। बस जाने से पहले रिक्त कर दो, स्वयं को भी और अपने निवास को भी। किसी को कठिनाई नहीं आनी चाहिए।
प्रकाशक कहते हैं कि पुस्तक निकालो, लेकिन मन कहता है कि अब और नहीं? बहुत कमा ली ईर्ष्या, बहुत आहत हो लिया मन। अब भला किसके लिए? मन मचलता है लिखने को, बस की-बोर्ड साथ दे देता है। पढ़ने के लिए भी मुठ्ठीभर आँखें मिल ही जाती हैं। विचार-विमर्श के लिए भी लोग जुट ही जाते हैं, फिर क्यों स्वयं को फाइलों के अम्बार के नीचे दबाना। अब तो स्वतंत्र बगिया में विचरने के दिन आ गए हैं। घर, परिवार, समाज सभी से स्वयं को सिमटेने के दिन आ गए हैं। समाज को देने निकले थे, लेकिन खंजर थामे हाथ हमें बिंधते चले गए और देने वालों की पंक्ति से हम दूर हो गए। वे कहने लगे कि समाज को जो चाहिए हम देंगे, तुम्हारा देय हमें मंजूर नहीं। वे ईर्ष्या के थोक व्यापारी हैं और हम प्रेम के फुटकर दानी, भला उनके सामने हमारा वजूद कहाँ? समाज भी मूक है, उसे पता ही नहीं कि कौन हमें क्या बांट रहा है, वह तो बस जो मिल रहा है, उसी को भाग्य मान रहा है। उसने भी प्रेम की चादर उखाड़ फेंकी है, उसे भी बस अब तो अर्थ ही चाहिए। इसलिए हमने अपनी पूरी शक्ति से स्वयं को कबाड़ में डालने का फैसला कर लिया है, शायद इनसे कुछ मुद्रा ही प्राप्त हो जाए? वैसे तो इनका कोई मौल नहीं है।
एक कविता की कुछ पंक्तियां जो बहुत पहले लिखी थी –
इक बन्द पिटारी खोली तो
कुछ गर्द उड़ी, कुछ सीलन थी
कुछ पन्ने उड़कर हाथ आ गए
इक बूंद आँख से तभी गिरी
बूंदों के अन्दर तैर गयी
मेरे अतीत की सारी रेखाएं
गर्द हटी तो काले अक्षर थे
दिल को छू-छूकर मुझमें समा गए।
हमारा भी यूँ पन्नों को सहेजने का मोह छूटता ही नहीं , कविता बहुत अच्छी लगी
स्मृतियों का सुखद विश्व यह, और जुटा लें कुछ पल ऐसे,
वाह्य विश्व अपने दुख तपता, चलो लुटा दें सुख जल ऐसे।
प्रवीण जी, बहुत अच्छी पंक्तियां है। कामायनी में भी कुछ ऐसी ही पंक्तियां है, अभी याद नहीं आ रहीं।
लेकिन जब गर्व का स्थान अर्थ ले ले तब आप पर गर्व करने वाला कोई नहीं होता, बस आप अकेले रह जाते हैं।…………
दुख तो होता है लेकिन इसमें भी आत्मसंतुष्टि मिलती ही है ….. आपने सच ही कहा कि हमारी धरोहर हमारे बाद दूसरों कि झुंझलाहट का कारण बने उससे पहले ही स्वयं तर्पण कर दें पर बहुत मुश्किल है न ये सब करना । एक एक शब्द मन की गहराई से लिखा है । इन गार्ड और सीलन भरे पन्नो में अपना सारा व्यक्तित्व छिपा होता है ।
संगीताजी, आभार आपका।
बहुत ही खूबसूरती से आपने व्यथा के साथ सार्थक सुझाव दे दिया है अब जगह जगह इर्ष्या के आधुनिक स्टोर खुल गये है |
ऐसा इतिहास क्यों समेटना जो किसी को तकलीफ दे या इरशा का कारण बने … जब खुशियाँ देने का सोचा है तो दर्द तो समेटना ही पढेगा … वैसे ये जरूरी नहीं की इतना संग्रह व्यर्थ ही है … किसी न किसी के काम जरूर आता है … हो सके तो नेट पे डाल देना चाहिए …
आज तो जैसे मन की बात कह दी आपने.
वाकई यह बहुत ही मुश्किल काम है, लेकिन यह भी सही है कि हमारी धरोहर हमारे बाद दूसरों कि झुंझलाहट का कारण बने उससे तो अच्छा है कि हम पहले ही स्वयं तर्पण कर दें। बहुत ही सार्थक भाव अभिव्यक्ति….
धरोहर तो धरोहर है …..और कोई ना कोई तो होगा जो उसे संभाले के रखेगा ….इतना तो विश्वास है ……मैं मन की हार में विश्वास नहीं रखती …सोचने वाले मन और लिखने वाले हाथों का साथ कभी नहीं छूटता ….बस इसी भरोसे आगे बढ़ रहें है जिंदगी में
अन्जुजी, आपकी सकारात्मक सोच से उत्साह बढ़ता है, देखे कौन मिलता है।
चाहकर भी ऐसा नही कर पाते. किसी दिन हिम्मत पडेगी तो अवश्य कर देंगे.
रामराम.
कविता अच्छी लगी.
अनुराग जी, यह कविता तो बहुत बड़ी है, बस उसकी प्रारम्भिक पंक्तियां ही यहां लिखी थी।
शुरुआत ही इतनी अच्छी है, संभव हो तो पूरी कविता भी यहाँ रखिए।
जब तक चला जाये, कर्मपथ पर चलते रहना चाहिये। कालक्रम में भुला\ दफ़ना तो वो भी दिये गये जिन्होंने विश्व विजय कर ली थी। इंसान तो बस ये सोचे कि जो कर सकते थे वो किया और उसके लिये खुद को संतुष्टि है तो फ़िर अफ़सोस क्या करना?
उम्र और अनुभव में आपसे बहुत छोटा हूँ फ़िर भी क्योंकि यह माध्यम ही शेयर करने का है तो अपने विचार बताता हूँ। कभी कभी अवसाद में होने पर कुछ वाहयातों को पढ़ लेने पर अपने मन का अवसाद दूर हो जाता है। ऐसा भान होता है कि इनसे अच्छे तो हम ही हैं:) इसे शॉक-थेरेपी मान सकते हैं। आपके लिये ऐसा ही एक मौजूँ लिंक खोजा भी तो देखा कि उसपर पहले से ही आपकी टिप्पणी है इसलिये वो लिंक दे नहीं रहा हूँ।
कविता की पंक्तियाँ वाकई बहुत अच्छी हैं।
Kvita ne dil moh liya ,Atit ki dhrodher ke lia kis ke pas vakt hoga ,sahi hai khud hi samet le .
आनंद आ गया आपकी कविता में ..
हिंदी जगत में कोई किसी को न पढता है न किसी की तारीफ़ करता है यह तो महसूस हो रहा है !
आपके अनुभव नोट कर लिए हैं !
कविता शानदार लगी
Gyan Darpan
बहुत सुंदर पंक्तियाँ । एक एक शब्द दिल मे बिंधता चला गया । क्या इसी को मोहबंध कहते हैं ?