आपका बॉस ( BOSS) कौन? इसी प्रश्न पर टिका है हमारा परिवार और माता-पिता का सम्मान। पूर्व में हमारा पिता ही हमारा बॉस होता था इसलिए पिता का सम्मान हमेशा बना रहता था। आजादी के पूर्व भारत में अधिकांश व्यक्ति व्यवसाय या कृषि कार्य करते थे। नौकरी पेशा लोग या तो राजदरबार में थे या फिर सेना में। ये नौकरीपेशा लोग भी खानदानी हुआ करते थे अर्थात पिता दरबार में मंत्री है तो पुत्र भी मंत्री ही बनेगा। पिता सेना में है तो पुत्र भी सेना में ही जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि पुत्र को अपना व्यवसाय या नौकरी विरासत से मिलती थी। उसका पिता ही उसका बॉस होता था। कहावत है कि जन्म देने वाले से पालने वाला या बड़ा करने वाला बड़ा होता है। मानव-प्रकृति के अनुसार जो हमें भरण-पोषण दे, वही हमारा सम्माननीय होता है। जन्म देने वाला कुछ वर्षों बाद प्रेम का स्थान तो पाता है लेकिन विशेष सम्मान का स्थान तो उसे ही मिलता है जो आजीवन उसकी आजीविका का प्रबंध करता है। नये युग का शब्द है – बॉस। विगत में हमारे पिता ही हमारे बॉस हुआ करते थे, इसलिए उनका सम्मान जीवनभर रहता था। लेकिन अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। पैतृक व्यवसाय धीरे-धीरे कम हो रहे हैं और परिवारों पर संकट उपस्थित हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने केरियर (career) की चिन्ता सताने लगी है। माता-पिता को भी केरियर की आँधी दिग्भ्रमित करती है। वे भी केरियर को अपनी संतान के लिए सबसे सुरक्षित सौदा मानने लगे हैं। इसीकारण देश में नौकरों की संख्या बढ़ती जा रही है और मालिकों की संख्या कम होती जा रही है।
केरियर शब्द का अर्थ है घुड़दौड़ या तेजी से आगे जाना। दुनिया में जब से विकसित और अविकसित देशों की गणना होने लगी है, तभी से इस घुड़दौड़ का चरम बिन्दु बन गया विदेश। भारत को गाँवों में बसने वाला, अविकसित, असभ्य देश प्रचारित किया गया। गँवार शब्द से भी यही भावार्थ निकलने लगा। स्वतंत्रता के बाद केरियर शब्द तेजी से प्रचलन में आया और लोग गाँव छोड़कर शहरों की ओर दौड़ लगाने लगे। पैतृक धन्धों की बली चढ़ाकर या तो स्वयं के नवीन व्यवसाय खोजे गए या फिर शहर में नौकरी की तलाश की गई। कल तक जो पिता यावत्जीवन संरक्षक बना हुआ था, रातोरात ही दोयम दर्जे का हो गया। पुत्र केरियररूपी घुड़दौड़ के कारण गाँव से निकलकर शहर आ गया था और जो पीछे छूट गया, वह स्वाभाविक रूप से पराजित व्यक्ति सिद्ध हो गया। गाँव में पिता चाहे कितने ही सम्मानित क्यों ना हो, शहरी पुत्र उन्हें पूर्व जैसा सम्मान नहीं दे पाया। क्योंकि अब वह उसका बॉस नहीं था और समझने लगा कि वह उनसे कहीं आगे निकल गया था।
कुछ समय बीता और इस घुड़दौड़ का दायरा बढ़ा, युवाओं ने नगर से महानगर की ओर दौड़ प्रारम्भ की। अब जो महानगर में रहता था, वह अधिक सम्मानित होने लगा। देखते ही देखते गाँव उजड़ने लगे और महानगरों में भीड़ अनियन्त्रित होने लगी। नौकरीपेशा लोगों की संख्या बढ़ने लगी और पैतृक-धंधो के मालिकों की संख्या घटने लगी। 20-25 वर्ष पूर्व इस घुड़दौड़ का चरम बिन्दु अमेरिका, यूरोप जैसे विकसित देश बन गए। इन देशों के बहाने विदेश शब्द ही सम्मानित हो गया। अब जो भी विदेश जा पहुँचा वह सम्मानित और जो देश में रह गया वह असम्मानित। पिता का बॉसपन और कम हो गया। केरियररूपी व्यक्तिवाद के कारण परिवार समाप्त होने लगे। माता-पिता अब बॉस नहीं रहे तो सम्मान की वस्तु भी नहीं रहे। जो भी युवा विदेश पहुँच गया वह विदेश के गुणगान गाने लगा साथ ही अपने देश को असभ्य और अविकसित कहकर भी प्रचारित करने लगा। वह पल-पल सिद्ध करने लगा कि भारत एक असभ्य और भ्रष्ट देश है। भूले से भी वह विदेश के अवगुणों का बखान नहीं करता। क्योंकि करने पर उसका स्टेटस खराब होता।
वर्तमान काल में विदेशी पर्यटन बढ़ा, मीडिया की सक्रियता भी बढ़ी। इसकारण विदेश के समाचार भी देश आने लगे। व़हाँ की कठिन जिन्दगी के दर्शन होने लगे। खान-पान से लेकर वेशभूषा तक की भिन्नता जीवन को प्रभावित करने लगी। भारत भी भौतिक दृष्टि से अविकसित के स्थान पर विकासशील देशों की गणना में सम्मिलित हो गया। महानगर तीव्रता से विकसित होने लगे और नौकरी की बहुतायत के कारण यहाँ भी अर्थ की बहुलता हो गयी। लेकिन परिवर्तन नहीं हुआ तो इस मानसिकता में कि विदेश में रहने वाला घुड़दौड़ में प्रथम आया है। विदेश में जीवन की कठिनाइयों के रहते हुए भी विदेश में बसने की ललक कम नहीं हुई। केरियर की यह दौड़ गाँव-गाँव का अंग बन गयी। गाँव से लेकर महानगरों तक युवा विदेश की ओर दौड़ने लगे। परिणामत: परिवार तेजी से टूटने लगे और पिता का बॉसपन समाप्त हो गया। पूर्व में पिता के परिचय से ही पुत्र का परिचय था लेकिन अब पिता का परिचय गौण हो गया। जब परिचय ही नहीं रहा तो सम्मान की तो बात ही नहीं रही। बहुत वर्षो पूर्व पढ़ी एक कहानी का सार स्मरण हो रहा है। एक पिता अपना गाँव छोड़कर महानगर में बेटे के पास आता है। उसका परिचय इतनाभर रहता है कि वह श्री— के पिता हैं। जहाँ गाँव में उनका स्वयं का परिचय था यहाँ वे बेकार की वस्तु बन गए थे। एक दिन पुत्र और पुत्रवधु के नौकरी पर जाने के बाद उन्होंने एक बोर्ड बनाया और बहु की लिपस्टिक से अपना नाम लिखकर घर के बाहर टांग दिया। परिचय का यह अभाव मैंने अच्छे-अच्छे लोगों के साथ देखा है। इसलिए समाज के समक्ष आज कई प्रश्न उपस्थित हो गए हैं।
1 मालिक से नौकर बनने का क्रम क्या गुलामी की ओर बढ़ते कदम हैं?
2 केरियररूपी घुड़दौड़ में घोड़े बने लोग क्या कभी पीछे मुड़कर देखेंगे कि हमने परिवाररूपी सुरक्षा कवच को कैसे छिन्न-भिन्न कर डाला है?
3 क्या माता-पिता बॉस नहीं रहने पर सम्मान के योग्य नहीं रहते?
उनका स्वयं का कोई परिचय नहीं होता?
4 क्या अपने ही देश को दोयम दर्जे का देश प्रचारित करना और उसके उन्नयन का कोई प्रयास नहीं करके विदेश में बसने का ख्वाब पालना, भावी पीढ़ी के लिए अपने देश से जुड़ने के सभी मार्गों को बन्द करने जैसा नहीं है?
5 भारत में माता-पिता की सुरक्षा अब किसका कर्तव्य रहेगी?
ऐसे कितने ही प्रश्न आज समाज के समक्ष सुलग रहे हैं। ग्रामीण जन को कुछ-कुछ समझ आने लगा है और वे अपनी संतान को शहर में क्लर्क बनाने के स्थान पर कृषि कार्य में ही लगाना अधिक पसन्द करने लगा है। यही कारण है कि भारत में शिक्षा का प्रतिशत आज भी नहीं बढ़ पा रहा है क्योंकि आमजन समझने लगा है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद संतान स्वयं को माता-पिता से उत्कृष्ट समझने लगता है। इसलिए आज शिक्षा के प्रति भी आमजन का रवैया बदलने लगा है। वह विचार करने लगा है कि ऐसी शिक्षा का क्या लाभ, जो मालिक से व्यक्ति को नौकर बना दे! हमारे समाज में यह प्रचलन में था कि यदि एक भी परिवार का सदस्य प्रबुद्ध या समृद्ध बनता है तो उसका कर्तव्य होता था कि वह अन्य सदस्यों को भी अपने जैसा ही बनाए। इसे ही परिवार कहते थे, लेकिन केरीयररूपी व्यक्तिवाद ने कहा कि पीछे मुड़कर मत देखो। जो विदेश तक दौड़ गया, वह उच्च और जो दौड़ नहीं पाया, वह निम्न हो गया। इसलिए इस व्यवस्था पर आज पुनर्विचार की आवश्यकता है। कैसे थमेंगे केरीयररूपी इस रथ के घोड़े के पहिएं? अपने ही गाँव को उन्नत बनाने वाले व्यक्ति को आदर्श कब कहा जाएगा? विदेश जाकर बसने वाले भारतीयों को हेय दृष्टि से कब देखा जाएगा? आप चिन्तन करिए, समाज को चिन्तन करने दीजिए और देश को भी चिन्तन करने के लिए बाध्य कीजिए।
आपका चिंतन जायज़ है. विकास के साथ बदलाव आना तो अवश्यम्भावी है. लेकिन अपने मात पिता का सम्मान न करना पश्चिम का दुष्प्रभाव है. हमें चाहिए की हम पश्चिम से अच्छी बातें सीखें और वहां की बुराइयों को न अपनाएं. बेशक वहां जिंदगी यहाँ के मुकाबले काफी हद तक ज्यादा आरामदायक और समृद्ध है.
आपका चिंतन जायज़ है, पूर्व में पिता के परिचय से ही पुत्र का परिचय था लेकिन अब पिता का परिचय गौण हो गया।
Kya kahun? Jab aulad pardes pahunch jaye, to kuchh bhee kar guzarti hai…pardes hee kyon? Ek gharme rahte hue bhee apnon kee zimmedaree nahee lena chahte…adhik se adhik paisa aage fenk dete hain.
क्षमाजी यह केरियर का भूत है, स्वयं को हम सभी से विशेष समझने लगते है।
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (24-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सही बात हैै,दिल को छु गई,विदेश जाकर बच्चे बड़े ,माँ बाप छोटे रहगये ,उनकी खुद की पहचान
ख़त्म होगई हैै ।मैै आजकल लोगों को सलाह देती हू कि दो कि जगह तीन बच्चे करो व एक को
कम प ढाओ जो पास रहे ,साथ रहे, इज्जत करे ओर उसे ही सम्पत्ति का हकदार बनाओ ।
प्रश्न गहरे हैं और इस स्थिति पर पहुँच गये हैं कि बिना उत्तर के बचा भी नहीं जा सकता है…उत्कृष्ट आलेख..
चिंतन जायज़ है
अच्छा लिखा है। लेकिन अच्छे पिता को अपनी संतान को सक्षम बनाना चाहिये। आगे चलकर सम्मान मिलता है या नहीं यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपने बच्चे को कैसी शिक्षा दी है।
बहुत ही सार्थक और विचारणीय लेख विहंगम दृश्य परिदृश्य .
हार काल में बदलाव आता है …. अब परिवार का अर्थ भी बदल गया है ….रिश्ते बचे ही नहीं हैं …. सब दौड़ में शामिल हैं …..और दौड़ है कि रुकती ही नहीं ….माता – पिता के प्रति ज़िम्मेदारी से आज की पीढ़ी उदासीन हो गयी है …. विचारणीय लेख
डॉक्टर दी,
बहुत साल पहले एक फिल्म में एक शिक्षक लाल-फीता शाही की गिरफ्त की गिरफ्त से तंग आकर यही कहता है खुद से कि शायद हमारी शिक्षा में ही कोई कमी रह गयी होगी!!
यदि माँ-बाप बजाये बॉस बनने के शुरू से ही यह संस्कार डालें बच्चों में तो चाहे वो कितने ही दूर क्यों न चले जाएँ, सम्मान करना नहीं भूलते.
कैरियर ही नहीं कई बार नौकरी की मजबूरी भी घर छोडने पर बाध्य कर देती है. जैसे मैं पिछले २० सालों से बाहर हूँ, घर से दूर, लेकिन प्रत्येक वर्ष हम सब भाई-बहन इकट्ठा होते हैं एक साथ घर पर. और आज भी माँ का फोन आ गया तो जब तक वो न रख दें फोन, हम ये नहीं कह सकते कि अच्छा अब रखता हूँ!!
आपकी बात हर बार की तरह सोचने पर विवश करती है और जवाब ढूँढने पर मजबूर!!
Videsh ja kar baccha itana Kama rahe hai ki parental property bhi koi mayne nahi rakhti.jab ki pahle isi property ka bahut mahatv tha.shayad ek karan yah bhi ho sakata hai parents ko boss nahi manne ka .