जीरो जीव रो बेरी रे तू मत खाये परणा जीरो , यह कहावत बचपन से आज तक सुनते आए हैं, लेकिन जीरे से इतना परहेज रखने को क्यों कहा गया समझ नहीं आया। कुछ तो ऐसा है जीरे में जिसकी जांच पडताल भारत से सात समुद्र पार अमेरिका में भी हो रही है। भारत से आप जब चलते हैं तब आप सबकी अटेची खाने-पीने के सामान से भरी होती है। हमें पता नहीं यह क्यों लगता है कि अमेरिका में यह नहीं मिलेगा या वह नहीं मिलेगा। यहां इतने भारतीय आकर बस गए हैं कि उनके स्वाद की हर चीज यहां उपलब्ध है। लेकिन हम डॉलर को कन्वर्ट कर-करके हलकान हुए जाते हैं और अपनी अटेची को भरे जाते हैं। हमें लगता है कि हम अपने लाड़लों के लिए भारत के सारे ही स्वाद अपनी अटेची में भर लें। इसी चक्कर में अटेची की साइज बढ़ती जाती है और यहां अमेरिका के कस्टम विभाग की कठिनाई भी। कस्टम वाले जाल बिछाकर बैठे रहते हैं और मछलियां फंसती रहती हैं। हम तीन वर्ष पूर्व जब अमेरिका आए थे तब हमारे पास जीरा था, किसी के खेत से आया था तो सोचा ले चले लेकिन हमें पता नहीं था कि यहां भी जीरे के वेरी बैठे हैं। कस्टम वाले ने बोलना शुरू किया कि आपके पास यह है, वह है। हम ना करते रहे और आखिर में बोला जीरा, हम ना ना करते हुए जीरे के लिए भी ना बोल बैठे। सारा सामान खुलवा लिया गया और जीेरे के पेकेट को खीर में से लाल चावल की तरह चिमटी से पकडकर बाहर निकाल लिया। पूछा कि झूठ क्यों बोला? हमें समझ नहीं आया कि क्या जवाब दें, तो हमने कहा कि मुझे पता नहीं था कि ये जीरे को हिन्दी में बोल रहे हैं। खैर जीरे को वहीं रख लिया गया और बाकि मिठाई आदि बचने से खुश हुए हम शीघ्र ही बाहर की ओर भाग लिए।
इस बार पूरी तैयारी के साथ गए थे, जीरे से परहेज रखते हुए। ऐसा काेई सामान नहीं था जिससे एतराज हो। लेकिन जब सामने वाले काे पता हो कि हिन्दुस्थानी आए हैं तो खाद्य सामग्री तो होगी ही। इस बार उनकी सूची जीरे, आम से आगे बढ़ चुकी थी। मछली को फंसाने के लिए कांटे का दाना अलग था। अचानक पूछा गया कि राइस तो नहीं है, राइस में क्या आपत्ति है? लेकिन पास नहीं था तो अधिकार से बोला कि नहीं है। अब पूछा कि दाल-चना? एकबारगी तो समझ ही नहीं आया कि क्या पूछा जा रहा है? लेकिन दोबारा बोला गया कि चना-दाल, ओह चने की दाल! हम फिर खुश कि नहीं है। जीरे का भी नम्बर आया और आम का भी। सारे ही उत्तर ना में देने से उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लगा कि मछली हाथ से निकली जा रही है। ऐसा तो हो नहीं सकता। एक बैग में खाने का सामान था बस उसे ही खोल दिया गया। बैग में हाथ जाता और एक पेकेट बाहर निकल आता, पूरा खुलता लेकिन निराशा हाथ लगती, आखिर एक-एक चीज का बारिकी से निरीक्षण करने के बाद हम मुक्त हुए और हमने राहत की सांस ली। न जाने किस चीज पर उनकी नजरों का कहर बरपा जाए! बच्चों ने बड़े चाव से कचोरी मंगाई थी, बस मन उस पर ही अटका था, लेकिन कचोरी उनके कहर से बच गयी।
अमेरिका जाओ तो सावधान! अपने साथ कम से कम सामान लेकर जाएं, उनके यहां कोई भी सीड/बीज की इजाजत नहीं है। लेकिन चने की दाल और चावल से क्यों परहेज है समझ नहीं आया। खैर सभी को अपने देश की खाद्य सुरक्षा रखने की पूरी स्वतंत्रता है, होनी भी चाहिए। भारत जैसे नहीं कि उन्होंने गैहूं के साथ कांग्रेस-घास के बीज भेज दिए और हमने पूरे भारत में इसकी खेती ही लगा ली। जल-कुम्भी भी ऐसे ही उनकी कृपा से आयी। जब हम स्वयं ऐसा कार्य करते हैं तब हम दूसरों को भी इसी शक से देखते हैं, इसलिए भाइयों और बहनों सावधान, खाने का सामान सोच समझकर ही ले जाएं। वैसे भी ऐसा कुछ नहीं है जो यहां नहीं मिलता हो। बहुत अच्छा और स्वास्थ्यवर्द्धक।
सही कहा और एकदम सही सुझाव दिया है आपने। अब न सिर्फ अमरीका बल्कि पूरी दुनिया में कहीं भी भारतीय स्वाद आसानी से मिल जाता है। क्यूंकि एक भारतीय ही ऐसे है जो पूरी दुनियाँ में लगभग हर देश में व्याप्त हैं। फिर क्या लंदन पेरिस और क्या अमरीका 🙂
sunder alekh
पल्लवी जी आभार। बहुत दिनों बाद ब्लाग पर आयी हूं, इसलिए आपको भी पढ़ नहीं पायी हूं, लेकिन अब जल्दी ही स्थिति पूर्ववत हो जाएगी।
जी, अमेरिका ही नहीं कनाडा और दूसरे भी कई देशों में ऐसे ही नियम हैं | अब तो सभी तरह का सामान वहां भी मिल ही जता है ……
भारतीय मसाले अपनी विशेषताओं के कारण अब अमेरिका में खूब प्रयोग किये जाने लगे है.एक दिन तो एक बच्ची के लंच की उसकी साथियों ने सराहना की तो उसने कहा कि उसके पापा ने बटर से गी (घी)बना कर उसमें भूना है.
सुन कर बहुत मज़ा आया .
एक बात और यहाँ (केलिफ़ोर्निया में तो )लगभग हर मौसम में बड़े-बड़े कच्चे आम मिलते हैं ,उनका अचार बहुत स्वादिष्ट होता है और बिना प्रिज़रवेटिव डाले खूब चलता है. सारे मसाले भी यहीं के.
ha.ha.ha. dhyan rakhna padega.
आपने रोचक तरीके से उपयोगी जानकारी दी है
रोचक संस्मरण!… अब समझ आया ब्लॉग पर देर से आने का कारण विदेश प्रवास था। आशा जल्दी ही और पोस्ट पढ़ने को मिलेंगी।
मैडम जीरे की जिस कहावत का जिक्र किया है वह गीत है;
गीत के सही बोल हैं
जीरो जीव रो बेरी रे, मत बावे परण्या जीरो
जब हम स्वयं ऐसा कार्य करते हैं तब हम दूसरों को भी इसी शक से देखते हैं – सहमत।
अमेरिका में भारतीयों द्वारा चलाए जा रहे मार्केट में भारतीय सामग्री ही नहीं,भारतीय माहैल भी मिलेगा ।
आपका यह जीरा-पुराण पढ़ते हुए मुझे भी अपना एक ऐसा ही अनुभव याद आ गया. बरसों पहले, जब हम लोग पहली दफा अमरीका गए, हमें भी ऐसी ही जांच-पड़ताल से गुज़रना पड़ा. उस दिन ड्यूटी पर कोई लम्ब तड़ंग बांग्लादेशी था. हमारा सामान खुलवाया गया. वो खाद्य सामग्री के एक-एक पैकेट को हाथ में लेकर देखता जाता और हमसे सवाल करता जाता. संतुष्ट होने पर उस पैकेट को वापस रख देता. बड़े यांत्रिक ढंग से सब चल रहा था. उसने एक पैकेट हाथ में लिया और साथ ही साथ हमसे पूछा – जीरा तो नहीं लाए हैं? हमने भी पिछले सारे जवाबों की तरह गर्दन हिलाते हुए मना किया. उसने उसी निस्संग भाव से उस पैकेट को अटैची में रखा, हमें अटैची बन्द कर पड़ताल से मुक्त हो जाने का संकेत दिया और खुद अगले यात्री की पड़ताल के लिए प्रस्तुत हो गया. मज़े की बात यह कि सवाल पूछते हुए उसके हाथ में जो पैकेट था वो जीरे का ही था!
दुर्गाप्रसाद जी, हमारे साथ भी यही हआ था लेकिन पिछली बार उसने जीरे का पेकेट पकड़ लिया था। हमने यह कहकर जान छुड़ायी थी कि हम समझ नहीं पाए कि आप हिन्दी में जीरा बोल रहे हैं।
सही कहा कुछ ना ले जाने में ही भलाई है वैसे भी आजकल सब जगह सब मिल जाता है।
Jeere ki kheti me Bahut savdhani rakhani Padati he isliye nayika pati se jeera nahi bohane ke liye kahate he.