हम सभी के बचपन की यादों में नानी का घर है। जैसे ही गर्मियों की शुरुआत हुई, स्कूल-कॉलेज बन्द हुए और चल पड़े नानी के घर। एक महिना या दो महिना, बस सारी ही नानियों के घर आबाद रहते थे। मामा के बच्चे, मौसी के बच्चे सभी मिलकर एक-दो महिना जो धूमधड़ाका करते थे वह यादें किसी के भी जेहन से जाती नहीं। भरी गर्मी में ना पंखे थे और ना ही कूलर, एसी क्या होता है तब तक नाम भी नहीं पैदा हुआ था। बराण्डा, पेड़ की छांव ढूंढी जाती थी, दिन बिताने के लिए। खाने-पीने की तो किट-किट ही नहीं थी। जो भी नानी-मामी ने बना दिया, सारे बच्चों ने मिलकर- लूट-लाटकर खा लिया। जब छोटे थे तब हाथ में गुट्टे होते थे या फिर कंचे। शाम के समय गिल्ली-डंडा भी खूब चलता था। लेकिन जब कुछ सयाने हुए तो ताश के पत्ते हाथ में आ गए। हमारे मामा के गाँव में एक दुकान थी, उस दुकान पर कमरे बने थे। हम सब छोटे और बड़े वहाँ बैठकर खूब ताश खेला करते थे। शाम होती तो खेत पर निकल जाते, वहां चने के साग को तोड़कर उसमें नमक-मिर्च मिलाकर खाने का आनन्द ही कुछ और था। दिन में ठण्डी रोटी और गोंदे का अचार, वाह क्या पकवान था! सारे ही बच्चे आत्मीयता से भरे होते थे। लड़ते भी थे लेकिन फिर वैसे ही हो जाते थे। रात को छत पर सभी के बिस्तर लगते और फिर धमाचौकड़ी।
कमोबेश सभी के जीवन में ऐसा ही कुछ था। लेकिन जैसे ही आधुनिकता का चलन हुआ, कुछ बड़े लोग घूमने जाने की बात करने लगे। पहाड़ों की ओर जाने का चलन शुरू हुआ। गाँव से नानी का घर भी उठकर शहर आ गया। पढ़ाई सिर पर चढ़ गयी। प्रतियोगी परीक्षाओं ने सारी ही छुट्टियों को लील लिया। धीरे-धीरे नानी का घर सिकुड़ता चला गया। मेरी नवासी अभी चार साल की है, छुट्टियां शुरू होते ही उसकी पेंटिंग की क्लास शुरू हो गयी। ऐसा ही हाल सारे बच्चों का है। कोई नृत्य की कक्षा में जा रहा है तो कोई स्केटिंग सीख रहा है। आदि आदि। मामा, मौसी, बुआ आदि के बच्चों का मिलना अब नहीं है। है तो बस फेसबुक है। अब उन छुट्टियों का इन्तजार भी समाप्त हो गया है। यदि कुछ समय मिलता है तो घूमने जाने को प्राथमिकता दी जाती है। विदेश घूमने सबसे ज्यादा पसन्द किया जा रहा है। जो विदेश नहीं जा सकते वे पहाड़ों पर जा रहे हैं। इसलिए सारे ही पर्यटक स्थल आबाद हो गए हैं और नानी का घर? बेचारा सूना सा बाट जोहता है, नन्हीं किलकारी का। अब वह गीत भी नहीं गाया जाता – नानी के घर जाऊँगा, मोटा ताजा होकर आऊँगा।
हम सब पड़ताल करे कि कितना नानी का घर छूटा है और कितना सैर-सपाटा बढ़ा है?
आपने पुरानी यादे ताजा कर दी ……सुन्दर
लगता है हम लोगों के जमाने का सबका बचपन करीब करीब एक सा ही बीता है …. आज कल बच्चे मामा मौसी बुआ चाचा ताऊ के बच्चों से मिल भी नहीं पाते ….. वो अपनापन ही नहीं मिलता देखने को …मिले भी कहाँ से जब साथ रहना ही नहीं होता । अब तो सैर सपाटा भी स्टेटस सिंबल बन गया है ।
ननिहाल की यादें वास्तव में ही सदाबहार रहती हैं.
.
नानी के घर न जाना और सैर सपाटा करना एक आम सी बात है पर रिश्तों से जुड़ा बहुत बदल रहा है …सच में अच्छी पड़ताल की आपने ….
नानी का घर और और सैर सपाटा होना चाहिए …
यहाँ नहीं तो और कहाँ ….
sach kaha aapne, ab sirf yaaden hi rah gai hain
sach he ye yadee hi rah gai he. Per abhi puri tarah khatm bhi nahi hua. khuch baki he.
नानी के घर के साथ ही अपने दादी के घर में भी बुआ के बच्चो के आ जाने से जो धमा चौकड़ी होती थी की बड़ो का सर दर्द होता था , पर घुमाने फिरने का अपना मजा है दोनों का अपना महत्व है |
Mera Bachpan bhi apke jaisa hi thha.per ab sahi kaha apne dadi nani ke ghar sune pare hai un ke ghar ane ko chhutiya hi nahi hai .per hill station Jane ko holidays hai .
सच कह रही हैं आप. नानी का घर सिकुड़ गया है. 🙁
सबकुछ छूट गया है जी। कहां वो पेड़ की छांव..कहां मामा का वो प्यार….वैसे भी नानी का घर अब तो शहरों में ही है। पहाड़ों पर जाओ तो थोड़ा बदलाव होता है रुटिन लाइफ से..पर वही भीड़….पहले जाते थे तो कम से कम उस जगह को भी अपना समझ कर रहते थे..पर अब तो हर जगह कूड़े का ढेर शहरों की ही याद दिलाता है।
आजकल नानी के घर गर्मियों की छुट्टी में नहीं लेकिन किसी भी समय जाया जा सकता है। उस पर फोन और मोबाइल से दूरियां ख़त्म ही हो गई हैं। अक्सर नानी भी आस पास ही रहती होती हैं।
आर्थिक संपन्नता और समर कोर्सेस के लफ़डों ने नानी का घर जरूर सूना किया है जो बच्चों को सामाजिक और रिश्तों को समझने में कमजोर बनायेगा.
हम तो भाग्यशाली है कि हमारी बेटी नातिन अभी तो हर गर्मी में दस पंद्रह दिन के लिये आ ही जाती हैं, आगे की भगवान जानें.
रामराम.
नानी के घर या मामा घर आना मेरे लिए सदा मज़ेदार रहा ९ मामा और दो भांजों में अकेला मेरा रहना बहुत सुखद किन्तु घर और ननिहाल परनानी पिलीदाई से ताम्बे का पैसा पाना और मुर्रा के सोलह लड्डू मुगलानी के लड्डू बचपन जी उठा ….
हमारे ज़माने में घर बड़े-बड़े होते थे, ऊपर खुली छत भी बिना पंखों ,फ़्रिज वगैरा के प्राकृतिक सुविधाएँ थीं .अब सब बदल गया ,उतने भाई बहन भी कहाँ इकट्ठा हो पाते हैं .जीवन पद्धति एकदम बदली हुई .पर हमें तो वह-सब बहुत अच्छा लगता था.
इसी बहाने सब मिल बैठते हैं, अब तो सब अपने में ही व्यस्त हैं।
भारत की जनसंख्या को देखते हुए,व विभिन्न जातियों, आर्थिक ,सामाजिक गठन को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि इतना निराश होने कि ज़रूरत है,अभी भी गाँव क़स्बों में वही मस्ती ,नानी के घर आना जाना व सैर सपाटा चलता है ।कुछ रोज़ पहले एक महिला तो मेरे पास इसलिये बीमार होकर आगई कि उसके पोते पोती नाना नानी के चले गये है और उसका मन नहीं लग रहा है वह टेंशन में थी,कह रही थी कि बच्चे दूर चले गये ,मेरा अकेले मन नहीं लगरहा है,मैंने पूछा आपके बच्चे कंहा रहते है?वह रोने लगी ,उसका बेटा साथ ही था,हंस कर बोला ,हम सब साथ ही रहते है बस अभी छुट्टियों में नाना नानी के चले गये है तब से माँ टेंशन में है ।महिला रोते रोते बोली सारा दिन शैतानी करते थे मैं सारा दिन उनको डाँटती थी ,अब सब सूना हो गया है ,मैं उन्हे जल्दी बुला लूँगी ।उसका प्यार देख कर मैं अभिभूत हो गई ।और हमारा हाल ——-idea phone के ad जैसा ,माँ का फ़ोन तो बजता ही नहीं ?फोन पर ही कान लगे रहते है ।
किरण, तुमने बड़ा अच्छा प्रसंग बताया। महिलाएं ऐसी ही होती है, दो दिन बच्चे दूर चले जाए, बस उनका रोना शुरू हो जाता है। वैसे गाँव-कस्बों में अभी भी बच्चे ननिहाल जाते हैं, यह सच है।
सच है ,अब तो गरमी की छुट्टियों में पहले से ही ढेर सारे क्लासेज़ ज्वाइन करने की तैयारी हो जाती है. पहले माताएं भी ज्यादातर गृहणी ही होती थीं, जो बच्चों को लेकर लम्बे समय तक मायके में रह आती थीं, अब ऑफिस जाने वाली महिलाओं को इतनी लम्बी छुट्टी नहीं मिल पाती, इसलिए बच्चे विभिन्न क्लासों में ही वैकेशन बिताते हैं और हफ्ते भर के लिए कहीं घूम आते हैं.
रश्मिजी, यह सच है कि आजकल नौकरी के कारण ननिहाल की छुट्टियों का आनन्द नहीं ले पाते। हम भी नहीं ले पाए थे।
Mausi, so so true….
I have to book the tickets now….
ये वैकेशन बहुत जरूरी था(आदमियों के लिये भी) 🙂
संजय जी, यहां भी आपने पुरुषों की आजादी की बात कर ही ली। सही है इन छुट्टियों में पुरुषों को ढाबे में खाना खाते हुए देखा जा सकता है।
.रोचक प्रस्तुति .मन को छू गयी .आभार . कायरता की ओर बढ़ रहा आदमी ..
वैसे तो आज के दौर में आना जाना दूसरों के घर चाहे नानी हो या दादी या चाहा मौसी का घर …. बहुत ही कम हो गया है … जाते हैं तो भी फोर्मल से रहते हैं बच्चे भी …
दौर बदल गया है … एकाकी हो रहे हैं सब …
सच ही लिखा है आपने नानी के घर को पढ़ाई के बोझ और अन्य प्रतियोगिताओं ने निगल लिया। और दूसरा अब एक एक बच्चा होने के कारण चाचा ताऊ बुआ मौसी वाले रिश्ते भी कम होते जा रहें है तो अब कई परिवारों में बच्चों को नानी के घर जाने पर भी वो आनंद ही नहीं आता जो पहले सनयुंक्त परिवार के चलते आया करता था।
akhir nani ka ghar ab kab abbad hoga
समय के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है. केवल यादें ही बाक़ी हैं और नानी के सूने घर अब केवल इंतजार करते रह जाते हैं…बहुत सुन्दर आलेख..