अपने भरे-पूरे घर पर नजर डालती हूँ तो घर का प्रत्येक कक्ष और प्रत्येक कोना किसी न किसी सामान से भरा दिखायी देता है। अल्मारियां या तो कपड़ों से लैस हैं या फिर पुस्तकों से। शो-केस में मोमेण्टोज की बाढ़ आयी हुई है और जितने बाहर है उतने ही किसी बखारी में। बाजार जाने पर नित नयी वस्तुएं ललचाती भी रहती हैं और कभी-कभी आवश्यक है, सोचकर खरीद भी ली जाती हैं। वार-त्योहार पर गिफ्ट का अम्बार भी लग जाता है, अल्मारी उन्हें रखने से भी मना कर देती है। एक कहानी पढ़ी थी, अमेरिका की किसी लेखिका की थी। उसे डॉक्टर केवल दो-तीन दिन का समय देते हैं, वह समझ नहीं पाती कि इस संसार का निस्तारण केवल दो-तीन दिन में कैसे करूँ? कई बार तो भगवान समय भी नहीं देता। मन में कई बार विचार आता है कि इस सारे वैभव का भविष्य क्या है?
अभी अचानक ही 27 मई को पुणे जाना पड़ा। बिटिया ने नयी नौकरी जोइन की थी। ऑफिस घर से बहुत दूर था, तो निश्चय किया गया कि मकान ही बदल लिया जाए। घर का मकान बदलने में तकलीफ तो होती है लेकिन महानगरों में सबसे बड़ी चीज है समय। आनन-फानन में नया मकान देख लिया और शिफ्ट होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी। बिटिया 22 तारीख तक मेरे पास ही थी और उसके सामान की सूची समाप्त नहीं हो रही थी। गनीमत थी कि उसे फ्लाइट से वापस जाना था तो सामान की सूची बस कागज तक ही इस आशा में सीमित रह गयी कि जब भी मैं पुणे आऊँगी, अपने साथ सामान लेकर आऊँगी। लेकिन जैसे ही नौकरी का संदेशा आया कि 28 को ही जोइन करना है तो मुझे भी 27 को ही फ्लाइट लेकर जाना पड़ा और सामान की बात बन्द हो गयी।
घर शिफ्ट करने के लिए मूवर्स एण्ड पेकर्स वालों को बुलाया गया और हम सब भी सामान को समेटने में लग गए। जैसे-जैसे अल्मारियां खुलती गयी वैसे-वैसे सामान का अम्बार लगता गया। जिस सामान की मुझसे मांग हो रही थी वो सामान भी वहाँ पहले से ही विराजमान था। भला हो मूवर्स एण्ड पेकर्स वालों का, नहीं तो शायद आम इंसान तो कई दिन में भी घर शिफ्ट ना कर सके। तब मुझे ध्यान आया कि हमने भी मकान बदले थे। उन दिनों में मूवर्स एण्ड पेकर्स वाली सुविधा भी नहीं थी। जब पहली बार मकान बदला था तब इतना ही सामान था जितना हमने आराम से समेट लिया था। दूसरी बार कुछ ज्यादा हुआ लेकिन तब भी ऐसी कोई परेशानी नहीं आयी। लेकिन आज, यदि कोई मुझे बोले की घर शिफ्ट करना है, तब शायद कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।
मेरे लिखने का अर्थ केवल इतना सा ही है कि वर्तमान में हम सामान खरीदते जा रहे हैं और घर को गोदाम बनाते जा रहे हैं। हमारे पास ऐसा भी बहुत सा सामान है जो शायद ही कभी काम आता हो। लेकिन फिर भी खरीददारी थमती नहीं। अभी एक सप्ताह पूर्व ही मेरे निकट के रिश्तेदार हृदयाघात से गुजर गए। अभी 45 भी पार नहीं हुए थे और पलक झपकते ही सबकुछ छोड़कर चले गए। बच्चे छोटे है और उनका धंधा बहुत फैला हुआ है। रह रहकर यही ख्याल आ रहा है कि अब इस साम्राज्य को कौन देखेगा? पत्नी ने भी कभी सोचा नहीं था कि मुझे यह दिन देखना पड़ेगा। तभी से मन विचलित है कि जब एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति पलक झपकते ही चले गया तब हमारा भी क्या भरोसा। हमारे जाने के बाद इस संग्रह को कौन पसन्द करेगा? वैसे मैंने अपने आपको बहुत नियन्त्रण में किया हुआ है लेकिन फिर भी घर सामान से भरता ही जाता है। हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है कि परिग्रह मत करो। इस धरती पर केवल मनुष्य ही है जो संग्रह करता है, दूसरा कोई नहीं। तो हम क्यों अनावश्यक संग्रह कर रहे हैं? बाजार हमें आमन्त्रित करता है और हम उसके बहकावे में आ जाते हैं। कभी लगता है कि पैसा देकर अपने घर को भरने के लिए कचरा खरीद लाते हैं। गिफ्ट का भी इतना प्रचलन हो गया है कि गिफ्ट से ही अल्मारी ही नहीं कमरे भी भरने लगे हैं। मुझे तो लगता है कि अपने संग्रह पर कहीं विराम अवश्य देना चाहिए, नहीं तो यह हमारे लिए सुखद नहीं होकर दुखद हो जाएगा। हमारी मृत्यु के बाद जब बच्चे सामान को देखेंगे तब वे रोना भूल जाएंगे और यही कहेंगे कि अब इस कबाड़े का क्या करें? क्यों एकत्र कर रखी हैं इतनी पुस्तकें? क्यों एकत्र कर रखी है इतनी क्राकरी? क्यों एकत्र कर रखी हैं इतनी गिफ्ट? आदि आदि। यह वैभव तब उनको चैन से रोने भी नहीं देगा। इसलिए यदि चाहते हो कि कोई आपके लिए भी आँसू बहाए तो ना सामान का ज्यादा संग्रह करो और ना ही व्यापार का ज्यादा बिखराव करो। मैंने जब इस अकाल मृत्यु के बारे में सुना तो मैं मृतक की पत्नी को यही धैर्य बंधाती रही कि अब आँसुओं की नहीं हिम्मत की आवश्यकता है। उसे अकेले में भी समझाती रही कि रोना तो जिन्दगी भरका है लेकिन अभी होश में भी रहना है नहीं तो इस व्यवसाय को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए कोई आपके लिए रोये तो उसे संग्रह को समेटने की चिन्ता से मुक्त रखिए।
हम्म सामान खरीदने में ध्यान रखूंगी अब:)
बहुत सही सलाह. हम मोह और माया जुटते रहते हैं. सुन्दर आलेख
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा शुक्रवारीय के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
हमारी मृत्यु के बाद जब बच्चे सामान को देखेंगे तब वे रोना भूल जाएंगे और यही कहेंगे कि अब इस कबाड़े का क्या करें? ….यह वैभव तब उनको चैन से रोने भी नहीं देगा। इसलिए यदि चाहते हो कि कोई आपके लिए भी आँसू बहाए तो ना सामान का ज्यादा संग्रह करो और ना ही व्यापार का ज्यादा बिखराव करो।
अजीत जी ,
अपने अनुभव से आपने बहुत सार्थक सीख दे डाली है …. मैं भी कभी कभी घर में रखे सामान को देख कर यही सोचती हूँ ….. कि मेरी साड़ियाँ कौन पहनेगा ? क्यों न मैं खुद ही किसी वृद्धाश्रम में ही दे आऊँ ….. बच्चों को शायद अलमारियों में रखा सामान बेकार का कबाड़ ही लगेगा … क्यों सहेजा है इसे मैंने … कुछ चीज़ें तो ऐंटीक पीस बन कर रह गईं हैं …. न तो फेंकी जाती हैं और न ही रखने का मन होता है ….. अब वी सी आर जिसे बहुत शौक से कभी 17 हज़ार में खरीदा था आज कोई 50 रुपए में भी लेने को तैयार नहीं है क्या करूँ उसका ? कोई उपाय हो तो बताइये ….. विदेशों में कम से कम कचरा पेटी में ही डाल दिया जाता है …. यहाँ डाला तो लोग समझेंगे कि कहीं कोई बम तो नहीं रख दिया :):)
संगीता जी, इलेक्ट्रोनिक कचरे को वापस लेना कम्पनियों का कर्तव्य है इसलिए आजकल कुछ कम्पनियों ने तो अपने ट्रेशकेन रखे हैं। कुछ सामाजिक संस्थाएं भी यह कार्य करती हैं।
डा० अजीत जी, आजकल ब्लॉगजगत पर भ्रमण बहुत सीमित है लेकिन
आपके लेख की हेडिंग ने मुझे बाध्य कर दिया था कि आपकी पोस्ट पर जाऊं ! पढ़कर एक गीत याद आया ; ” बहुत दिया देने वाले ने तुझको , आँचल ही न समाये तो क्या कीजे “……….!
गोदियाल जी, बहुत दिनों बाद आपकी टिप्पणी पढने को मिली, आभार।
एकदम खरी खरी बात लिखी आपने .. सच कितना कुछ जोड़-तोड़ करते हैं हम अपने और अपनों के लिए लेकिन अंत में सब यही धरा रह जाता है …..
बहुत अच्छी अनुभव से भरी जीवन सीख देती प्रस्तुति
..हम भी १५-२० दिन से घर से बाहर थे ..दिल्ली ससुराल ..बहुत दिन से आज थोडा समय मिला तो सोचा कुछ ब्लॉग देख लूँ ..
सादर
आजकल फेंग शुई के प्रचलन ने एक अच्छी शिक्षा दी है कि..अनावश्यक चीज़ें एकत्रित ना करें …इस से घर में घूमने वाली हवा…(चीनी भाषा में ‘ची ;)हर जगह नहीं पहुँच पाती…इसलिए घर को क्लटर फ्री रखें. बहुत लोग इसका पालन कर रहे हैं..और खुले हाथों से जो चीज़ें साल भर काम नहीं आयीं..उसे दूसरों को दे डालते हैं…
हम तो मुंबई में रहते हैं…जगह की वैसे ही कमी….इसलिए जितना हो सके घर को क्लटर फ्री रखने की सोचते है.
तृष्णा और दिखावे के लिए अक्सर लोग यह सब करते हैं।
जब मौक़ा लगे, जो चीज़ निकाली जा सकती हो निकाल देनी चाहिए.
कभी कभी देखता हूँ तो बिलकुल ऐसा ही महसूस होता है . गिफ्ट लेना देना तो बहुत पहले छोड़ दिया . आजकल सामान निकाल ज्यादा रहे हैं , ला कम रहे हैं . सोचता हूँ , क्या विरक्ति की भावना मन में आने लगी है !
सार्थक चिंतन .
डॉक्टर साहब, मेडीकल रिप्रेजेन्टेटिव जो कचरा देकर जाते हैं आखिर उनका क्या करें? कितनी लोगों को बांटें और फिर उन चीजों के लिए कोई पात्र भी तो चाहिए।
कितना सटीक विश्लेषण किया आपने दो अलग अलग बातों का पहला घर शिफ्ट करना …बाप रे बहुत हिम्मत का काम है शुक्र है हम हर साल फालतू सामान निकल बाहर करते है …
दूसरा विषय सच में सीख देता है, मेरी जानने वाली आंटी ने साड़ियों का ढेर लगा रखा था के अपनी होने वाली बहु को देंगी ..खुद भी मामूली सा पहनावा रखती थी …हम मज़ाक करते आंटी जीते जी पहन लो मरने के बाद किसने देखा ….उनके बाद उनकी बहु आई जो साडी सूट से हाँथ भर दूर रहती है …और आंटी का collection उसको पुराना लगता है
लोगों का क्या है रस्म
निभाकर निकल पड़े
मौत आएगी मिलन
को , हमें ही पता नहीं
कब जायेंगे घर छोड़ कर, सोंचा नहीं सनम ,
मरने का समय तय है, पर हमको पता नहीं !
कब्बाड़ एकत्र रखना भी एक कला है। परंपरा है। धरोहर को समेट के रखने के समान।
वरना आज की पीढ़ी तो जीती जी लोगों को कब्बाड़ बना देते हैं।
अपने लिए कूड़ा तो इकठ्ठा नहीं करती मजबूरी है मुंबई के कबूतर के दड़बे की तरह घर जो होते है, हा बेटी के लिए जरुर कई सामान हो जाते है किन्तु वो भी उसके लिए बेकार होने पर बाहर दे देते है | किन्तु ये कह सकती हूं की फ़िलहाल संग्रह करने की आदत से छुटकारा नहीं पाने वाली हूं |
समय समय पर चीज़ों को खंगालना और संग्रह करने से पहले उनके उपयोग की सोचने की सोच काम आ सकती है शायद …..आजकल अधिकतर घरों का यही हाल है ….
बहुत ही सार्थक चिंतन वैसे मैं आपकी मूवर्स एंड पेकर्स वाली बात से पूर्णतः सहमत हूँ सच आज के जमाने में यदि वह ना हो तो घर शिफ्ट करना किसी इम्तेहान से कम नहीं जाने कितने दिन लग जाएँ एक व्यक्ति को अपना घर समेटने में लेकिन मेरी मांससिकता जाने क्यूँ ऐसी है की मुझे ज्यादा तर पुरानी चीजों से प्यार हो जाता है एक अलग सा लगावा फिर चाहे वो इस्तेमाल हो रही हो या केवल घर में जगह घेरे हों मुझे उन चीज़ों को फेंका नहीं जाता और दान करने की सोचो तो भी लगता है पता नहीं सामने वाला इस चीज़ का उपयोग किस तरह से करेगा इस चक्कर में दान भी नहीं दिया जाता मुझ से, मैं एक बार नयी चीज़ खरीद कर सामने वाले को बड़ी आसानी से दे सकती हूँ। मगर किसी को अपनी पुरानी चीज़ देने में मुझे बहुत दर्द होता है। क्यूंकि मुझे हर चीज़ से बहुत लगाव हो जाता है।
रोने वाले तो बहाना ढूंढ ही लेंगे, फिर इस बात पर रोयेंगे कि ‘कुछ छोड़ कर नहीं गए’ 🙂
अपरिग्रह एक बहुत बड़ा गुण है, अगर साधा जा सके|
सलिल जी, उनको नकदी और सोने से मतलब होता है। हा हाहा हा।
हमारा तो स्थानान्तरण होता रहता है, हमें सामान का भान रहता है..
हमने यह बात पहले ही गाँठ बाँध ली , काफ़ी हल्के हो गये हैं अब !
विचारणीय आलेख्………सच मे सोच समझ कर ही संग्रह करना चाहिये।
यदि जीवन में लें दें न तो भी ज़िन्दगी का क्या मायने न जानें कल इस संग्रह का क्या मोल निकल जाये यदि ऐसी ही सोच है तो लेख भी तो संग्रह की श्रेणी में है . परिभाषाएं बदल जाती हैं ..बदलते रहती हैं ….
मूवर्स एंड पेकर्स वाली बात से पूर्णतः सहमत हूँ
सच कहा है आपोने .. हम इसी मोह माया में पड़े रहते हैं … विदेश में रहते हुवे मैंने जाना है की हिन्दुस्तानी ही होते हैं जो सबसे ज्यादा घर की चीजों से मोह करते हैं … सहेजते रहते हैं … पुरानी चीज नहीं फैंकते .. विदेशी नई चीज लाते हैं तो पुरानी अक्सर निकाल देते हैं … जी किसी के काम आ जाती है …
मुझे तो इतना सारा सामान देखकर सारा का सारा कबाड़ लगने लगता है, सच ही है कहीं हमारे जाने के बाद कोई इसे ही देखकर ना रोये इससे पहले कुछ करना होगा… विचारणीय आलेख के लिए आभार
आप सभी ने अपने अमूल्य विचार देकर इस पोस्ट को सार्थक बनाया इसके लिए आभारी हूं। आज ही मैंने एक अन्य पोस्ट दी है, उसपर भी अपने विचार व्यक्त कर पोस्ट को सार्थक बनाने की पहल करें।
हमारे घर एक सामान्य नियम है हर दीपावली में
5 वर्ष से कोई सामान काम ना आया हो तो बेचने की कोशिश
नहीं बिका तो किसी ज़रूरतमंद को दान
पात्र या समय नहीं तो फिर कबाड़ी की शरण 🙂