अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

2 जी के जीवन को 4 जी के युग में चलाने की मुहीम

Written By: AjitGupta - Jul• 07•15

लोग कहते हैं जीवो, हमारा मन भी कहता है कि जिन्‍दगी ना मिलेगी दोबारा। लेकिन दुनिया कदम कदम पर आपको बता देती है कि आपका उपयोग समाप्‍त हो गया है, अब देख लीजिए आपको जीकर क्‍या करना है? किसी पेकेट पर लिखे एक्‍सपायरी डेट के समान हमारा जीवन भी हो गया है। डेट निकलने के बाद आप उपयोगी हो सकते हैं, आप पूरी तरह से खारिज नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया कहती है कि हम तो खारिज करते हैं। पूर्व में व्‍यक्ति खारिज होने के पहले ही वास्‍तव में मर-खप जाता था, घर-परिवार वाले रोना-धोना मचा लेते थे। हाय राम अभी तो बेटे-बेटी का विवाह ही नहीं किया था, अब कौन करेगा? या विवाह हो भी जाता था तो रोने में कहा जाता था कि बेचारी बहु ने अभी सुख के चार साल भी नहीं बिताए थे कि परिवार की जिम्‍मेदारी आन पड़ी। लेकिन अब रोने के स्‍थान पर भजन आदि चलने लगे हैं। परिवार वाले रोने के फार्मूले ढूंढते हैं, लेकिन उनको कुछ नहीं मिलता, क्‍योंकि आजकल तो 90 पार करना तो आम सी बात हो गयी है। जब कुछ नहीं मिलता तो कहा जाता है कि भरा-पूरा परिवार छोड़कर गए हैं, सब भगवान का नाम लो और विदा करो।

एक बार रक्‍तदान का शिविर लगा हुआ था, सोचा कि हम भी रक्‍तदान करके कुछ पुण्‍य ही अपने हिस्‍से कर लें। लेकिन वहाँ भी हम खारिज कर दिये गए। कहाँ की साठ साल के बाद किसी का रक्‍त नहीं लिया जाता, ऐसा ना हो कि आपका एक बोतल लें और आपको दो बोतल चढ़ाना पड़ जाये! मतलब अब हम रक्‍त देने के लायक भी नहीं रहे। हमने सोचा कि चलो नेत्रदान तो कर ही जाएंगे। हमने कहा कि फार्म भरा लो, नेत्रदान कराने वालों ने हमारा मुआयना किया और बोले कि रहने ही दो। हमने पूछा कि क्‍यों? वे बोले की अस्‍सी की उम्र के बाद नेत्र नहीं लिए जाते उनका उपयोग भी समाप्‍त हो जाता है। अब आपको देखकर लगता है कि इतना तो खींच ही लोगे तो काहे फार्म भराना। हम अपने खारिज होते जा रहे जीवन में जीने का आधार ढूंढने लगे। एक दिन एक संस्‍था वाले आए और बताने लगे कि हम ऐसे घरों की तलाश कर रहे हैं जहाँ अनाथ बच्‍चों को माता-पिता मिल जाएं। माता-पिता को बच्‍चे मिलेंगे और बच्‍चों को माता-पिता। हम बड़े खुश हुए, चलो यह संस्‍था तो हमारे लायक है। कुछ ही देर में वहाँ भी हमारे अरमान धरे के धरे रह गए। वे बोले की साठ साल की उम्र के माता-पिता को हम बच्‍चे नहीं देते। लो कर लो बात। अरे तो फिर क्‍या करें?

हमारे देखते ही देखते 4 जी आ गया। 2 जी आया और तुरन्‍त ही 3 जी आ गया और अब 4 जी भी आने ही वाला है। मैं अब आपसे कहूं कि आप 2 जी ले लें, आप लेंगे क्‍या? 2 जी छोड़ो आप अब 3 जी भी नहीं लेंगे। यही हाल हमारा है, हम तो अब 2 जी याने सेकेण्‍ड जेनरेशन हैं, हमारे बाद तो 3 और 4 जी आ गया है। हमारी जैसी धीमी गति के साथ भला कौन चलना चाहेगा? हमारे बच्‍चे 3 जी वाले हैं और पोते-पोती 4 जी वाले। धीरे चलना, धीरे सुनना, धीरे समझना सभी कुछ तो 2 जी की स्‍पीड से है। बच्‍चे कहते हैं कि आप रहने दो, आपसे नहीं होगा। हम कभी पुलककर कह भी दें कि हम भी तुम्‍हारे साथ चलते हैं तो त्‍वरित जवाब आता है कि आप थक जाओगे आप घर पर ही रहो। यदि लोक लाज के तहत हम को ले जाया भी गया तो हम अभी दो कदम भी नहीं चले थे और 4 जी की स्‍पीड वाला हमारा पोता तो दूसरे छोर पर पहुँच भी गया, अब? 3 जी वाला बेटा 2 जी को देखे या फिर 4 जी के साथ दौड़ लगाए!

जीवन हमें पल-पल खारिज कर रहा है और दुनिया हौंसला दे रही है कि नहीं अभी तो क्‍या देखा है, जीवन तो अभी है देखने के लिए। लोग कहने लगे कि अरे सारा जीवन खट लिये अब दुनिया देखो। सच में जब दुनिया देखने निकले तो पता लगा कि भारत के सारे ही खारिज होने जा रहे लोग पर्यटक बने दुनिया को देख रहे हैं। एक प्रश्‍न मन में आता है कि क्‍या अमेरिका सहित सारे देशों का स्‍वर्ग/नरक अलग होता है या सारी दुनिया का एक ही होता है। यदि अलग होता हो तब तो घूम-घूमकर देख ले कि कौन सा अपने लिए मुफीद रहेगा। लेकिन छंटनी तो हमारे चाहने से होगी नहीं, वह तो यमराज ही करता होगा। अब मैं अमेरिका रहने लगूं तो मुझे अमेरिका वाला स्‍वर्ग या नरक मिलेगा या फिर अपना भारत वाला ही। बड़ी उलझन है।  इस उम्र के घूमने में भी बड़ी कठिनाई है जी। पर्यटक एजेण्‍ट 4 जी वाला है और हम तो वही 2 जी वाले भी नहीं बचे। सुबह आठ बजते ही होटल के सामने बस लगा देता है और सारा दिन भटकने के बाद रात नौ बजे कहीं जाकर बिस्‍तर दिखते हैं। साठ साल बाद आंते भी खारिज होने लगी होती है तो अपना कार्य जल्‍दी जल्‍दी निष्‍पादित नहीं कर पाती। कैसे जल्‍दी से ठूंस लें और कैसे जल्‍दी से निकाल दें। बड़ी समस्‍या रहती है। दुनिया देखने निकले थे और वहाँ स्‍वयं को देखना ही भूल जाते हैं। घर आकर सोचते ही रह जाते हैं कि हम क्‍या देख कर आए? हाँ दस दिन जो बाहर रहे उस समय घर से सदस्‍य सब खुश रहे। चलो कोई तो खुश रहा, ये ही अच्‍छा हुआ।  उन्‍होंने प्रेक्टिस कर ली हमारे बिना अकेले रहने की और फिर उन्‍हें अच्‍छा लगने लगा तो हर साल ही कहने लगे कि पिछली बार अमेरिका गए थे अब इस बार यूरोप जा आओ। हमें भी जीने का बहाना मिल गया और उन्‍हें तो जीवन मिल ही गया। मै एक परिवार में गयी, वहाँ पार्टी-शार्टी चल रही थी, मैंने पूछा बड़े खुश हो, क्‍या कारण है। पता लगा कि माता-पिता बाहर घूमने गए हैं। पैसे का तो आज महत्‍व है ही नहीं। बूढ़े-बुढ़िया के पास भी बहुतेरा है नहीं तो खुशियां पाने के लिए बच्‍चे भी टिकट कटा ही देते हैं। सोचते है कि अकेले घर पर रहने का आनन्‍द उठाना इस भाव क्‍या बुरा है?

इसलिए अब समझ नहीं आ रहा कि खारिज हो चुके इस जीवन को कैसे धकेला जाए? जरूरत तो किसी को रही नहीं। बस अब तो आपको डेली वेजेज पर काम मिल जाता है, मम्‍मी आप दस दिन के लिए हमारे यहाँ आ सकती हैं क्‍या? क्‍या है ना कि मुझे कम्‍पनी की तरफ से बाहर जाना है, तो आप आ जाती तो बच्‍चों को देख लेतीं। वैसे हम सब मेनेज कर लेंगे और आपके क्‍या फर्क पड़ेगा चाहे यहाँ रहें या वहाँ? कभी अमेरिका का बुलावा आता है, बच्‍चों की ढाई महिने की छुट्टिया हैं आप लोग आ जाते तो ठीक रहता। हमारे एक मित्र हैं बेचारे वे तो हर साल इन ढाई महिनों को ही उपयोग करते हैं। उन्‍हें भी गर्व लगता है कि हमारा भी कोई उपयोग है। बाकि भारत में रहकर तो कभी इसको विदा कर आए और कभी उसको विदा कर आए, बस यही लगा रहता है। विदा करते समय चिंतन भी खूब होता है, कि कहाँ से विदा लेंगे? पहले तो कहा जाता था कि जिस घर में डोली आयी है वहीं से अर्थी उठेगी। अब तो विकल्‍प कई हैं। समझ ही नहीं आता कि हमारे लिए रोने वाले कौन से होंगे। पहले तो ठाकुरों में रूदाली का प्रचलन था अब तो विदेश में वह भी नहीं होंगी। तो बिना रोने-धोने के ही विदा होना पड़ेगा! फिर हमारी आत्‍मा का क्‍या होगा? अमेरिका का स्‍वर्ग तो मिलेगा नहीं, पता नहीं आत्‍मा इतनी दूर आ भी पाएगी या नहीं। बड़ी चिन्‍ता है। इसी चिंतन में रोना भी भूल जाते हैं और जैसे ही याद आता है कि नहीं रोना है तो लोग कहने लगते हैं कि ताई/चाची/बुआ जो भी हैं, वह अपने मरने के डर से रो रही हैं। हद तो अब होती जा रही है, जब हमें देखकर लोग कहने लगे है कि देखो, यह पका आम भी टपकने को ही है, उठावने में जाने की सूचना कभी भी आ सकती है। लेकिन हम तैयार है, एक्‍सपायरी डेट को देखते हुए बोरिया-बिस्‍तर बांधने की जुगत कर ली है। लड़खड़ाते, खड़खड़ाते जीवन को घसीटने की तैयारी कर ही ली है। हमने विदेश में बेटे के यहाँ भी बुकिंग करा ली है और महानगर में बेटी के यहाँ भी फिर अपने शहर में तो पक्‍का पट्टा है ही। अब देखते हैं कि किस लाइन में जल्‍दी नम्‍बर आता है, जहाँ का बुलावा आया वहीं पहुँच जाएंगे। अभी तो आनन्‍द करो। विदा होने के नये नये तरीके देखो, परिवारों के गम और खुशियां देखो, अपना आकलन करो और समय व्‍यतीत करो। हमने पक्‍का इंतजाम कर लिया है, आपकी आप जाने। हमें ना तो जल्‍दी है और ना ही देरी होने का गम। क्‍योंकि यदि जल्‍दी करने लगे तो यमराज कहेगा कि इसे अभी नीचे ही रखो, बड़ी जल्‍दी कर रहा है। और यदि देरी का मन बनाया तो जल्‍दी ही टपका कर ले जाएगा। लेकिन अभी विदा की बात नहीं अभी तो जीवन की बात करनी है। खारिज हो रहे जीवन की बात। एक्‍सपायरी दवा को कहाँ खपाये यह सोच चल रही है। आप भी सोचिए और मैं भी सोचती हूँ।

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