पूछ कर देखो किसी से कि तुम क्या चाहते हो? वह बस यही कहेगा कि कुछ नहीं बस थोड़ा सा सुख चाहता हूँ, बस एक मुठ्ठी सुख। यह प्रश्न हजारों वर्षों से लोगों को मथ रहा है। हमारे ॠषी-मुनि इस पर न जाने कितने व्याख्यान दे चुके हैं, कितनी व्याख्या कर चुके हैं, लेकिन फिर भी मनुष्य को सुख मिल ही नहीं पाता है। या यूं कहें कि मिलता तो है लेकिन मनुष्य संतुष्ट नहीं हो पाता, और सुखी और सुखी के चक्कर में जो प्राप्त है उसे भी नजर-अंदाज कर देता है। हमारे ॠषियों ने एक सिद्धान्त बनाया और कहा कि मनुष्य सुखी होने के लिए पुरुषार्थ करता है अर्थात उसके जीवन का प्रत्येक कार्य सुख पाने के इर्द-गिर्द ही घूमता है। उन्होंने समय-समय पर अनेक व्याख्याएं की और सुख को प्राप्त करने के लिए अनेक उपाय भी बताए। अन्त में एक सिद्धान्त स्थापित हुआ कि मनुष्य ने समय-समय पर सुख प्राप्ति के लिए क्या-क्या पुरुषार्थ किए। कालान्तर में इनकी संख्या चार हो गयी। हमारे शास्त्र कहने लगे कि मनुष्य के चार पुरुषार्थ होते हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। वर्तमान में इन चारों पुरुषार्थों की विद्वानों ने अनेक व्याख्याएं की हैं लेकिन मेरे गले आज तक कुछ नहीं उतर पाया था। अचानक ही यह व्याख्या सामने आयी कि पुरुषार्थ सुख के लिए हैं और मेरी अपनी व्याख्या सामने आ गयी और सभी कुछ स्पष्ट होता चला गया। अब आप भी जानिए इस व्याख्या को –
चार पुरुषार्थ है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
धर्म – जब सभ्यता का विकास हो रहा था तब मनुष्य अपना सुख प्रकृति में ढूंढ रहा था। जो भी मनुष्य का मूल स्वभाव या धर्म था उसी के अनुसार सुख प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। वर्तमान में धर्म की व्याख्या बदल गयी है, हम आस्था और कर्मकाण्ड को धर्म कहने लगे हैं, लेकिन पुरातन में धर्म का अर्थ व्यक्ति का वह स्वभाव था तो उसने संस्कारों के साथ धारण किया था। धारयेति इति धर्म:। मनुष्य का मूल स्वरूप नर और नारी में विभक्त है, प्रकृति से प्रत्येक प्राणी भोगवादी है इसलिए मनुष्य केवल भोग में ही अपना सुख तलाश रहा था। जिसका जैसा स्वभाव था मनुष्य उसी के अनुरूप सुख के लिए पुरुषार्थ कर रहा था। जो नर था वह अपने स्वभाव के अनुरूप और जो नारी थी वह अपने स्वभाव के अनुरूप।
अर्थ – स्वभाव के बाद में मनुष्य का चिन्तन अर्थ पर जाकर टिका। मनुष्य ने कहा कि नहीं सुख के लिए अर्थ का होना अतिआवश्यक है। इसलिए अर्थ को पाना भी एक पुरुषार्थ बन गया। जिस के पास जितना अर्थ, उतने ही वह सुख के संसाधन खरीद सकता है।
काम – चिन्तकों ने कहा कि सुख क्या है? अर्थात अपनी कामनाओं की पूर्ति ही सुख है इसलिए सारा पुरुषार्थ कामनाओं की पूर्ति के लिए ही मनुष्य करता है। इसलिए काम भी पुरुषार्थ बन गया।
मोक्ष – भारत की सभ्यता हजारों वर्ष से भी पुरानी है और भारत ही है जिसने एक संस्कृति को विकसित किया है। हमने प्रकृति को संस्कारित करते हुए संस्कृति के सिद्धान्त बनाए और कहा कि सर्वे भवन्तु सुखिन:। भारत का दर्शन यह मानता है कि मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो कर्मवादी है। जहाँ सारे प्राणी भोगवादी हैं वहीं मनुष्य भोगवाद के साथ-साथ कर्मवादी भी है। इसी चिंतन के आधार पर हमारा दर्शन आध्यात्म की ओर मुड़ा। हम हजारों वर्षों से ही आत्मा और परमात्मा के बारे में चिंतन करते रहे हैं और हमारे तपस्वियों ने कहा कि यह संसार असार है। यदि वास्तविक सुख चाहते हो तो इस नश्वर संसार में आवागमन से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति ही सुख है। इसलिए हमारे यहाँ प्रत्येक व्यक्ति का पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति हो गया।
हमारे इन चार पुरुषार्थों के इर्द-गिर्द ही हमारा जीवन घूमता है। कोई अपने स्वभाव या धर्म के अनुसार सुख प्राप्त करता है तो कोई अर्थ संचय के माध्यम से सुख की प्राप्ति करता है तो कोई अपने समस्त कामनाओं की पूर्ति को ही सुख मानता है तो कोई मोक्ष के लिए किए जाने वाले प्रयास को ही सुख मानता है। प्रथम तीन पुरुषार्थ समस्त विश्व में एक समान ही है लेकिन चौथा पुरुषार्थ-मोक्ष का चिन्तन केवल भारतीय ही करते हैं। भारतीय में भी जो हिन्दु जीवन पद्धति को अपनाए हुए हैं वे ही मोक्ष की अवधारणा को मानते हैं शेष दुनिया जन्नत या स्वर्ग को ही मानती है। भारत में इतने चिन्तक हुए और सभी ने मोक्ष की अवधारणा को ही सत्य कहा। इसलिए भारत का प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष में ही सुख की तलाश करने लगा। हालात यहाँ तक हो गए कि उसके लिए प्रत्येक कर्तव्य गौण हो गया बस मोक्ष प्राप्ति ही मूल कार्य रह गया। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के काल में सम्पूर्ण भारतीय जन-मानस अपना सारे राष्ट्रीय कर्तव्य भूलकर केवल मोक्ष प्राप्ति में ही अन्तिम सुख ढूंढने लगा परिणामस्वरूप भारत पर यूनानियों का आक्रमण हुआ।
जब सिकन्दर भारत में आया तब आचार्य चाणक्य ने कहा कि हमें स्थायी सुख तभी मिलेगा जब हमारा राष्ट्र सुरक्षित हो और उन्होंने राष्ट्र-सेवा को परम कर्तव्य बताया। इसलिए एक वर्ग ने इन चार पुरुषार्थों के साथ राष्ट्र-भक्ति को भी पंचम पुरुषार्थ के रूप में माना। इसलिए आज हम भारत के मनुष्यों का वर्गीकरण करें तो पाएंगे कि हम पांच प्रकार के पुरुषार्थ करते हैं और हमारी मानसिकता इन्हीं में विभक्त है। जो केवल स्वभाव अर्थात धर्म से ही सुख की प्राप्ति चाहता है वह केवल नर और नारी तक ही सीमित है जिसको की हमारे साहित्यकार-फिल्मकार एकमात्र सत्य बताते हैं। उनके लिए युगल बनाना और प्रेम में रहना ही एकमात्र कार्य है। दूसरे वे हैं जो अर्थ को ही प्रमुख मानते हैं और अर्थोपार्जन में ही लगे रहते हैं। तीसरे हैं जो अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही कार्य करते हैं। जैसा कि आधुनिक पीढ़ी करती है। प्रतिदिन सुख के साधनों को ढूंढती है और रोमांचकारी अनुभवों से गुजरने को ही सुख मानती है। रात-दिन का पर्यटन, व्यसन आदि सभी इसी कामना पूर्ति के लिए हैं। चौथा वर्ग है जो आध्यात्म के नाम पर मोक्ष प्राप्ति में लगा है और जितने भी कर्मकाण्ड सम्भव हो सकते हैं, उन्हें अपनाता रहता है।
लेकिन इन सबसे अलग एक वर्ग आचार्य चाणक्य के बाद निर्मित हुआ है और वह है राष्ट्र-भक्त वर्ग। ये राष्ट्र की सुरक्षा को ही सबसे बड़ा सुख का पुरुषार्थ मानते हैं। इसलिए अपने-अपने समाज के लिए एक सुरक्षित राष्ट्र हो इस हेतु प्रयासरत रहते हैं। विवेकानन्द ने भी कहा था कि हमें पचास वर्ष के लिए सारे ही देवी-देवताओं को विस्मृत कर देना चाहिए और केवल भारत को ही भारत-माता मानकर उसकी पूजा करनी चाहिए। श्रीराम और श्रीकृष्ण का जीवन देखिए, उनके जीवन का कृतित्व समझिए। उन्होंने राष्ट्र-सुरक्षा को ही सर्वोपरी माना और आततायियों का संहार ही उनका लक्ष्य रहा। रामायण और महाभारत काल इसी बात के साक्षी हैं कि सृष्टि पर श्रेष्ठ विचार पनपने चाहिए और निकृष्ट विचारों का नाश होना चाहिए। ना राम और ना ही कृष्ण ने कभी किसी कर्मकाण्ड या पूजा पद्धति को स्थापित किया, बस वे राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही संकल्पित रहे। लेकिन हम राम और कृष्ण के अनुयायी केवल उनकी पूजा को ही अपना धर्म मान बैठे हैं और इसी में सुख की प्राप्ति करते हैं। इसलिए आज पुरुषार्थों की जब चर्चा करते हैं तब हमें राष्ट्र-सुरक्षा के लिए किये गए कार्यों या पुरुषार्थ को भी अहमियत देनी होगी और चार पुरूषार्थ के स्थान पर पांच पुरूषार्थ को मान्यता देनी होगी। तभी हम वास्तविक रूप से सुख की प्राप्ति कर सकेंगे।
चार पुरूषार्थ के स्थान पर पांच पुरूषार्थ को मान्यता देनी होगी। तभी हम वास्तविक रूप से सुख की प्राप्ति कर सकेंगे।
धन्यवाद अरूण जी।
आलेख रोचक और प्रेरक है।
यदि ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ को संपादित किया जाता है तब तो उसके मूल स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन अपेक्षित है।
यहाँ ‘पुरुषार्थ’ से एक वर्ग विशेष ही इंगित हो रहा है इसलिए एक अन्य शब्द ‘महिषार्थ’ भी चलने को आतुर होने को है।
दोनों को चलने से रोकते हुए एक अन्य उभयभावी शब्द ‘मनुष्यार्थ’ उठ खड़ा होने को है।
दूसरी बात ‘राष्ट्र-प्रेम’ अथवा ‘राष्ट्र-भक्ति’ धर्म में ही सन्निहित क्यों न मानी जाए?
सैनिकों के द्वारा दो भावनाओं से युद्ध लड़े जाने की संभावना हो सकती है।
पहली ‘अर्थ’उपार्जन निमित्त, दूसरी ‘धर्म’निर्वहन निमित्त।
ये दोनों ही भावनायें ‘राष्ट्र-प्रेम’ से क्यों नहीं जुड़ी मानी जाएँ?
यदि कोई कर्तव्य अपने स्वभाव के कारण से करता है तो वह ‘धर्म’ के लक्षणों को कहीं न कहीं जीवन में स्वीकार रहा है।
यदि कोई सैनिक या सेवक ‘काम’ इच्छा को हृदय में दबाये अपनी प्रेमिका या स्त्री के हृदय में ‘वीरगति की कसक’ बनकर जीवित रहना चाहता है तो वह भी ‘मोक्ष’ की कक्षा से बाहर नहीं।
आदरणीय अजित जी,
मुझे अभी भी पाँचवे भेद का औचित्य नहीं जँच रहा।
हो सकता है पुरानी परिपाटी की जड़े गहरी जमी हैं इस कारण मेरी आइसब्रेकिंग नहीं हो पाई।
edit : यहाँ ‘पुरुषार्थ’ से एक वर्ग विशेष ही इंगित हो रहा है इसलिए एक अन्य शब्द ‘महिषार्थ’ भी चलने को आतुर है।
प्रतुल जी सर्वप्रथम तो आपका स्वागत है। बहुत दिनों बाद आपका सान्निध्य प्राप्त हुआ। मैंने चार पुरूषार्थ के बारे में एक अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। मुझे लगता है कि जब हमारे शास्त्रों में पुरुषार्थ शब्द आया उस समय धर्म की व्याख्या आज के अनुरूप नहीं थी। धर्म केवल स्वभाव और कर्तव्य का ही भान कराता था। अत: मनुष्य को सुख प्राप्ति के लिए किये जाने वाले पुरुषार्थ में धर्म का अर्थ स्वभाव या उसकी योनि ही उचित प्रतीत होती है। जैसे सूअर गन्दगी में ही आनन्द प्राप्त करता है तो उसका पुरुषार्थ इसी निमित्त होता है। वैसे आप विद्वान हैं, मैं तो जो समाज में देखती और सुनती हूँ उसकी व्याख्या अपने अनुसार करने का प्रयास करती हूँ। इसीलिए यहाँ लिख देती हूँ जिससे विभिन्न व्याख्याएं भी प्राप्त हों और किसी निशकर्ष पर पहुंचा जा सके। यहाँ पुरुषार्थ से भी तात्पर्य कर्म से हैं ना कि लिंग भेद से है।
अजित जी, आपके आलेखों को पढ़ना इसलिए भी चाहता हूँ क्योंकि उनमें मौलिक चिंतन होता है. इतना तो समझ आया है कि एक शब्द भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। अर्थ, योग, पुरुष(अर्थ) आदि शब्दों में ऐसा ही है।
– जीव मात्र अपने और अपने परिवार की सुविधा के लिए और अपनी संतति चलाने के लिए जो भी श्रम/क्रिया/जुगाड़/ उद्यम करता है – पुरुषार्थ कहते हैं।
– किन्नर आजीविका के लिए जो भी उद्यम करते हैं पुरुषार्थ कहते हैं।
– आज मनीष सिसोदिया के दिल्ली नगर निगम क्षेत्र में सफाई कर्मियों ने कूड़ा गाड़ियों का उपयोग पूरे क्षेत्र में कूड़ा फैलाने के लिए किया। उनका यह विरोध जताने का उद्यम पुरुषार्थ विपर्यय है।
परन्तु ………
जब भी गुरुजनों द्वारा ‘आलस्य त्यागो, पुरुषार्थ करो’ का उपदेश किया जाता है तब यह सोचने को बाध्य होता हूँ कि
‘पुरुषार्थ’ शब्द का प्रयोग जीव मात्र के लिए न होकर मनुष्य मात्र तक सीमित है। जो मनुष्य कुछ अर्जित करने के लिए जो उद्यम करता है वह उसका पुरुषार्थ होता। है
यदि उद्यम ‘देव’ (वृक्ष, धरा, जल, सूर्य, इंद्र, वायु आदि) करते दिखायी देते हैं तो उसे उनका पुरुषार्थ न कहकर उसे उनका रुष्ट होना या प्रसन्न होना कहते हैं। देवों द्वारा केवल गति की जाती है और गति के परिणाम से अति और क्षति भी होती है।
Moksh bhi to sukh hi hai
Pursarthak