क्या यहाँ तुम्हारी नाल गड़ी है? यह प्रश्न भी कितना अजीब है! माँ की कोख में जब जीवन-निर्माण हो रहा था तब नाभिनाल ही तो थी जो हमें पोषित कर रही थी और जीवन दे रही थी। जन्म के बाद इसका अस्तित्व समाप्त ही हो जाता है लेकिन इस जीवन दायिनी नलिका को सम्मान भी भरपूर ही मिलता है। उसे बकायदा गड्डा खोदकर गाड़ा जाता है और हमारे मन के साथ इसे जोड़े रखने का प्रयास भी किया जाता है। तभी तो यह कहावत बनी कि यहाँ क्या तुम्हारी नाल गड़ी है? क्या वाकयी में जहाँ नाल गड़ी होती है, उस जगह का आकर्षण हमेशा बना रहता है? अपना शहर, जहाँ हमने जीवन प्राप्त किया हो, वह हमेशा क्यों अपना सा लगता है? उस जमीन से क्या रिश्ता बन जाता है? या वही नाभिनाल जो पहले हमें जीवन दे रही थी अब धरती के अन्दर समाकर हमें उस धरती से जोड़े हुए है? कुछ तो है, अपनी धरती के लिए। मन न जाने कैसा उतावला हो उठता है जब अपनी जीवन-दायिनी धरती पर कदम पड़ते हैं, सबकुछ अपना सा लगने लगता है। बाहें फैल जाती हैं और उस धरती को, उस शहर को समेट लेने का मन कर उठता है।
ट्रेन अपनी गति से चल रही थी, हाथ में एक पत्रिका थी। अच्छी सी कहानी पढ़ी जा रही थी कि खिड़की के बाहर नजर पड़ गयी। एक स्टेशन आ गया था, साइनबोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में नाम चमक रहा था और मेरे मन में कहीं दस्तक दे रहा था। छोटा सा गाँव था – मालाखेड़ा। लेकिन इस नाम को अपनी अम्मा की जुबान से बहुत बार सुना था, एकदम से वही पुराने दिन याद आ गए। दिल कौतुहल से खिड़की के बाहर झांकने लगा, अब अलवर शहर नजदीक ही है। यहीं तो पहली-पहली बार मेरे जीवन ने आँखें खोली थी और यहीं पर मेरी नाल गड़ी है। हाथ की पत्रिका और उसकी कहानी बिसर गयी। अपनी जन्मस्थली को बस निहारने का ही मन होने लगा। इस रेल की पटरी से कितनी यादे जुड़ी हैं! गर्मी की छुट्टियां होती और हम अम्मा के साथ ननिहाल के लिए निकल पड़ते। तब कहाँ एसी कोच थे और कहाँ रिजर्वेशन की समझ। बस पेसेन्जर गाडी में बैठ जाते और चल पड़ते मामा के घर। नाना-नानी को तो कभी देखा नहीं बस मामा को ही देखा था। गाडी अलवर आ पहुँचती और हमारा पहला पड़ाव आ जाता। अम्मा का रूतबा एकदम से बदल जाता। मामा जीजी जीजी कहकर आगे पीछे घूमते तो मामी बीबीजी कहकर सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ती। हम भी अपने ममेरे भाई-बहनों के साथ खेल में मस्त हो जाते। सारा दिन रसोई में खटने वाली माँ यहाँ आकर खास बन जाती। हमने बहुत बरसों बाद जाना कि ये हमारे चचेरे मामा है, उनके प्रेम ने कभी अन्तर ही पता नहीं लगने दिया।
एक बार हमने कहा कि हमें अलवर में वह घर दिखाओ, जहाँ हमारा जन्म हुआ था। पता लगा कि जन्म तो अस्पताल में गौरी नर्सो के हाथों हुआ था। पिताजी उस समय बड़े आधुनिक खयाल के थे तो प्रसव अस्पताल में ही कराते थे। लेकिन हमने वह मकान बाहर से ही देखा। वैसे भी बचपन तो जयपुर में ही बीता था इसलिए वहाँ मोह नहीं जग पाया। तब अलवर में मामा के अतिरिक्त और कोई रिश्तेदार नहीं था। बस मामा के यहाँ दो-तीन दिन रहते और फिर पकड़ लेते दूसरी पेसेन्जर गाडी। अम्मा के साथ हम दो बहने, गाडी अक्सर खाली ही होती थी। गाडी में लैला की अँगुलियों जैसी ककड़ी आती और हमें उन्हें खाना अच्छा लगता। ककड़ी खाते-खाते हरे-भरे खेतों को निहारते रहते, चारों तरफ हरियाली ही बसी रहती। कहीं गायों का झुण्ड दिख जाता तो कभी बकरियों का। लेकिन एक जगह ऐसी थी जहाँ हिरणों का झुण्ड कुलांचे मारते हुए दिखता था। हम हर समय उस जगह पर निगाह बनाकर रखते थे।
आज भी गाड़ी चल रही थी, अलवर को पीछे छोड़ दिया था। मन याद करने की कोशिश कर रहा था कि अब कौन सा स्टेशन आएगा? हाँ अब खैरथल आएगा और फिर हमारा ननिहाल – हरसौली। मेरा ध्यान रेल की खिड़की पर ही लगा था। आँखों को वहाँ चिपका लिया था, कहीं थोड़ा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि कब हरसौली निकल जाएगा और मन पछतावा करता ही रह जाएगा। तब पेसेन्जर ट्रेन हुआ करती थी, धीरे-धीरे रास्ता नापती थी लेकिन आज एक्सप्रेस ट्रेन है, तेजी से भाग रही है। खिड़कियों पर भी शीशे लगे हैं और सामने वाले ने पर्दे भी लगा रखे हैं, बस अपनी तरफ का ही पर्दा मैंने परे धकेल दिया है। जिससे कोई बाधा ना पहुँचे पुरानी यादों को आने में। स्टेशन के पास से ही एक संकरा रास्ता गाँव की ओर जाता था। दोनों ओर तब खेत थे, लेकिन अब बाजार सा बन गया है। अपने पीहर आने की उमंग अम्मा के चेहरे पर दिखायी देने लग जाती थी। दो भाइयों की एक बहन। लाड़-प्यार में कोई कमी नहीं थी। फिर बहन यदि पढ़े-लिखे दामाद को ब्याही हो तो सम्मान और भी दुगुना हो जाता है। सिनेमा की कहानियों की तरह ही हमारे ननिहाल का हाल था। एक मामा अमीर तो दूसरा गरीब। लेकिन हमें कभी अन्तर नहीं दिखायी दिया – प्रेम में। हम दोनों मामाओं के ही बारी-बारी से रहते और सारा दिन फाकामस्ती करते। अम्मा का दिन कहाँ गुजर रहा होता और हमारा कहाँ। चिलचिलाती धूप भी हमें कहीं न कहीं छाया वाला स्थान दिखा ही देती और हम बेरोकटोक खेल में मस्त रहते। जब धूप ढलती और शाम होने लगती तब हम खेतों में चले जाते। वहाँ चने की भाजी तोड़ लाते और उसे नमक और नीम्बू डालकर खाते। कैसा तो स्वाद था, शायद अब वैसा स्वाद ढूंढे से भी नहीं मिलता। और गौंदे के अचार का तो कहना ही क्या? हम रसगुल्ले की तरह उन्हे खा जाते। गाँव में हमेशा सब्जियों का अकाल सा रहता है तो अचार ही हमारा स्वाद बनते। बिना मसाले का वह अचार आज भी जुबान पर रखा है, भुलाने को सारे ही रस लगे रहते हैं लेकिन उसे कोई भी हरा नहीं पाता है।
गाडी ने हरसौली स्टेशन को छोड़ दिया था, यादों के तार भी टूटने लगे थे। रेल की पटरी ने एक रिश्ता जोड़ दिया था और याद दिला गया था बचपन और अम्मा को। तभी बिनाणी सिमेन्ट का वह विज्ञापन याद आ गया जिसे अमिताभ बच्चन ने साकार किया है – माता-पिता कहीं नहीं जाते, वे यहाँ ही रहते हैं, सदा के लिए। सच है वे कब याद आ जाएं, पता नहीं चलता। आज इन रेल की पटरियों ने और स्टेशन पर लिखे साइनबोर्ड ने बरसों पीछे धकेल दिया था। जब रेलयात्रा कितनी सुकून भरी होती थी। अपना थैला उठाकर कभी भी पैसेन्जर ट्रेन में बैठा जा सकता था लेकिन अब? गर्मियों की छुट्टियों का अर्थ तब ननिहाल ही क्यों हुआ करता था? घर-परिवार में कैसी भी परिस्थिति क्यों ना हो, लेकिन अम्मा का यह हक हमेशा बना रहता था – पीहर जाने का। मामा-मामी को भी इंतजार रहता था अपनी बहन के आने का। अब वे दिन पता नहीं कहाँ गए! लेकिन मेरी उदयपुर से लखनऊ यात्रा ने मुझे मेरी नाल जहाँ गड़ी थी, उसका स्मरण करा ही दिया। मुझे मेरी अम्मा से पुन: मिला दिया जो अब न जाने कहाँ होगी?
कहाँ -कहाँ की यादें ताज़ा कर गई आपकी लेखनी! अपने अस्तित्व का धरती से वह जुड़ाव जाने-अनजाने याद दिला जाता है -हम यहाँ की उपज हैं ,इस हवा-पानी से पोषित ,कितना भी दूर चले जाएँ , माटी की पहचान मिटती नहीं .
प्रतिभाजी आपको बहुत दिनों बाद पाकर खुश हूं। आभार।
नाभिनाल पर में कोरिया के किसी वैज्ञानिक ने काफी काम किया है और यह बात सामने आई है कि यदि किसी को उसकी नाभिनाल घिसकर चटाई जाए तो बहुत सी असाध्य बीमारियों से निजात मिल सकती है. वहां नाभिनाल को फ़्रेम करवा कर रखने की भी परंपरा रही है.
काजल जी, नाभिनाल तो हमारे लिए सम्पूर्ण जीवन ही है लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से भी हमें प्रभावित करती है क्या? बस प्रश्न यही है।
हा स्टेम सेल 🙂
आह! आज तो दिल छु गया आपका यह संस्मरण। ऐसा लगा जैसे आपने मेरे ही दिल का हाल लिख दिया। सच कुछ तो होता है अपने शहर की मिट्टी में जो आपके मन को सदा अपने से बांधे रखता है। लाजवाब संस्मरण…
दिल को छू लिया मुझे तो वह हर पल याद आ रहा है जो हरसोली में बिताया था ।
आपकी अम्मा हमेशा आपके पास ही है। और साथ-साथ पाठक भी आपके अत्यन्त सुन्दर संस्मरण के सहारे उन्हें याद कर रहे हैं।
आजकल तो नाल को हमेशा के लिये preserve करके रखते है,stem cell preservation .
For treating many autoimmune diseases ,stem cells are useful,science ने यह सिद्ध कर दिया है ।पहले घर में कच्चे आँगन होते थे वहीं आँवल गाड़ी जाती थी,आजकल ना कच्चे आँगन है ना वो परम्परायें ,ना ही वो emotional attachment .चलो एक बार फिर उसी बचपन में चलते है,नाना के घर अचानक जा धमकते है ।
चलो लगा आएं एक ऐसा ही फेरा जहाँ भूली बिसरी यादे हों। एक बार अपन दोनों ही चलते हैं, यादों को वापस लाने। क्या खयाल है किरण?
नाभिनाल संपर्क का प्रतीक रहेगी सदा ही।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (08-02-2014) को “विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता” (चर्चा मंच-1517) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
डॉक्टर दीदी! जननी और जन्मभूमि, दोनों का दर्ज़ा स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कहा गया है. जननी वह जिसके साथ गर्भनाल जुड़ी होती है शिशु की और जन्मभूमि वो जहाँ गर्भनाल गड़ी होती है! फिर कैसे न हो आकर्षण जन्मभूमि के प्रति.
हमारे पिताजी ने अपना सम्पूर्ण कार्यकाल इलाहाबाद में बिताया और हमारा वह दूसरा घर होता था. आज भी पट्ना से दिल्ली जाते समय जब ट्रेन में जाते हैं तो रात दो बजे भी इलाहाबाद स्टेशन, निरंजन सिनेमा हॉल, जमुना जी को देखे बिना नहीं सोते!
और हाँ.. अब चिकित्सा शास्त्री तो गर्भनाल को सुरक्षित रखने की बात कह रहे हैं जिससे कालंतर में उस व्यक्तो को यदि कोई जटिल रोग हो तो उसके निवारक जीवाणु उस गर्भनाल से प्राप्त किए जा सकें!
आप इस विषय पर बेहतर प्रकाश डाल सकती हैं!!
सलिल जी, शायद यही है अपनी जन्मभूमि का आकर्षण। लेकिन लोग फिर कैसे दूर चले जाते हैं? क्या उन्हें अपना देश और जन्मभूमि नहीं खींचती होगी?
पापी पेट…
और जन्मभूमि के आकर्षण पर मैं हमेशा क़तील शिफाई साहब का शे’र कहा करता हूँ:
क़तील अपने लिए वो कशिश ज़मीन में है,
यहीं गिरेंगे जहाँ से गिरा दिए जाएँ!
अगर आसमान से भी मुझे धकेला जाएगा तो मैं भारत्वर्ष में ही गिरूँगा और भारतभूमि में अपनी जन्मभूमि में!
मेरे कई रिश्तेदारों ने दिल्ली में मकान ख़रीदा और घर बना लिया. लेकिन मैंने नहीं. हमेशा यही कह्ता हूँ कि जहाँ मेरी गर्भनाल गड़ी है और जहाँ मेरे पुरखों की मिट्टी है!!
nabhi naal ka rishta to bahut hi gehra hai , jo samjhe unke liye .
एक खास प्रजाति की मछली के बारे में पढ़ा था जो अपने अंतिम समय में धारा के विपरीत तैरकर एक लंबा सफ़र पूरा करती है और लगभग वहीं पहुँचती है जहाँ जन्मी थी, कुछ आकर्षण तो जरूर है अब चाहे उसे नोस्ताल्जिया कहें या कुछ और।
वो मछली भी खूब है संजय जी।
हाँ ऐसा कहा जाता है हमेशा …पर सच अपनी जगह से लगाव तो बना ही रहता , अपनी सी लगीं आपकी स्मृतियाँ
क्या बात है पुरे ब्लॉग जगत में यादो के फूल खिले है , राजेश जी अपने प्राचीन मित्र से मिले , शिखा जी ने अपने पापा को याद किया और आप का तीसरा ब्लॉग है जहा अपने घर को याद किया जा रहा है , सब कुछ मेरे लिए भी भावनात्मक होता जा रहा है , भाई और मम्मी पापा के बनारस छोड़ने के बाद वहा जाना कम ही होता है मौसेरी बहन कि शादी में सब गए है केवल मै नहीं बेटी का स्कुल है , मित्र आई है किन्तु ठीक से मिल भी नहीं पा रही हूँ इन सब यादो के बिच इतनी सारी ये पोस्टे …… 🙁
आप कहीं भी चले जाएँ पर अपनी जन्म भूमि और बचपन की स्मृतियाँ कभी विस्मृत नहीं होतीं…अब वहां जाने पर वह कुछ नहीं मिलता जो बचपन में देखा था, लेकिन फिर भी अंतस को एक अज़ीब सुकून मिलता है…
अपने संस्मरण के साथ बहुत सी पुरानी यादों के ताले आप खोलती गई … उनमें हम भी गोते लगाते रहे … इतने सालों से विदेश में रहते हुए आज भी अपनी मिट्टी, अपने घर के आँगन से मानसिक दूरी बनाए रखना आसांन नहीं होता मुझे … समय खींचता है हर पल वहीं …
रेल यात्रा जीवन स्मृति पन्नों की तरह ही लगती है !
बहुत कुछ छूटा याद दिलाया आपने !
ज़मीन से जुड़ाव इसी को कहते हैं शायद … कितनी बातें याद आ जाती हैं अनायास ही . भाव मयी करती पोस्ट .
अजित जी बहुत ही भावुक लिखा,मेरा भी ननीहाल आप ही की तरहथा,पेसेंजर टैै्न में बैैढे औौर चले गऐ,अब दंो माह पहले से प्लान करना होता हैै! अजित दी ऐसा लगता हैै मैै सोचती हूं, औौरआप वही ळिख दे ती हैैं,!अब तो बच्चे की ना ल हजारो रूपये देकर अस्पताल में सुरक्षित। रखते हैै,वे अपने गाँव को कैैसै याद करेगें,
@अब खैरथल आएगा और फिर हमारा ननिहाल – हरसौली।
ओह मैं अपने गाँव जाने के लिए बावल उतरता हूँ, और पेंसेज़र हो तो माजरी नांगल. साबी नदी का ही हूँ… 🙂