काल के हाथों विध्वंस हुए सैकड़ों किले, छिन्न-भिन्न हो चले हजारों महल, क्षत-विक्षत लाखों हवेलियां, आज भी अपना अस्तित्व तलाशती हुई हर गाँव कस्बे में दिखायी दे जाती हैं। न जाने कितनी कहानियां इनके नीचे दफ्न हैं और न जाने कितनी कारीगरी इनमें समायी हुई हैं! जब एक किला बनता है तब न जाने कितने कारीगर, कितने मजदूर इसे तराशते हैं, इसे भव्यता प्रदान करते हैं। लेकिन काल के थपेड़े इन्हें जीर्ण-शीर्ण कर ही देते हैं। दुनिया में न जाने कितने शहर बसे और कितनी बार उजड़ गए। भारत के इतिहास में दर्ज है इन सबका लेखा-जोखा। लाखों मन्दिर बने, हजारों स्तूप बने और सैकड़ों पहाड़ों पर आध्यात्मिक केन्द्र बने, लेकिन आज वे भी सार-सँवार के मोहताज हैं। पत्थर-गारे से बनी इमारते आखिर ढह ही जाती है, बस अवशेष कला के रूप में ही शेष रह जाते हैं। लेकिन मनुष्य की कला उसका ज्ञान कभी नहीं मरता। यदि कला और ज्ञान को अपनी पीढ़ियों को देते रहे तो वह सलामत रहती है। लेकिन यदि देना सीमित हो जाए या थम जाए तो कला भी दम तोड़ देती है।
हमारे अन्दर हजारों वर्षों का ज्ञान संचित है, उसी के सहारे हम बार-बार नष्ट हुए और बार-बार वापस बस गए। हमने अपनी कला और ज्ञान को कभी प्रस्तरों में सहेजा तो कभी पुस्तकों में जिल्दबन्द किया। गाथाओं के रूप में हमने जन-जन को प्रेषित भी किया। इसीलिए हजारों वर्ष का इतिहास आज भी हमारे अन्दर सिंचित है। लेकिन एक काल-खण्ड ऐसा भी आया जब हमने अपने ज्ञान को देना बन्द कर दिया तब हम कलाविहीन हो गए और आज इसकी कीमत हमें चुकानी पड़ रही है। जो सभ्यता विश्व के शीर्ष पर थी, जिसका ज्ञान वर्तमान से भी आगे था, आज कहीं खो गए हैं। हमारे कलाकार और ज्ञान के स्रोत को आततायियों ने विनष्ट कर दिया। चोरी-छिपे कब तक कला जीवित रहती? आखिर उसने दम तोड़ ही दिया। बस गाथाओं के रूप में जो बचा, उससे ही ज्ञात हुआ कि कभी हम शीर्ष पर थे।
गाँव-गाँव में पुरातन गाथायें कहीं भजनों में तो कहीं गीतों में संचित हैं। कहीं प्रस्तरों में आलेख उत्कीर्ण हैं, तो कहीं भित्ती चित्रों के माध्यम से हमारी सभ्यता और संस्कृति को दर्शाया गया है। लाखों राजाओं की गौरव-गाथा आपको गीतों के माध्यम से सुनने को मिल जाएंगी, आज ये ही गाथायें हमारा इतिहास बन गयी हैं। कला और ज्ञान का यही आदान-प्रदान हमें जीवित बनाए रखता है। प्रस्थर पर आकृति गढ़ता कलाकार आपको तुच्छ लग सकता है, आप कहेंगे कि अपनी छैनी-हथौड़ी से क्या करता रहता है? लेकिन वह इतिहास को उकेर रहा होता है। कलम के सहारे शब्दों को कागज पर उकेरने वाले लोग कई बार फालतू से दिखायी देते हैं लेकिन वे भी अपनी सभ्यता की पड़ताल आप तक पहुंचा रहे होते हैं। जिस भी राजा के काल में कलाकार और साहित्यकार को प्रोत्साहन मिला वह राजवंश अमर हो गया। उस राजवंश की गाथाएं आज भी गूंज रही हैं और जिसने कलाकार और साहित्यकार को प्रोत्साहन नहीं दिया वह काल के भ्रमर में कहीं खो गए हैं। रामायण, महाभारत अमर हो गए और राम और कृष्ण हमारे आध्यात्म का प्रमुख अंग बन गए। चाणक्य, अशोक, विक्रमादित्य आदि राजाओं की गाथा आज भी जन-जन के अन्दर बसी हैं। हमारे कलाकार ने अपनी सीमित इच्छाओं के अन्दर रहकर युगों को जीवित रखा है। देश की अधिकांश पहाड़ियां कुछ न कुछ कहती हैं। लाखों मन्दिर इन पहाड़ियों पर हमारे इतिहास को संजोये हुए हैं। किसी भी मन्दिर में चले जाइए, सम्पूर्ण जीवन का दर्शन वहाँ हो जाएगा। वहाँ राग भी है और विराग भी, वहाँ हिंसा भी है और अहिंसा भी, वहाँ जन्म भी है और वहाँ मृत्यु भी। जीवन के सारे ही रंग वहाँ हैं। आतताइयों ने लाखों पुस्तकों को अग्नि को समर्पित कर दिया, लाखों मन्दिरों को विध्वंस कर दिया लेकिन फिर भी खण्डित मूर्तियों से उनका इतिहास छीना नहीं गया। आकृति चाहे नष्ट हो गयी लेकिन इतिहास तो वैसा ही पुष्ट बना रहा।
वर्तमान कला और साहित्य हमारी गाथायें कम और विकृतियों को अधिक उजागर करता है। मनुष्य के अन्दर का कुत्सित भाव कलाकार को अधिक प्रेरणा दे रहा है। जब सैकड़ों वर्ष बाद इतिहास में झांकने का अवसर आएगा तब शायद हमारा कुत्सित स्वरूप ही सत्य बन जाएगा। पूर्व में हमारे साहित्य का आधार राजा थे, प्रजा के बारे में साहित्य मौन है। लेकिन वर्तमान में सामान्य व्यक्ति है लेकिन उसका वास्तविक स्वरूप कहीं खोता जा रहा है। कृत्रिमता हमारे साहित्य पर हावी है। ऐसा लग रहा है कि सत्य कहने का साहस साहित्यकार ने कहीं खो दिया है। आज साहित्य दो धड़ों में बँट गया है। एक साहित्य है जो पुरातन की नवीन व्याख्या कर रहा है, उसे नवीनीकरण के शब्द दे रहा है, एक अन्य साहित्य है जो सामान्य व्यक्ति को दिखा रहा है लेकिन उसके काल्पनिक स्वरूप में। हमारी विकृतियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है जबकि हमारी संस्कृति कहीं दब कर रह गयी है। जब हमारे देश में राजाशाही थी तब तो राजाओं की गाथाएं लिखी गयी, समझ आता है लेकिन जब देश में लोकतंत्र है तब भी राजनीति के प्यादों से लेकर वजीर तब को स्थान है लेकिन सामान्य आदमी आज भी कहीं खो गया है। पुरातन कला में हमारे अन्दर के राग-विराग, हिंसा-प्रेम, क्रोध-धैर्य आदि सारे ही गुण प्रतिबिम्बित होते थे लेकिन आज केवल राग-द्वेष, हिंसा-शोषण आदि भाव ही अधिकतर उजागर किये जाते हैं। कभी ऐसे लगने लगता है जैसे मनुष्य को कर्मवादी प्राणी से अधिक भोगवादी प्राणी की श्रेणी में लाने के लिए ही कलाकार या साहित्यकार अपना जीवन समर्पित कर रहा है। जबकि पूर्व में कलाकार का ध्येय मनुष्य के मनुष्यत्व की वृद्धि करना था, उसे भोगवादी इतर प्राणियों से श्रेष्ठ बताते हुए उसके कर्मवाद का उन्नयन था। इसलिए आज ज्ञान को संचित रखने वालों का कर्तव्य अधिक है कि वे भविष्य को क्या सौंपकर जाएंगे? वे इतिहास की संजीवनी बनेंगे या फिर लुंज-पुंज इतिहास की नींव रखेंगे? आज विचार करने का समय है।
साहित्य एवं साहित्यकार की विवेचना समीचीन एवं सटीक।
संगीत एवं कला संस्कृति की धरोहर का सहज विस्तारीकरण मन को भा रहा है।