अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

बिना अभिव्‍यक्ति, व्‍यक्ति बौना

Written By: AjitGupta - Aug• 28•13

स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए व्‍यक्ति आदिकाल से ही भटक रहा है। व्‍यक्ति स्‍वयं को पहचानना चाहता है, अपने अन्‍दर छिपी प्रतिभा को जानना चाहता है और मन क्‍या चाहता है इससे जानकर वही कार्य करना चाहता है। लेकिन कितने होते हैं जो इस लगन में स्‍वयं को शामिल कर पाते हैं? अक्‍सर तो लोग एक लीक पर चलकर ही अपना जीवन काट देते हैं। परिवार, समाज और वातावरण में ही उलझकर रह जाते हैं, अक्‍सर आम-लोग। पैसा कमाना और पेट भरना, बस यही रह जाती है आकांक्षा। लेकिन कुछ लोग विद्रोह कर देते हैं, वे नवीन तलाशने जुट जाते हैं। अपने अन्‍दर की कला के साथ जीने का हौसला कायम कर पाते हैं। मैंने जब अजन्‍ता और एलोरा की गुफाएं देखी थी तो यही मन में आया था कि कौन लोग होंगे वे? जिन्‍होंने कला के खातिर एकान्‍तवास चुना। फकीरी में ही जीवन बिताया होगा! लेकिन अपने मन को मुखर कर गए। कर्नाटक के श्रवण बेलगोला में भगवान बाहुबली की मूर्ति को तराशते हुए कलाकार ने कभी नहीं सोचा होगा विलासितापूर्ण जीवन को। लेकिन ऐसे कलाकारों को जो एकान्‍त में जाकर साधना करते हैं, शायद वो सबकुछ मिल जाता है, जिसे उनका मन तलाशता है। वाल्मिकी ने रामायण जंगलों में ही लिखी और वेदव्‍यास ने भी महाभारत के लिए विलासिता को नहीं अपनाया।

लेकिन जैसे-जैसे सभ्‍यता ने अपने पैर पसारे हैं, अभिव्‍यक्ति की कला कहीं खोती सी दिखायी देती है। लगता है कि हम आर्थिक बोझ के नीचे स्‍वयं को दबा बैठे हैं। हम केवल शौक पूरे करने में लगे हैं। आज कलाकार या लेखक दोहरा जीवन जी रहे हैं, आर्थिक पक्ष के लिए आजीविका और कला के लिए चन्‍द घण्‍टे। जैसे-तैसे अपने मन को समझाभर रहे हैं। पूर्णतया डूब नहीं पा रहे हैं, इस जीवन-रस में। स्‍वयं को लेखक या कलाकार कहलाने की चाहत भी जन्‍म लेने लगी है, बस फौरी-फौरी सतह पर तैरने लगते हैं और मान लेते हैं कि हम दिग्‍गज बन गए। लेकिन जब तक आप पूर्णतया सबकुछ छोड़-छोड़कर स्‍वयं को ढूंढने नहीं निकलोगे, सफलता हाथ नहीं लगेगी। फिर भी ऐसे व्‍यक्ति ठीक है जो अभिव्‍यक्ति को स्‍वर तो दे पा रहे हैं। मैं ऐसे लोगों की तरफ देखती हूँ जो स्‍वयं को पहचान ही नहीं पा रहे हैं और कोल्‍हू के बैल की तरह स्‍वयं को जोते चले जा रहे हैं, तो निराशा होती है। मुझे लगता है जब से शिक्षा और पैसे की होड़ लगी है तभी से हमारी अभिव्‍यक्ति कुन्‍द होने लगी है।

इतिहास कलाकारों और साहित्‍यकारों से भरा पड़ा है लेकिन जब से शिक्षा ने अपने द्वार खोले हैं, वैज्ञानिक तो ज्‍यादा हो गए लेकिन कलाकार दम तोड़ गए। वैज्ञानिक बनना और कलाकार बनना, दोनों अलग बात है। कलाकार स्‍वयं को अभिव्‍यक्त करता है जबकि वैज्ञानिक स्‍वयं को अभिव्‍य‍क्‍त नहीं करता है। आज जब युवा पीढ़ी पर नजर जाती है तब वे या तो कम्‍प्‍यूटर पर या मोबाइल पर जूझते दिखायी देते हैं। उनकी दुनिया ही जैसे अलग हो गयी है। वे उनींदे से, अलसाये से, उत्‍साहरहित से दिखायी देते हैं। व़े सार्वभौमिक दिखायी नहीं देते। ऐसा लगता है जैसे केवल तन के लिए जीते हैं। मन उनका कहीं दिखायी देता ही नहीं। यदि उनसे मोबाइल या लेपटॉप छीन लिया जाए तो वे आनन्‍द नहीं ढूंढ पाते हैं। उनका आनन्‍द स्‍वयं में नहीं है और ना ही वे दूसरों को आनन्दित कर पाते हैं। उनकी चाहत ही नहीं है कि वे स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त करें। यदि स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त करने का प्रयास करेंगे तो जीवन्‍ता आएगी और शायद वे जीवन्‍तता से ही भाग रहे हैं। इसलिए आज यह दुनिया अच्‍छे कलाकारों और अच्‍छे साहित्‍यकारों से दूर होती जा रही है।

लेकिन ऐसा कहना भी शायद एकतरफा है, क्‍योंकि अब परिवर्तन आने लगा है। शिक्षा और केरियर की झोंक में कुछ वर्ष पहले लोग चल लिए थे, लेकिन अब वे स्‍वयं को तलाशने लगे हैं। लोग तोड़ने लगे हैं बंधी-बंधाई लीक को। फिल्‍म जगत पर दृष्टि डालिए, कितने कलाकार अचानक आ जुटे हैं। वे जी जान लगा रहे हैं, कोई संगीतज्ञ बन रहा है तो कोई अभिनय में कीर्तिमान स्‍थापित कर रहा है। कोई लेखक बनकर समाज को नए शब्‍द दे रहा है तो कोई संगीत की नयी धुन निकाल पा रहा है। छैनी-हथौड़ी लेकिन अब जंगल में कोई नहीं जाता लेकिन फिर भी अब युवा के हाथ में कूंची भी आयी है और छैनी भी। कला जीवन्‍त होने लगी है। मुर्दों की बसावट कम हो रही है। कला के लिए तड़प बढ़ रही है। लेकिन अभी भी आम व्‍यक्ति की अभिव्‍यक्ति शेष है। विकसित होती दुनिया में विकास ने न जाने कितनी ऊँचाइयां छू ली हैं लेकिन व्‍यक्ति का मन अंधेरों में खो गया है। वह समझ ही नहीं पा रहा है स्‍वयं को। जब हम स्‍वयं को समझ नहीं पाते तब मन संतुष्‍ट नहीं हो पाता और यह असंतोष समाज में भी असंतोष ही उत्‍पन्‍न करता है। आज सर्वत्र असंतोष है, सभी एकदूसरे को आरोपित कर रहे हैं लेकिन स्‍वयं के असंतोष की पड़ताल स्‍वयं में नहीं कर रहे। कोई कूंची हाथ में लेना चाहता था और डॉक्‍टर बन बैठा, कोई कलम हाथ में लेना चाहता था और इंजीनियर बन बैठा। ऐसी ही ढेरों विसंगतियां हमारे अन्‍दर हैं। हम खोज ही नहीं पा रहे है स्‍वयं को। कूंची पकड़ना या कलम पकड़ने का भ्रम भी हमारे मन के अन्‍दर बन सकता है, इसलिए डूबना होगा अपनी साधना में। जब डूबने लगेंगे तब पता लगेगा कि यह भ्रम था या हमारी वास्‍तविक चाहत। लेकिन जो लोग भ्रम भी नहीं पालते वे भला वास्‍तविक चाहत की डूब में कब आएंगे? जो लोग केवल अर्थ की आंधी से ही घिरे हैं वे भला अपने अन्‍दर शुद्ध हवा को कैसे भर पाएंगे? इसलिए यदि हम स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाते तो हमारा व्‍यक्तित्‍व बौना ही बना रहता है। इसलिए जीवन की आपाधापी में जब भी समय मिले तब स्‍वयं को पहचानने के लिए निकल पड़ो और अपनी अभिव्‍यक्ति को मुखर होने दो। तब मिलेगी हमें संतुष्टि और यही संतुष्टि हम समाज में बिखेर सकेंगे। नहीं तो हमारे अन्‍दर की असंतुष्टि दूसरे की संतुष्टि को भी छीनने के लिए हाथ बढ़ा देगी।

आज युवापीढ़ी के पास शब्‍द ही शेष नहीं हैं। उनसे कहिए कि वे अपने दादा-दादी या माता-पिता से बोलें – मैं आपका सम्‍मान करता हूँ। वे  बोल नहीं पाएंगे, उनसे कहिए कि अंग्रेजी में ही बोल दें – I respect you. लेकिन इसे भी बोल नहीं पाएंगे। बस I love you से ज्‍यादा वे बढ़ नहीं पाते। अभिव्‍यक्ति के लिए जिस भाषा और संवाद प्रक्रिया की आवश्‍यकता होती है, वह शायद कहीं खोती जा रही है। इसलिए रिश्‍तों में दूरियां बन गयी हैं। युवापीढ़ी अपनी पीढ़ी के साथ ही मगन है, वे बड़ों के साथ संवाद करना ही नहीं चाहते। क्‍योंकि उनके पास अभिव्‍यक्ति है ही नहीं। इसलिए नवीन पीढ़ी को कला की ओर मोड़ना होगा। जब वे नाटक खेलेंगे और संवाद बोलेंगे तब उनकी अभिव्‍यक्ति मुखर हो उठेगी। जब वे अपनी कूंची से कोई चित्र बना लेंगे तब उसे व्‍यक्‍त करने के लिए आतुर हो उठेंगे और उनकी अभिव्‍यक्ति बाहर आ पाएगी। इसलिए अभिव्‍यक्ति के लिए कला से जुड़ाव आवश्‍यक है। मन की संतुष्टि के लिए अभिव्‍यक्ति आवश्‍यक है। समाज में सौहार्द के लिए मन की संतुष्टि आवश्‍यक है। अभी भी देर नहीं हुई है, बस टटोलिए अपने मन को और उसे अभिव्‍यक्‍त करने के अवसर तलाशिए। अभिव्‍यक्ति में ही परम शान्ति है।

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19 Comments

  1. अभोव्याक्ति अपना रास्ता तलाश ही लेती है। देखा जाये तो आज के समय में खुद को अभिव्यक्त करने के भौतिक साधनों की उपलब्धता पहले से ज्यादा ही है।
    वैसे शान्त रहना भी एक तरह की अभिव्यक्ति ही है, बल्कि सिद्ध अभिव्यक्ति। ताजा हालात में देखते हैं कि समाज के अग्रणी लोग कैसे भी झंझावात में अविचलित रहते हैं, मुझे तो वो भी एक तरह की अभिव्यक्ति ही लगती है।

  2. बहुत सुंदर विचार व्यक्त किये हैं आपने काश इन पर अमल किया जा सके.

    जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं.

    रामराम

  3. सृजन मानव के मूलभूत गुणों में एक है, इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये।।

  4. AjitGupta says:

    संजयजी आपका दर्शन भी विचारणीय है ।

  5. rashmiravija says:

    आजकल तो लग रहा है फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग के माध्यम से युवा या जो भी इन माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं …ज्यादा ही अभिव्यक्त हो रहे हैं .पर हाँ ,इतना जरूर है..जिनका साथ उन्हें पसंद है…जिन विषयों में रूचि है..उसी पर चर्चा करते हैं.

  6. ARUN DAGA says:

    बहुत सुंदर विचार व्यक्त किये -अभिव्‍यक्ति के लिए जिस भाषा और संवाद प्रक्रिया की आवश्‍यकता होती है, वह शायद कहीं खोती जा रही है। इसलिए रिश्‍तों में दूरियां बन गयी हैं।जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं

  7. अभिव्यक्ति को कोई ताकत कोई शक्ति न तो दबा सकती है न रोक सकती है , किसी न किसी बहाने कहीं न कहीं ये अभिव्यक्त हो ही जाती है । विस्तार से लिखने के लिए आपका शुक्रिया

    • AjitGupta says:

      अजयजी आप ब्‍लाग पर आए, शायद अब ब्‍लाग पर बने रहेंगे। आपका अभिनन्‍दन। अभिव्‍यक्ति यदि सकारात्‍मक है तो सुपरिणामकारी होगी अन्‍यथा वह नकारात्‍मक भाव से बाहर आएगी।

  8. सच ही कहा …आज की पीढ़ी लैपटॉप और कंप्यूटर पर ही सिमट कर रह गयी है …. अपने साथ के लोगों से बच्चे शायद खुल कर बात करते हों पर घर के सदस्यों से अपनी बात अभिव्यक्त नहीं करते …. विचारणीय लेख ।

  9. कभी कभी लगता है आजकल जो हर किसी के मन रोष भरा है उसका कारण भी यही है …… अभिव्यक्ति के मार्ग ही अवरुद्ध कर दिए हैं हमने ….. मन कहीं तो खुले

  10. शब्‍द चाहे बदलें, मन न बदले.

  11. dilbag says:

    आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-08-2013 को चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें
    धन्यवाद

  12. बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं… सुन्दर चित्रांकन
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://madan-saxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena.blogspot.in/
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    • AjitGupta says:

      सक्‍सेनाजी आपका मेरे ब्‍लाग पर स्‍वागत है। आपके ब्‍लाग को जरूर पढूगी। अभी तीन दिन के लिए शहर से बाहर हूं, आने के बाद देखती हूं।

  13. kshama says:

    लेकिन अभी भी आम व्‍यक्ति की अभिव्‍यक्ति शेष है। Ye waqayee sach hai!

  14. अभिव्यक्ति मनुष्य की आवश्यकता है और सौंदर्य-प्रियता उसका स्वभाव ,जो कलाओं में व्यक्त होता है .कलाओं का अनुशीलन मानसिक उन्नयन करता है ,मेरा अनुभव रहा है – जिन घरों में ललित कलाओं का वास हो वहाँ प्रवृत्ति अपराध की ओर नहीं जाती !

  15. AjitGupta says:

    प्रतिभाजी, आपने बहुत ही सुन्‍दर बात कह दी है।

  16. Kiran Mala Jain says:

    Bell has no sound till some one rings it
    Songs has no tune till some one sings it
    So never hide your feeling becaus it has no value till some one feels it .

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