अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

मेरे शहर में —–

Written By: AjitGupta - Mar• 08•15

indiaTrip 121हर रोज ऐसी सुबह हो – अठखेलियां करता झील का किनारा हो, पगडण्‍डी पर गुजरते हुए हम हो, पक्षियों का कलरव हो, सूरज मंद-मंद मुस्‍कराता हुआ पहाड़ों के मध्‍य से हमें देख रहा हो, हवा के झोंकों के साथ पक रही सरसों की गंध हो, कहीं दूर से रम्‍भाती हुयी गाय की आवाज आ रही हो, झुण्‍ड बनाकर तोते अमरूद के बगीचे में मानो हारमोनियम का स्‍वर तेज कर रहे हों, कोई युगल हाथ में हाथ डाले प्रकृति के नजदीक जाने का प्रयास कर रहा हो – कल्‍पना के बिम्‍ब थमने का नाम ना ले ऐसी कौन सी जगह हो सकती है? किसका मन नहीं करेगा कि वह ऐसे स्‍थान पर प्रात: भ्रमण का आनन्‍द ले!

चारों तरफ अरावली पर्वतमालाएं, शहर के मध्‍य झीलों का साम्राज्‍य, झीलों में तैरती नावें और नावों में बैठे पर्यटक कभी रजवाड़ों को देखते हैं तो कभी आधुनिक पांच सितारा होटलों को। ऐसे लगता है मानो स्‍वर्ग का सौंदर्य यहीं उतर आया है। पानी की सतह पर देश-विदेश से आकर पक्षी भी अठखेलियां कर रहे हैं और उनके मध्‍य से गुजरती हुए नाव! ताल के किसी घाट पर पूजा का मंजर है तो कहीं कहीं तैराक छपाक छपाक करके अपनी कुशल तैराकी का भी परिचय दे रहे हैं। एक पहाड़ी पर कर्णीमाता का मन्दिर बना है तो दूसरी पहाड़ी पर नीमज माता बिराज रही हैं। एक पहाड़ी पर सज्‍जनगढ़ दुर्ग विरासत बना खड़ा है तो अन्‍य पहाड़ी पर चेटक स्‍मारक शान से पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है। कहीं रस्‍से के सहारे झूला दो पहाड़ों का मिलन करा रहा है तो कहीं सजी-धजी नाव पुरातन का स्‍मरण करा रही है। एक तरफ राजसी वैभव फैला है, पग-पग पर इतिहास पन्‍ने पलट रहा है तो दूसरी तरफ आधुनिकता ने सुन्‍दरता के नवीन प्रतीमानों की स्‍थापना कर दी है।

जब सांझ ढलने लगती है, सूर्य पहाड़ों के मध्‍य होकर लुकाछिपी करने लगता है। कभी अपनी लाल उष्‍मा के साथ तो कभी पीली आभा के साथ मन में इंद्रधनुष बनाने लगता है। पक्षी भी अपने ठिकानों पर आने लगते हैं। झील के ठूंठ पर पक्षियों का बसेरा रूमानियत सी पैदा करता है। सांझ धीरे-घीरे ढलने लगती है और आकाश में तारे दप-दप करने लगते हैं। दूर पहाड़ी पर बने मन्दिर की रोशनी आकाशदीप का आभास कराने लगती है। शहर प्रकाश से नहा उठता है और शीतल सी शान्ति चहुं ओर फैल जाती है।

कभी आना मेरे शहर में। यहाँ वह सबकुछ है जो हमारे मन को कुरेदता है। कभी आपका मन फुदकेगा तो कभी आल्‍हादित होगा, कभी आप गाना चाहेंगे तो कभी आप के पैर थिरकने लगेंगे। ऐसा ही है मेरा शहर। एक छोटा सा शहर। ऐतिहासिक शहर, सांस्‍कृतिक शहर। सुन्‍दरता से परिपूर्ण और स्‍वाभिमान से लबरेज। विश्‍व के मानचित्र पर भी यह लहरा रहा होगा और देश के मानचित्र पर तो गौरव के साथ सदियों से खड़ा है। आप इसे जानते जानते थक जाएंगे लेकिन यह अपनी गाथा समाप्‍त नहीं कर पाएंगा। इसके पास इतिहास का अथाह भण्‍डार है। यह महाराणा प्रताप की भूमि है। इसे उनके पिता उदयसिंह ने बसाया था और नाम है उदयपुर। राजस्‍थान के दक्षिणी छोर पर छोटा सा एक शहर। इस शहर को स्‍पर्श कीजिए, इसके पन्‍नों को पलटिए, इसमें आपको आपका स्‍वाभिमान मिलेगा। यह आपको अपना सा लगेगा और जब इसे आप छू लेंगे तब लगेगा कि आपने इस देश की आत्‍मा को छू लिया है। बस एकबार अपनी निर्मल आत्‍मा के साथ आएं फिर इस उदयपुर शहर को अपने मन में बसाकर ही जा पाएंगे।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

2 Comments

  1. मैडम, मैं आपके कुछ ब्लॉग पोस्ट में वृद्धावस्था और बुजुर्गों के लिए व्यक्त भावनाओं को अपने अखबार में प्रकाशित करना चाहता हूं. कृपया अपनी इमेल आइडी उपलब्ध कराएं.

  2. AjitGupta says:

    रंजन जी्
    मैंने अपना ईमेल भेज दिया है। – ajit_09@yahoo.com
    आभार।

Leave a Reply