रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानियां एपिक चैनल से प्रसारित की जा रही हैं। एक कहानी जो गहरे तक आहत करती है, मन को झिझोंड़कर रख देती है, अभी देखी। स्वाभिमान क्या होता है, इसको भलीभांति समझा। स्वाभिमान किसप्रकार पिता से पुत्री में आता है, इसे भी अनुभूत किया। हमारा समाज विवाह के क्या अर्थ कर बैठा है, इसका मर्म भी अच्छी प्रकार समझ आया। कहने को तो कहा जाता है कि विवाह दो आत्माओं का मिलन है लेकिन सारी परिस्थियों को देखने के बाद लगता है कि कुछ लोगों ने भगवान रूपी पुरुष के समक्ष कन्या का समर्पण बना दिया है। समर्पण कैसे होगा, कब होगा, किन शर्तो पर होगा, सभी कुछ भगवान रूपी पुरुष की ईच्छा पर निर्भर है। दूसरी आत्मा तो केवल प्रभु का भोग है, जिसकी कोई ईच्छा नहीं। वर्तमान विवाह पद्धति में विवाह के समय प्रतिपल कन्या पक्ष को यह अनुभव कराया जाता है कि तुम केवल कन्या के समर्पण के लिए हो। कहीं स्वयं को समान आत्मा ना समझ लेना। हमारे यहाँ प्रथा है कि जब भगवान के चरणों में कुछ भी समर्पण किया जाता है तब उसकी शुद्धता, उसकी पूर्णता, उसकी गुणवत्ता को देख लिया जाता है। जो शुद्ध है, पूर्ण है, गुणवान है उसे ही प्रभु के चरणों में चढ़ाया जाता है। विवाह के समय कन्या को इसी प्रकार परीक्षण करके पुरुष के चरणों में चढ़ाने का रिवाज है।
कहानी है एक विवाह की। लड़के के समक्ष एक कन्या का विवाह का प्रस्ताव आता है। घर में लड़के के मामाजी ही सर्वेसर्वा हैं। मामाजी विवाह पक्का करते हैं और शर्त रखते हैं कि इतने जेवर देना होगा और विवाह उनके शहर में ही आकर करना होगा। कन्या के पिता दोनों शर्तें मान लेते हैं। विवाह के समय कन्या के पिता के समक्ष मामाजी प्रस्ताव रखते हैं कि वे जेवरों का परीक्षण करना चाहते हैं, कहीं नकली तो नहीं हैं? कन्या के पिता दूल्हे को बुलाते हैं और उनके सामने कहते हैं कि आपको इस बारे में कुछ कहना है? दूल्हा मामाजी के समक्ष कुछ बोल नहीं पाता है। पिता कुछ नहीं बोलते हैं और कन्या से कहते हैं कि सारे जेवर उतारकर दे दो। जेवर को सुनार जांचता है और कहता है कि ये सारे ही जेवर उम्दा है इनके कोई खोट नहीं है। तथा आपने जितना मांगा है वजन में भी उनसे ज्यादा ही हैं। मामाजी संतुष्ट हो जाते हैं। पिता कहते हैं कि आप लोग बारात को पहले भोजन करायें और इसके बाद विवाह होगा। बाराती भोजन करके चले जाते हैं और पिता मामाजी को भी विदा कर देते हैं। मामाजी सन्न रह जाते हैं। विवाह नहीं होता। दो वर्ष बाद लड़का लड़की से मिलता है और क्षमा मांगता है लेकिन लड़की कहती है कि इसमें क्षमा की कोई बात ही नहीं है। मुझे तो विवाह से बहतर विकल्प मिल गया है। एक स्वाभिमानी पिता की स्वाभिमानी संतान।
यह कहानी है आज से 100 वर्ष पूर्व की। लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो हमने अपने स्वाभिमान से कितने समझौते किये? आज अधिकतर विवाह वरपक्ष की ईच्छानुसार उनके शहर में ही होते हैं। विवाह के अवसर पर दूल्हा हमेशा खामोश रहता है। दहेज का स्वरूप कमोबेश वही है। हम लड़के वाले हैं यह वाक्य अक्सर सुनाई देता है। विवाह के समय आज भी वही शुद्धता, वही पूर्णता, वही गुणसम्पन्नता कन्या के लिए आवश्यक है। जबकि उस भगवान रूपी दूल्हे की ना तो शुद्धता का पता है ना पूर्णता का और ना ही गुणसम्पन्नता का। 100 वर्ष पूर्व पिता हिम्मत करते हैं लेकिन आज भी कितने पिता है जो हिम्मत करते हैं? यदि समाज विवाह को दो समान आत्माओं का मिलन नहीं मानती है तब विवाह का अनिवार्य होना नितान्त अवांछनीय ही लगता है। यदि यह हवन है जहाँ कन्या समिधा है और वर हवन कुण्ड तब उस हवन कुण्ड में समिधा का भस्म होना ही उसका भविष्य है। हमारी विवाह पद्धति दो आत्माओं के मिलन के अतिरिक्त नवसृजन का उत्तरदायित्व भी वहन करती है। धरती में बीज को समर्पित होना पड़ता है तब लहलहाती नयी फसल आती है। धरती और बीज दोनों को एकदूसरे के अनुरूप होना पड़ता है तब नवसृजन होता है। यहाँ ना धरती महान है और ना ही बीज महान है, महान तो फसल बनती है। इसलिए हमें इस समर्पण वाली विवाह पद्धति पर विचार तो करना ही होगा। बदलाव आया है और तीव्रता से आया है लेकिन आज भी मानसिकता वहीं हैं। हमारे मन से भगवान होने का भ्रम जाता ही नहीं। देर-सबेर वह भाव मन में उदित हो ही जाता है। जब हम वर पक्ष के होते हैं तब यह भाव तीव्रता से उदित होता है।
आजकल एक वाक्य बहुत चल रहा है – हम श्रेष्ठ है यह स्वाभिमान है और केवल हम ही श्रेष्ठ हैं यह अहंकार है। इसकारण वर पक्ष का यह अहंकार समाप्त होना चाहिए। वर्तमान में तथाकथित लव-मेरिज में भी वर पक्ष का अहंकार सर्वत्र दिखायी देता है। 100 वर्ष पूर्व जेवर की शुद्धता की जांच होती है और अब ब्राण्डेड के नाम पर जाँच होती है। लड़के के शहर में ही विवाह होना अनिवार्य सा हो गया है, बारात लेकर कोई नहीं जाना चाहता। बारात का अर्थ ही खो गया है। रवीन्द्र नाथ टेगोर द्वारा लिखी कहानी हमारे समाज का आईना है। हमने किसप्रकार लड़के के अहंकार को पोषित किया है। परिणाम सामने हैं। अनाचार अत्याचार जिस तीव्रता से बढ़ रहे हैं, वे इस अहंकार का ही परिणाम है। इसलिए यदि हम विवाह को श्रेष्ठ सृजन के लिए दो आत्माओं का मिलन ही रहने दें तो मानवता के लिए उचित होगा, नहीं तो अहंकार की विषबेल इतनी तीव्रता से विस्तारित होगी कि इस धरती पर सौम्यता के लिए स्थान ही नहीं रहेगा। लड़के और लड़की दोनों का ही स्वाभिमान जीवित रहना चाहिए, उसी से एक श्रेष्ठ सृष्टि की रचना हो सकेगी।
यथार्थ यही है ,और ऐसा आदर्श समाज बन जाय तो सारी समस्यायें हल हो जाएं .पर होता यह है कि जो अधिक समर्थ होता है -किसी भी प्रकार से हो चाहे शारीरिक सामर्थ्य में ही हो , वह स्वयं को खास समझ लेता है और यहीं से अनेक दुुराग्रह उत्पन्न होने लगते है.
प्रतिभाजी बहुत दिनों बाद आपको पढ़ रही हूँ, अच्छा लगा आपका जुड़ना। आभार।
आज कल या तो स्वाभिमान की परीभाषा ही बदल गयी है। या फिर स्वाभिमान बचा ही नहीं है। कहने का अर्थ यह है ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है यदि वर पक्ष दंभी है तो आजकल वधू पक्ष भी वैसे स्वाभिमानी नहीं है जैसे उस कहानी में दिखाये गए है।