अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

हम से अब पराया केक खाया नहीं जाएगा

Written By: AjitGupta - Aug• 24•16

अभी बच्चे ने ऊआँ ऊआँ किया भी नहीं कि दादी ने अपने बटुवे से निकालकर कुछ रूपये नवजात के हाथ से छुआकर नर्स के हाथ में रख दिये। अधखुली आँखों से बच्चे ने यह देख लिया और जान लिया कि मैं इस दुनिया में कुछ देने आया हूँ। पहला जन्मदिन आया तब भी कुछ न कुछ बच्चे के हाथों से दान कराया गया, और यह परम्परा का रूप बन गया। बच्चे से अकसर कहा जाता कि हाथ देने के लिये हैं, मांगने के लिये नहीं। देते-देते मन के अन्दर कब स्वाभिमान भरता चला गया पता ही नहीं चला। किसी में आगे हाथ पसारना मानो इज्जत का सौदा कर लेना। हमारी पीढ़ी की जिन्दगी इसी सत्य के साथ बड़ी होती गयी। जैसे-जैसे बड़े होते गये, देने का भाव भी बढ़ता गया और जब दाता बन गये तो सम्मान भी मिलता गया। घर में जो भी बड़ा, वह सबसे अधिक सम्माननीय हो गया। माता-पिता तो मानो भगवान के बराबर हो गये। जो उनकी मर्जी, वही श्रेष्ठ, वही अनुकरणीय। घर में हर काम उन्हीं से पूछकर होता।
लेकिन नयी पीढ़ी के साथ सबकुछ बदल गया। अब दान या देने का भाव श्रेष्ठ नहीं रहा। संतान को उपहार लेने की आदत पड़ गयी, बात-बात में उपहार और दान का भाव नदारत। सम्मान न जाने किस कोने में जा छिपा! जो उपहार दे, वह सम्मान का पात्र होने लगा, लेकिन उपहार भी कब तक? बच्चे का हाथ पसरता चला गया। फिर इच्छित वस्तु पाने की लालसा उत्पन्न होने लगी और इस लालसा ने पाने की जिद को जन्म दे दिया। माता-पिता का संसार अलग हो गया और संतान का संसार अलग। एक का संसार स्वाभिमान पूर्ण और दूसरे का संसार वैभव पूर्ण। एक ने दान दे-देकर सादगी को अपना लिया तो दूसरे ने उपहार पा-पाकर वैभव को अंगीकार कर लिया। एक अपने गाँव-कस्बे में खुश तो दूसरा सरहदों को पार करने लगा। सरहदों के पार बच्चों की खुशियाँ बसने लगी और सरहदों के दायरे में माता-पिता की खुशियाँ दम तोड़ने लगी। उनका स्वाभिमान, उनकी सादगी अब बीते कल की बात हो गयी। अरे आप जितनी तनख्वाह से ज्यादा तो हमारे यहाँ चपरासी को मिलती है. दबी जुबान से यह बात कही जाने लगी। सम्मान ताक पर चले गया और वहीं से बैठा-बैठा समय के फेर को देखता रहा. एक दिन उसने भी छलांग लगायी और बच्चों के गोद में जा बैठा। घर में सम्मान का स्थान अब माता-पिता की जगह बच्चों के पाले में आ गया। बच्चे अनुकरणीय बनते चले गये, घर के काम उनकी इच्छा से होने लगे।
नन्हें अतिथि के स्वागत में पहले भी दादी-नानी बिछ जाती थी, अब भी बिछने के लिये तैयार रहने लगी, लेकिन अब परिदृश्य बदल गया। नन्हा मेहमान सरहदों के पार जन्म लेने लगा और सादगी व स्वाभिमान से परिपूर्ण जिन्दगी सरहदों से भीख मांगने लगी। मेरे रक्त से मिलने का अवसर दे दे, सामने से दुत्कार आ जाती – हमारे वैभव में रम तो नहीं जाओगे? कैसे बतायें कि एक दाना भी मुफ्त का नहीं लिया और तुम हमें लालची सिद्ध कर रहे हो! सरहद के पहरेदारों की मर्जी पर आपका स्वाभिमान गिरवी रख दिया जाने लगा। हम तो यह दोहा पढ़-पढ़कर बड़े हुये थे – रहिमन वे नर मर गये जो कहीं मांगन जाय, और अब मांगने के साथ ही स्वाभिमान को मारने जैसा जतन हो गया। जब स्वाभिमान ही शेष नहीं रहा तब जिन्दगी भर कमाया आत्मविश्वास भी डोल गया। परदेश में ऐसा नहीं करना और वैसा नहीं करना, की लाचारी हमेशा साथ चिपक गयी। देश की मुद्रा बदल जाने से दान देने वाले हाथ रिक्त हो गये। हाथ रिक्त हुये तो सम्मान छिटक गया। एक असहाय से प्राणी जिनकी समाज में कोई अहमियत नहीं होती, बनकर माता-पिता रह गये। कल तक जो मुठ्ठी भर दौलत में भी राजा बने हुये थे आज परदेस में बसे पुत्र में सामने भिखारी से भी ज्यादा खराब स्थिति में आ गये।
अपने गाँव-देहात में कभी रसोइये के हाथ में 500 रूपये धरती तो कभी मेहतरानी के हाथ में पचास रूपये धर कर खुश हो लेती और दान के भाव को बनाकर अपने स्वाभिमान को सहेजकर रख लेती घर की दादी अब उलझन में झूलने लगी। क्या-क्या बिसरा दूँ? जब मखमल से बना घाघरा और उसपर गोटे-पत्ती के काम की ओढ़नी पहनकर गाँव में निकलती थी तो उम्रदराज भी शोहदे बन जाते थे, क्या इस पहनावे को छोड़ दूं? अपने पल्लू में हमेशा कुछ रूपये बांधकर निकलने वाली दादी, जब सामने कोई भी बच्चा मिल जाता तो झट गोली-बिस्कुट के नाम पर उसके हाथ में दो-चार रूपये धरकर बड़ा होने को भाव को छोड़ दूँ? रात-बिरात कोई भी रिश्तेदार घर का दरवाजा खट-खटा देता और उसके लिये आधी रात को भी थाली में दो रोटी परोसने का मन का सुख छोड़ दूँ? आस-पड़ोस में बच्चा होने पर दायी का हाथ बँटाने के लिये सबसे पहले जाकर खड़े हो जाने का कर्तव्य भाव छोड़ दूँ? जच्चा-बच्चा के गीत छोड़ दूँ या शादी-ब्याह के नाच छोड़ दूँ? समधी दरवाजे पर खड़े हों तो गाली गाने का हक छोड़ दूँ? गाय और कुत्ते को रोटी देने का रिवाज छोड़ दूँ या आस-पड़ोस के बच्चों को खिलाने का शौक छोड़ दूँ? अपनी जूती पहनकर गाँव भर को नापने का अरमान छोड़ दूँ. या नदी किनारे जाकर कपड़े धोने का चाव छोड़ दूँ? यदि इन सबको छोड़ दूँ तो फिर जीने का आधार ही क्या रह जाएगा, तो क्यों ना अपने देश में ही प्राण छोड़ दूँ।
नहीं, ना प्राण छोड़े जाएंगे और ना ही देश छोड़ा जाएगा। ना दान देने का हाथ खींचा जाएगा, ना मांगने को हाथ पसारा जाएगा। जब अपने देश की ठण्डी हवा शरीर को छूकर निकलेगी तो समझेंगे कि किसी अपने ने सहला दिया है। जब बरसात बरसकर मन को तृप्त कर देगी तो समझेंगे कि किसी अपने ने बाहों में भरकर सम्मान दे दिया है। यह गर्मी, यह सर्दी ही अब हमारी है, यह अपने गाँव की चार दीवारी ही हमारी हैं, यह घर की चौखट से बनी सुरक्षा ही हमारी है। हम चुटकी में चावल लेकर ही खीर बनाने को तैयार रहेंगे। हम से अब पराया केक खाया नहीं जाएगा।

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2 Comments

  1. आजका यही परिदृश्कय है , हर प्रौढ़ यही जी रहा है और अपनी धरती छोड़ कर जाना भी नहीं चाहता । अपनी धरती की माटी की सौंधी महक और पसंद का भोजन ही असली जीवन है ।

  2. AjitGupta says:

    आपका स्वागत है रेखा जी।

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