आप लोग न जाने किस किस से डरते होंगे लेकिन मुझे तो अब स्वयं से ही डर लगने लगा है। हँसिये मत और ना ही आश्चर्य प्रकट कीजिए, बड़े-बूढ़ों ने कहावत ऐसे ही नहीं बनायी थी – साठ साल में सठिया गया है बुढ्ढा। साठ साल पूरा होते ही मन बेचैन रहने लगा है, अपनी हर बात पर शंका होने लगी है कि ये सठियाने के लक्षण तो नहीं है? आइने के सामने जाओ तो बालों पर दृष्टि दौड़ जाती है, अंगुलियां फिरा-फिराकर सफेदी ढूढी जाती है और जैसे ही सफेदी की चमकार चमक उठती है, कलेजा मुँह को आने लगता है। लेकिन फिर मन सोचता है कि सफेद बाल से भला सठियाने का क्या वास्ता? मन शान्त होता है लेकिन तभी बच्चों की खिलखिलाहट सुनायी पड़ जाती है कि देखा सठियाने के लक्षण आने लगे हैं। गुस्से में उनकी तरफ यदि आप देख भी लो तो एक और प्रश्न उछाल दिया जाता है कि आँखों की भी जाँच करा लेना – यहाँ भी सठियाने के लक्षण उत्पन्न ना हो गए हों? हम शरीर को जैसे-तैसे साधकर सठियाने से दूर रहने का प्रयास करते हैं लेकिन हमारी प्रत्येक बात को दुनिया सठियायी नजरिये से ही देखती है। सरकार तो समझदार है – साठ साल हुए नहीं कि छुट्टी। वे अपने साथ सठियाये व्यक्ति को रखती ही नहीं, हाँ विश्वविद्यालय आदि में 65 वर्ष तक नौकरी की छूट है। कहा जाता है कि प्रोफेसर आदि तो अपनी उम्र के पहले ही सठिया जाते हैं तो वे 65 को हों या 55 के, अन्तर नहीं पड़ता।
राजनीति तो प्रारम्भ ही 50 के बाद होती है इसलिए 60 साला पठ्ठा स्वयं को जवान मानता है। लेकिन इस क्षेत्र में भी 25 साल के युवा भी प्रवेश करने लगे हैं तो यहाँ भी सठियाने की प्रथा प्रारम्भ हो गयी है। नहीं तो भला राजा को कोई सठियाया कह सकता था? वह तो कब्र में जाते जाते भी युवा ही रहता है। लेकिन अब जितनी तेजी से युवा लोगों की एण्ट्री हो रही है उतनी तेजी से सठियाने के रोग का निदान भी हो रहा है। पहले 80 साल हो जाए या 90, कोई कहता ही नहीं था कि अब राजनीति में आपकी आवश्यकता नहीं है लेकिन अब तो 70 के बाद ही प्रश्न खड़े करने लगते हैं तो सठियाने की प्रवृत्ति का भी पता चलता है। अपने शरीर का कलफ चाहे समाप्त होने लगा हो लेकिन कपड़ों का कलफ अब बढ़ने लगता है। बाल भी डाई के तिलिस्म से छिपा लिये जाते हैं। दाँत तो पहले से भी अधिक सुन्दर बनकर आपके चेहरे की शोभा बढ़ाने लगते हैं। ऐसे में तरोताजा हुए नेताजी निकल पड़ते हैं टिकट मांगने। तलवार तानकर सीधे खड़े हो जाते हैं युवाओं के सामने। अभी तुम्हारे तो दूध के दांत ही नहीं झड़े, भला तुम्हें क्या अनुभव? अभी तो मैं हूँ, कहकर ताल ठोक देते हैं। कोई भी ठस से मस नहीं होना चाहता। ऐसे ताल ठोकू नेताओं को देखकर ही अपने दिल और दिमाग के प्रति भी संदेह उग आता है। कहीं ये भी हमें गच्चा तो नहीं दे रहे हैं?
अपने प्रति ही डर का यह आलम है कि बच्चों से बात करते समय भी डर लगने लगता है कि कहीं वे हमें सठियाया हुआ नहीं समझ लें। वे पूछते हैं कि तबियत कैसी है? हम कहते हैं कि एकदम झकास। यदि कह दें कि नहीं ठीक नहीं है, तो तपाक से पूछा जाएगा कि क्या हुआ है? हम कहेंगे कि शरीर में दर्द रहता है, वे कहेंगे कि उम्र के साथ तो यह सब होता ही है, इसमें चिन्ता की बात क्या है? किसी की शिकायत कर दें कि उसने ऐसे किया और ऐसे कह दिया तो उत्तर मिल ही जाएगा कि लग रहा है कि आप सठिया रहे हो। इस उम्र में भी इतनी चिन्ता कर रहे हो, किसी के कहने और सुनने की। अब तो भगवान में ध्यान लगाओ। लोग तो राजनीति में सत्ता हथियाने की जुगत में 90 साल तक भी रहते हैं और हम 60 साल बाद ही भगवान में ध्यान लगा दें! यदि लोग सीधे से नहीं भी बोले कि सठिया रहे हो तो भी उनकी बात ऐसी ही लगती है कि उस बात का भाव यही है कि आप सठिया रहे हैं। लेकिन यह सठियाना होता क्या है?
किसी चीज को पाने की जिद सठियाना है? किसी बात को मनवाना सठियाना है? किसी को अपनी बात सुनाना सठियाना है? हर बात का मतलब गलत लगाना सठियाना है? केवल खुद की ही चलाना सठियाना है? आखिर सठियाना है क्या? पहले साठ साल के होने को बहुत बड़ी तोप माना जाता था, इसलिए षष्ठीपूर्ति समारोह मनाया जाता था। उसके बाद मान लिया जाता था कि अब दिन दो-चार ही हैं। तो व्यक्ति भगवत-भजन में मन लगाता था। घर की बातों में टांग नहीं अड़ाता था। लेकिन अब तो साठ के बाद तो अनुभव की जवानी आती है इसलिए हर बात में टांग अड़ाना परम कर्तव्य हो जाता है। इसलिए मन दो-राहे पर खड़ा है, 80 साला लोगों को जिद करते हुए और सठियाते हुए देखकर डर लगने लगा है कि कहीं हम भी सठियाने की लाइन में तो आकर नहीं खड़े हो गए हैं? व़ैसे भी आजकल युवाओं को जोश ज्यादा ही है, वे कभी भी कह सकते हैं कि तुम्हारी उम्र तो हो गयी अब सठियाने लग रहे हो इसलिए शान्त रहो। सामने नहीं तो पीठ पीछे तो कह ही देते होंगे कि बुढ्ढा/बुढ़िया सठिया गयी है तभी तो हमें ज्ञान दे रही है। हम तो इतने पढ़े-लिखे भला हमें किस ज्ञान की जरूरत?
इसलिए हर पल हमें डर बना रहता है, जैसे मोमबत्ती डर-डर कर जीती है वैसे ही हमारा भी हाल है। आपकी बात पूरी सुने बिना ही आप पर ठप्पा लगा दिया जाता है कि सठिया गया है। जैसे बच्चों की नहीं सुनी जाती वैसे ही उम्रदराज बूढ़ों की नहीं सुनी जाती। राजनीति में तो सभी जगह दंगल मचा हुआ है। घर परिवार में तो ऐसे दंगल रोज की ही बात है। छोरे-छोरियां यदि डिस्को कर रहे हों और गलती से किसी बुजुर्ग ने कह दिया कि भारतीय संस्कृति में ऐसा नहीं हैं तो लपक कर उत्तर आएगा कि भारतीय संस्कृति में तो 75 के बाद संन्यास आश्रम है, आप अभी तक घर में क्यों पड़े हैं? कई लोग इस डर से बचने के लिए लाल रंग की शर्ट और काली पेन्ट पहनते हैं साथ ही हेट भी लगाते हैं, जिससे उनपर सठियाना हावी ना हो। लेकिन उनकी लाल शर्ट को देखकर कहीं न कहीं से फूलझड़ी छूट ही जाती है कि देखो बुढ्ढा सठिया गया है। इसलिए अब तो फूंक-फूंक कर कदम रखने जैसा हो गया है। एक मन तो करता है कि 75 को किसने देखा, अपन तो अभी से संन्यास ले लो और रहने लगो सारे ही सठियाये लोगों के बीच। कोई अब क्या कह लेगा? खूब मजे से गाइए – हू लाला हू लाला।
समय रहते बुढापे की और कदम बढ़ाते लोगों को संभल जाना चाहिए … बदलाव के इस दौर को भी समझना और झेलना होगा …
नासवा जी, कभी ये बदलाव स्वभाव के कारण ज्यादा कठिन बन जाते हैं, इसलिए सतर्क रहना चाहिए।
बदलती भौगौलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के मद्देनजर सठियाने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती, इसलिए बिना डारे जिए बिंदास , जो मन चाहे करे , खुश रहे !
वाणी जी, बड़ी ही जिंदादिली वाली बात कह दी, लेकिन लोगों को सठियाते देख डर लगने लगता है कि कहीं ये सारे लक्षण हमारे अन्दर तो नहीं आ जाएंगे।
हम तो सठियाने से भी बहुत आगे बढ़ आये – कोई दूसरा विशेषण प्रदान किया जाएगा क्या ?
हाँ प्रतिभाजी, अब और कोई शब्द बनना चाहिए। क्योंकि पूर्व में साठ के बाद जीवन कठिन था तो सीमा साठ बना दी थी लेकिन अब तो 80 तक लोग ठाठ से जीते हैं इसलिए शब्द कोई नया ढूंढिए।
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रोखो गोय।
छोटा मुंह बड़ी बात इन सब समस्याओं का एक ही इलाज है। “जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए”…या फिर ‘मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में’
क्यों डरा रहे हो ! अभी मेरी उम्र ही क्या है 🙂
हम तो बचपन से ही सठियाये हुये हैं, इसलिये इस बात से डर नहीं लगेगा 🙂
अब तो लोग साठ साल में भी जवान लगते हैै ़सठियाने की उम्र बढ गयी हैै,डरने की बात ही नहीं हैै ,हा हा ह् ,
काहे का डर …… मजे से गाइये हू ला हू ला।