अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

गुलाम बन रहे हैं हम

Written By: AjitGupta - Jul• 29•16

आपके कार्यस्थल को अच्छी तरह जाँचे-परखे और फिर निर्णय करें कि आप किस कीमत पर वहाँ अपनी सेवायें दे रहे हैं। यदि आपकी सेवायें किसी एक व्यक्ति की कृपा पर निर्भर है तो मानिये कि आप गुलामी की जिन्दगी जी रहे हैं। ऐसी गुलामी से अच्छा है कहीं छोटा सा व्यापार करना। आज देश में लोकतंत्र है लेकिन वास्तविकता में कहीं भी लोकतंत्र दिखायी नहीं देता। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी व्यक्ति की अनुकम्पा का मोहताज रहता है, अनुकम्पा हटी और आप का भविष्य समाप्त। अनुकम्पा बनाये रखने के लिये आपको गुलामी के दौर से गुजरना पड़ता है, यदि आप यह करने में असमर्थ हैं तब अनुकम्पा बनी नहीं रह सकती है।
अनुकम्पा भी कैसी-कैसी? सामने वाला किसी भी बात से नाखुश हो सकता है और आपकी जीवन भर की सिंचित इज्जत किसी भी क्षण मिट्टी में मिल सकती है। आप तलाशिये अपने आस-पास कि आपको कहाँ-कहाँ समझौता करना पड़ा और कहाँ-कहाँ अपने सम्मान को मारना पड़ा! हम महिलायें तो अपनी बात अक्सर कह देती हैं लेकिन पुरुष अक्सर अपनी बात नहीं कह पाते। भारत में बुद्धि की देवी चाहे सरस्वती हो लेकिन अधिकांश नहीं मानते कि महिला विदुषी होती है। महिला इस सत्य के साथ जीती है और इस सत्य को सिद्ध भी करती रहती है, यही उसकी संघर्ष यात्रा है लेकिन पुरुष ऐसा नहीं कर पाते। महिला समाज के मध्य सार्वजनिक रूप से आजादी के बाद ही आयी है लेकिन पुरुष तो प्रारम्भ से ही सार्वजनिक जीवन जीते आये हैं। उन्हें इस गुलामी का गहरा अनुभव है, वे शायद इसके आदि भी हो गये हैं। जब मैं उन्हें गुलामी करते देखती हूँ तो मन आक्रोश से भर जाता है लेकिन जब परिणाम देखती हूँ तब उनकी मजबूरी पर तरस आता है। सत्ता के लिये, पद के लिये, नौकरी के लिये हम कैसे-कैसे समझौते करते हैं! इससे अच्छी तो हम महिलायें हैं जो घर में रानी बनकर रहने का अवसर पाती हैं। जो महिलायें पति के पीटने पर भी विचलित नहीं होती उसका भी शायद यही कारण होगा कि सार्वजनिक जीवन में गैरों की गुलामी से तो परिवार जीवन में एक आदमी की गुलामी ही अच्छी है।
मुझे सड़क पर टोकरा लेकर सब्जी बेचती महिला ज्यादा सुखी दिखायी देती है बनिस्पत उस महिला के जो लाखों रुपये कमाती है लेकिन अपनी मर्जी से अपने बीमार बच्चे की भी देखभाल नहीं कर सकती। यहाँ महिला के स्थान पर पुरुष भी हो सकता है। हमने अपनी खेती छोड़ दी, हमने अपनी दुकान छोड़ दी और आ गये गुलामी के मैदान में। आज दुनिया का अधिकांश व्यक्ति गुलामी का जीवन जी रहा है, वह किसी भी दिन सड़क पर आ सकता है। इसमें खुद को राजा समझने वाले लोग भी हैं और सामान्य प्रजा भी। आज राजा भी तो वोट के सहारे ही जिन्दा है! वोट के लिये उसे क्या-क्या नहीं करना पड़ता! अपना धर्म तक गिरवी रखना पड़ता है। जिस कलाकार को हम मरजी का मालिक मानते थे आज वह भी गुलामी का जीवन जीने लगा है। लेखक, पत्रकार सभी तो अपने सुखों के लिये गुलामी स्वीकार कर रहे हैं। इस गुलामी की जंजीर से मुक्त हो सको तो बेहतर जीवन जी सकोंगे नहीं तो आजादी की खुली हवा क्या होती है, जान ही नहीं पाओंगे।

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