अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

जैसा निर्माण वैसा कर्म

Written By: AjitGupta - Apr• 09•16

मेरे पिताजी ने अपनी बगिया में कुछ आम के पेड़ लगाये। अलग-अलग कलम से किस्म-किस्म के आम। ये आम हम भाई-बहन थे। औरों का तो पता नहीं लेकिन मुझे अपना पता है कि वे मुझे क्या बनाना चाहते थे, मुझे किस किस्म की कलम से तराशा गया था। जब किसी पेड़ पर लंगड़ा आम लगने लगे तो फिर वह लंगड़े आम का ही पेड़ बन जाता है, उसे बाद में दशहरी नहीं बनाया जा सकता है। मेरे साथ भी यही हुआ, उनका सारा ध्यान था कि मैं ज्ञानवान बनूं, तार्किक बनूं। जन्म के साथ स्त्रीत्व मिला था तो आदते भी तदुनूरूप ही होती हैं और चाहते भी। लेकिन उनकी सख्त हिदायत थी कि रसोई, कढ़ाई-बुनाई, मेहंदी, मांडना आदि तुम्हारी प्राथमिकता नहीं हो सकती। बस ज्ञान बंटोरना ही एक मात्र लक्ष्य था।

ऐसा नहीं था कि हम अमीर थे और नौकर-चाकरों वाला घर था, लेकिन वे कहते थे कि आवश्यकता पड़ने पर ही रसोई में जाओ। जब हमारी माँ हमारे ननिहाल जाती थी तब हम खाना बनाते थे। इस धरती पर गुस्से के लिये दुर्वासा ऋषि का स्मरण किया जाता है और हमारे पिता उनका ही रूप धारण करके धरती पर अवतरित हो गये थे लेकिन जब हमें खाना बनाना हो तो वे शान्त हो जाते थे। कैसा भी बना दो कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि हमें भोजन में कम और शिक्षा पर ज्यादा ध्यान जो देना होता था। एक बार हमारे बड़े भाई आये, हमे कॉलेज जाता देख उनकी भृकुटी तन गयी। जैसे ही पिताजी को पता लगा वे बोले कि यह तुम्हारे लिये खाना बनाकर कॉलेज जा रही है यह क्या कम है? नहीं तो तुम्हें खाना बनाना चाहिये था। ऐसे निर्माण हुआ था हमारा।

वे कई बार हमें ताना भी मारते थे – कहते थे कि मैंने तुम्हें लड़कों की तरह पाला और कमाने योग्य बनाया। अब तुम्हें ऐसे लड़के से विवाह करना चाहिये जो घर सम्भाल सके। “की और का” तो अब आ रही है, हमारे यहाँ पहले ही आ गयी थी। मैंने एक पढ़े-लिखे लड़के से विवाह किया इस बात का ताना वे हमेशा देते रहे। उनके मन में कभी भी स्त्री-पुरुष का भेद नहीं था, वे हम दोनों बहनों को लड़कों की ही तरह बनाना चाहते थे। हम सारे ही लड़कों वाले खेल खेलते थे, शिक्षा के समय भी यह नहीं सोचा कि लड़कों के साथ पढ़ना है या लड़कियों के साथ। मैं अपने कॉलेज में एक मात्र लड़की थी। प्रबुद्ध बनाना उनकी प्राथमिकता थी।

इस प्रकार के निर्माण से हमने अपना स्त्रीत्व पीछे धकेल दिया था। महिला होने के कारण कोई हमारी उपेक्षा करे यह हमें बर्दास्त नहीं। हमें कर्तव्य निर्धारण के समय पीछे धकेल दिया जाय तो हमारे तन-बदन में आग लग जाती है। हमने महिला होने का खामियाजा कदम-कदम पर भुगता लेकिन फिर भी कभी नहीं कहा कि महिला होने के कारण ऐसा हुआ। लेकिन कष्ट तब होता है जब किसी भी महिला को प्रबुद्धता की दृष्टि के स्थान पर केवल महिला की ही दृष्टि से ही देखा जाता है। मुझे भी ऐसे कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा तब मैंने चिंतन किया कि मेरा निर्माण किन पदार्थों से हुआ है? क्या मैं अपने पिताजी की तपस्या को मिट्टी में मिलने दूं या छोटी-मोटी महत्वाकांक्षाओं को लेकर केवल स्त्रीयोचित कार्य ही करने में जुट जाऊँ? आज बहुत आसान है किसी भी संस्था में महिला के लिये पद पाना, बस लोगों को भोजन कराइये उनका सत्कार कीजिये आप किसी भी जगह पद और प्रतिष्ठा पा लेंगी। सामाजिक कार्यों में जहाँ महिला कार्य की नितान्त आवश्यकता है वहाँ भी यदि प्रबुद्धता को स्थान ना मिले तो निराशा होती है। अपना आत्मसम्मान बनाये रखना स्वयं का ही उत्तरदायित्व होता है। हमें थोड़ा सा पाने के लिये अपने जीवन की नींव को ही उखाड़ने का कभी प्रयास नहीं करना चाहिये। आपके माता-पिता ने आपका जिस सोच के साथ निर्माण किया है, अपनी तुच्छ सी महत्वाकांक्षाओं में उन्हें बर्बाद ना होने दें। नहीं तो आप नकली जीवन ओड़े घूमते रहेंगे तथा लंगड़े आम के पेड़ पर दशहरी तो नहीं उगा पाएंगे उल्टे लंगड़े से भी हाथ धो बैठेंगे।

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