अभी एक और ज्वलंत समस्या से हमें दो-हाथ होना है। अभी पुरुष बर्बरता के कारण महिलाएं संकट में पड़ी है, देश और दुनिया इनकी बर्बरता का हल ढूंढ रहे है। सारा ही देश आंदोलित है, लेकिन तर्क-वितर्क से समाधान नहीं समझ आ रहा। पुरुष की बर्बरता सभी ने स्वीकार की है लेकिन उसे अनुशासित करना होगा, उस पर नियन्त्रण रखना होगा, ऐसी आवाज कहीं से भी नहीं आ रही है। उल्टे पीड़ित पक्ष को ही अपने बचाव के साधन अपनाने होंगे, ऐसे ही समाधानों की झड़ी लगी है। एक पक्ष कहता है, घर से बाहर निकलो, दूसरा कहता है, नहीं, घर के अन्दर रहो। लेकिन सुरक्षा कहीं नहीं है, ना घर में हैं और ना ही बाहर। देश में तन की लूट मची है, जिसे मौका मिल रहा है वह लूट में शामिल हो जाता है। लूटने वाला चोर नहीं कहलाता, उसे चोर बनने में कोई शर्म नहीं। लुटने वाला शर्मिंदा है। लेकिन मेरे लेखन का आज यह मुद्दा नहीं है। मुद्दा है, धन की लूट का। धन को लूटने के साथ-साथ अकेले निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे बूढ़े माता-पिता की हत्या का। आज का समाचार-पत्र इन खबरों से भरा है, जैसे कल तक बलात्कार की घटनाओं से भरा था। लेकिन कई बार विभस्तता इतनी प्रबल होती है कि वे सुर्खिया बन जाती हैं और देश को आंदोलित कर जाती हैं। ऐसी ही बड़ी घटना का शायद देश और मीडिया इंतजार कर रहा है। कब बूढ़े माता-पिता की नृशंस हत्या हो और देश को आंदोलित करें।
कई दशक पूर्व गाँव से निकलकर युवा शहरों की ओर रोजगार की तलाश में गए। युवाओं से गाँव खाली होने लगे। लेकिन खेतीहर किसान के पास लुटने के लिए बहुत कुछ नहीं था। फिर नगर से महानगर की और पलायन हुआ, अभी भी धन की चकाचौंध ऐसी नहीं थी कि कोई किसी को लूटने के लिए उसकी हत्या कर दे। लेकिन दस-बीस साल से ऐसा दौर आया है कि युवा अधिक संख्या में विदेश जाने लगे। देश में पैसा भी आने लगा। कुछ माता-पिता का स्तर भी सुधरा लेकिन सम्पन्न माता-पिता का स्तर पूर्व में भी अच्छा ही था। ऐसे माता-पिता के पास विदेश से पैसा तो नहीं आया लेकिन समाज में भ्रम का निर्माण होने लगा। पुत्र विदेश में है, तो लक्ष्मी बरस रही है, ऐसे ताने सुनने को मिलने लगे। नौकर-चाकरों के भी कान खड़े होने लगे। उन्हें लगने लगा कि बूढे-बूढी के पास धन है। महानगर की त्रासदी है कि भीड़ में भी सभी अकेले हैं। नौकर ने देखा कि बूढें-बूढ़ी के पास सुरक्षा किसी की नहीं है। अकेले ही रहते हैं। एक दिन मौका ताड़कर खंजर घुसा दिया। धन मिला भी नहीं लेकिन हत्या हो गयी। बुढ़ापे में बोझ बने माता-पिता का अन्त हो गया। संतान को संताप तो हुआ लेकिन बदनामी खास नहीं हुई। क्योंकि देश की बदनामी विदेश तक नहीं पहुँची।
देश में आठ करोड़ वृद्धजन। देश के दो करोड़ भारतीय विदेश में। लाखों वृद्ध माता-पिता अकेले रहने के लिए अभिशप्त। ना वे विदेश जाकर अपनी संतानों के साथ रह सकते हैं और ना ही वृद्धाश्रम में जाकर रहने की मानसिकता अभी बना पाए हैं। अभी उन्हें अपना समाज सुरक्षित दिखायी देता है। लेकिन जिस प्रकार से आम व्यक्ति पर समाज और परिवार का अनुशासन समाप्त हुआ है और वह गाँव से रोजगार के लिए पलायन कर नगरों और महानगरों में आकर बसा है, वह नियंत्रणहीन हो गया है। प्रशासन का डर अभी देश उत्पन्न नहीं कर पाया है। परिणाम, निरकुंश हुआ आम व्यक्ति अपराधों में डूब गया। पैसा कमाने का सरल तरीका समझ आ गया। भारतीय परिवार नौकरों के आदि हैं, वे बिना नौकर के घर की कल्पना नहीं कर सकते। इसलिए प्रत्येक परिवार की आवश्यकता हैं नौकर। लेकिन कब किसकी नीयत बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। बस कौन कब शिकार बनेगा, कुछ पता नहीं।
देश ने कानून भी बनाए हैं। अब वृद्ध माता-पिता की सेवा करना संतानों का कर्तव्य होगा। शिकायत होने पर उनके प्रति कार्यवाही भी हो सकेगी। लेकिन अभी कितने माता-पिता हैं जो अपनी संतानों की शिकायत करें? स्वयं का केरियर बनाना हम सबकी महत्वाकांक्षा है लेकिन कुछ कर्तव्य भी हमारे हैं, जिनमें माता-पिता का सम्मान और सुरक्षा संतान का प्रथम कर्तव्य है। हमारे यहाँ कहा गया है कि 25 वर्ष माता-पिता संतान को पालती है और बाद के 25 वर्ष संतान माता-पिता को पालती है। जितने प्रेम से माता-पिता ने अपनी संतान को पाला है उसी प्रेम और सम्मान की आशा माता-पिता भी रखते हैं। लेकिन माता-पिता के लिए प्रेम में कंजूसी संतान कर देती है। ऊनके लिए बोझ और फालतू का सामान बन जाते हैं, माता-पिता। जिन माता-पिता का जीवन सम्मान पूर्वक व्यतीत हुआ हो और जिनका समाज में आज भी सम्मान हो, ऐसे माता-पिता संतान के असम्मान को समझकर अकेले जीवन व्यतीत करने का निर्णय लेते हैं। विदेशी धन की चकाचौंध में लुटेरे यह नहीं समझ पाते कि जिन माता-पिता ने सम्मान का वरण किया है वे भला कैसे धन को स्वीकार करेंगे? लेकिन लुटेरे भ्रम में आ जाते हैं और उन्हे लगता है कि विदेश में बसे पुत्रों के माता-पिता के पास बहुत सारा धन होगा और इसी भ्रम का वे शिकार बन जाते हैं। यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, इसे समय रहते समझने की आवश्यकता है। आप और हमें अपने भविष्य के प्रति सावधान होने की आवश्यकता है।
विकराल समस्या है , असहायों की कोई सुरक्षा नहीं …
बड़े शहरों में तो आये दिन अख़बारों में ऐसी खबरे पढने को मिलती हैं | कोई कड़ी है जो छूट रही है| बच्चों और मातापिता में कुछ ऐसी ही दूरियां आ रही हैं जो आपने सामने रखी हैं | पूरे समाज के लिए विचारणीय विषय है यह ……………
समस्या सिर्फ गाँवो तक की ही नही है, दिल्ली जैसे शहरों में भी ऐसे वृद्ध-बुजुर्गों की खासी तादात है जिनके बच्चे विदेश अथवा दूसरे शहरों में है और उनपर रोज यह तलवार लटकती रहती है। पारिवारिक दायित्वों की अनदेखी जहां एक बड़ा कारन हो सकता है वही इस जनता को इसमें सरकार की जबाबदेही भी तय करनी होगी। अफ़सोस इस बात का भी है कि जब यही कुछ शहरे बुजुर्ग सरकार में बड़े ओहदों पर कार्यरत थे , तब इन्होने ने भी इस सम्बन्ध में ख़ास कोई प्रयास नहीं किये। शायद इन्हें यह इल्म न था की इन्हें भी एक दिन बुड्ढा होना है , इसी गाँव, शहर में रहना है, नौकरे पेशे के चक्कार में इनके बच्चे भी एक दिन इन्हें छोड़कर दुसरे शहरों / देश को पलायन करेंगे !
गोदयाल जी यह समस्या महानगरों मं ही अधिक है।
भारत में स्थिति विषम है ,पर पाश्चात्य देशों में भी परिवार में सिर्फ
पति-पत्नी और उनकी संताने गिनी जाती हैं .मता-पिता अलग रहें या वृद्धश्रमों में.
विशेष अवसरों पर बच्चे मिलने चले जायँ या मेहमान के रूप में कुछ समय रह जाएँ – पर यहाँ के लिये यह सामान्य बात है.भारत की स्थितियाँ अलग हैं ,समस्यायें बहुत है और समाधान कहीं नहीं .अव्यवस्था हर जगह ,सब फ़ायदा उठाने और लूटने पर उतारू .कोई सुरक्षित नहीं ,न महिलाएं ,न वृद्ध-जन !जीवन की दौड़ ऐसी है कि केरियर बनाए बिना काम नहीं चले ,और उसके बाद घानी के बैल की तरह आँखें पर पट्टा चढ़ा कर चक्कर में पड़ जाते हैं लोग.
इस घोर भौतिकता ने हर क्षेत्र में . सारे जीवन-मूल्य घोल कर पी डाले हैं.
प्रतिभाजी्, विदेश में कम से कम सुरक्षा तो है, यहां यह भी नहीं है। इसलिए यह समस्या भारत की अधिक है।
स्थानीय रूप से रोजगार नहीं होने पर न चाहते हुये भी युवाओं को अपने परिवार से दूर रहना पड़ रहा है। कुछ को इस प्रकार दूर रहना एक बहाने की तरह मिल जाता है, वृद्धों पर ध्यान न देने के लिये, ऐसे लोगों का अपराध अक्षम्य है।
अपने देश में ये समस्या ज्यादा है क्योंकि अपनी सोच के चलते हम इस बात के लिए तैयार नहीं होते ओर बुढापे के लिए अर्थ का संचय नहीं करते … विदेशों में १३-१४ वर्षों के बाद संतान अपना खुद देखती है ओर लोग अपने बुढापे के अनुसार व्यवस्था करने में जुट जाते हैं … सही क्या गलत क्या ये विवाद का विषय हो सकता है … पर आज के माहोल के अनुसार देखो तो वो शायद ठीक करते हैं …
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी पोस्रट के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-01-2013) के चर्चा मंच-1130 (आप भी रस्मी टिप्पणी करते हैं…!) पर भी होगी!
सूचनार्थ… सादर!
सही कहा कि हम मात पिता बनकर बच्चों की देखभाल तो करते हैं , लेकिन जिन्होंने हमारी देखभाल की , उनकी देखभाल करना हम करना भूल जाते हैं। यह क़र्ज़ तो चुकाना ही चाहिए।
अक्षम्य ही नही इसे जघन्य अपराध की श्रेणी में देखा जाना चाहिये.
रामराम.
सार्थक और जरुरी पोस्ट आँखें खोलने में सक्षम अच्छी जानकारी आभार
गहन लेख और चिंता का विषय भी है …
सार्थक मुद्दा उठाया है ….. पिता अपनी सभी संतानों को पाल लेता है लेकिन सब संतान मिल कर एक पिता को नहीं पाल पाते …. अब समय है कि मानसिकता बदली जाये …. वृद्धाश्रम को मजबूरी नहीं ज़रूरत समझना चाहिए । आज यह समस्या शहरों में बहुतायत से पायी जा रही है …..
महानगरों में अब यह आम समस्या हो चुकी है।
सार्थक एवं बेहद विचारणीय पोस्ट ….देश में चल रही सभी गहन समस्याओं में से यह भी एक महत्वपूर्ण विषय है सोचने के लिए इस पर भी अमल करने कि उतनी ही जरूरत है जितनी की अन्य मुद्दों पर….
Kiran Mala Jain से प्राप्त टिप्पणी –
बहुत ही दिल पर चोट करने वाली व सदमे की स्थिती में पहुँचाने वाली समस्या है ,और मज़ा यह है कि जिस तरह बलात्कार करने वाले को शर्म नहीं आती जिसका बलात्कार होता है वह शर्म से मर जाती है,उसी तरह यहाँ जिन बच्चों को माँ बाप ने बड़े प्यार से अपना पेट काट काट कर अपनी ज़रूरतों को सीमित कर के पहले बच्चों की इच्छा व ज़रूरतों को importance दी और उनका भविष्य कैसै अच्छा रहेगा उसी तरह उनका लालन पालन किया वे ही बच्चे जब माँ बाप को उनकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता है उस समय ,उम्र के उस पड़ाव पर उन्हे अकेला छोड़ कर विदेश में जाकर बस जाते है,और उप्पर से तुर्रा यह कि आप यंहा आ जाओ कह कर अपने कर्तव्य की इति श्री करेलेते है,और माँ बाप जब उनके पास उन्हीं की सेवा करने जाते है तो उन्हे कैसा लगा? या उनका वहाँ क्या स्थान था? वे अपनी असल ज़िंदगी में क्या है और वहाँ जाकर क्या बन गये उनकी पहचान क्या रह गई ? आदि बातों पर ग़ौर करना तो दूर सोचते तक नहीं ,शर्म करना तो बड़ी दूर की बात है उलटा माँ बाप ही शर्म के मारे किसी को कुछ कह नहीं पाते सिवा इसके कि वहाँ मन नहीं लगता ।अब माँ बाप बच्चों को ज़्यादा पढ़ाने से भी डरने लगेंगें ।
नौकर का पुलिस वेरिफिकेशन ज़रूरी है जो सब नहीं कराते .दूसरी बात सरकार खुद ही क़ानून का पालन करना भूल गई है .गृह मंत्री को यह इल्म नहीं है वह क्या बोल रहें हैं .’चुप्पा
मुंह’,किसी भी घटित पर
हफ्ते से पहले खुलता नहीं है .विदेशों में बुजुगों के लिए विशेष आवास हैं जहां उन्हें सहायक भी मयस्सर हैं ,शेष जीने का ज़रूरी सामन दवा दारु भी .स्वास्थ्य कर्मी विजिट के लिए आता है .हमारे यहाँ नेता लोग कुनबा परस्ती में लगें हैं देश जाए भाड़ में .विदेशों में हाड तोड़ मेहनत करते हैं हमारे बच्चे भले जीवन की बुनियादी सुविधाएं 24x7x365 मयस्सर हैं सब क़ानून
का पालन करते हैं .क़ानून कानूनी ढंग से लागू होता है सामने वाले का मुंह देखके नहीं .वहां बुजुर्गों और बच्चों को विशेष तवज्जो प्राप्त है .पैसा वहां इफरात से नहीं है अलबत्ता गुज़ारा मज़े से होता है .साल के अंत में वह पैसा भी मिलता रहता है जो आप भारी कर के रूप में साल भर चुकातें हैं .बढिया पोस्ट .बुजुर्गों की इज्ज़त का केंद्र घर है .बच्चे सब देखते हैं .मम्मी पापा अपने मम्मी पापा से कैसे बोलते बर्ताव करते हैं यह भी ,वैसे ही बन जाते हैं .
शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .