इन दिनों अन्य शहरों में आवागमन बना रहा, इसकारण दिमाग के विचारों का आवागमन बाधित हो गया। नए-पुराने लोगों से मिलना और उनकी समस्याएं, उनकी खुशियों के बीच आपके चिंतन की खिड़की दिमाग बन्द कर देता है। जब बादल विचरण करते हैं तब वे सूरज के प्रकाश को भी छिपा लेते हैं, ऐसा ही हाल हमारे विचरण का भी होता है कि दिमाग रोशनी नहीं दे पाता। लेकिन अनुभव ढेर सारे दे देता है यह विचरण। न जाने कितने लोगों से मिलना होता है, कितनी बातचीत होती है और न जाने हम कितनी बात अपनी उन तक पहुंचा पाते हैं! एक अनुभव आया कि आप किसी ऐसे व्यक्ति के अतिथि बन जाते हैं जो आपके व्यक्तित्व से अपरिचित है तब आनन्द नहीं आता। वह या तो आपको बोझ मान लेता है या फिर अहसान जताने लगता है। ना वह आनन्द पाता है और ना ही हम। इसलिए इस विचरण में एक बात समझ में आयी कि अतिथि उसी के बनिए जो आपके व्यक्तित्व से परिचित हो। इस समय मुझे विवेकानन्द का स्मरण हो रहा है। वे बहुधा इसी स्थिति में फंस जाते थे। वे एकबार ऐसे व्यक्ति के घर जा पहुँचे जहाँ उन्हें युवा भिखारी समझकर अपमानित किया गया। थोड़ी देर के वार्तालाप के बाद स्थिति पलटी। फिर तो वह व्यक्ति उनका अनन्य भक्त बन गया। लेकिन अपने जैसे साधारण लोगों को तो पूर्व में ही अपना ठिकाना निश्चित करके जाना चाहिए। परिवार में भी यही होता है, आप कहीं प्रिय होते हैं और कहीं प्रिय नहीं होते, तब भी अप्रिय प्रसंग उत्पन्न होते हैं।
इन सारी मानसिकता के पीछे व्यक्ति का एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव या अभाव होता है। अभी इसी विचरण में एक मंच पर सम्मान की परिभाषा मेरे अन्दर से निकल आयी और वह परिभाषा श्रोताओं को भी पसन्द आ गयी। मैंने कहा कि सम्मान का अर्थ होता है – हम आपको अपने समान मान देते हैं। पूर्व में राजा किसी कलाकार को सम्मान देता था तो उसका यही भाव होता था कि राज-दरबार आपको सम्मानित करता है, अर्थात आप अब इस दरबार के समान मान प्राप्त करने वाले बन गए हो। कलाकार या विद्वान की जीवनभर की साधना पूर्ण हो जाती थी। राजा गए और लोकतंत्र में सरकारें आयीं। अब सरकार सम्मान देने लगी, उसमें भी कलाकार को इसी समानता का भाव अनुभव होता था। लेकिन अब संस्थाएं व्यक्ति को सम्मानित करती हैं, तब उसमें क्या भाव रहता है? इसपर हमें चिंतन तो करना ही चाहिए। अक्सर अनावश्यक सम्मानों से व्यक्ति के अहंकार की पुष्टि होती है और उसके अन्दर का प्रेम कहीं छूट जाता है। जब व्यक्ति को सम्मानित किया जाता है तब वह स्वयं को विशेष समझने लगता है और इसी विशेषता के कारण वह आशा करता है कि उसके आसपास के लोग भी उसका सम्मान करें। जब उसके आसपास के लोग उसका सम्मान नहीं करते तो वह उनसे दूर जाने लगता है और प्रेम बादलों के पीछे छिप जाता है। कभी-कभी हम स्वयं को इतना विशेष मान बैठते हैं कि सारे ही अन्यजन अविशेष लगने लगते हैं। ऐसे में प्रत्येक अवसर पर हम स्वयं को विशेष सिद्ध करने पर तुल जाते हैं और उससे प्रेम का समूल नाश हो जाता है।
जब प्रेम का नाश होता है तब उसके स्थान पर द्वेष जन्म लेता है। यह द्वेष कभी-कभी बहुत ही खतरनाक स्थिति तक जा पहुँचता है। प्रमोद महाजन की हत्या उसी के भाई के द्वारा की जाना, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। परिवारों में द्वेष का कारण अधिकतर यही समस्या होती है। इसलिए जो अपने परिवार में इस विशेषता को जूते की तरह घर के बाहर उतारकर आता है, वह प्रेम बनाए रखता है लेकिन जो इस जूते को रसोईघर तक भी ले जाता है वह बीमारी के कीटाणुओं की तरह द्वेष को निमन्त्रित कर लेता है। समाज और परिवार वास्तविक सम्मानित व्यक्ति को सम्मान देते हैं लेकिन जिन लोगों ने स्वयं को ही विशेष बना लिया हो, उसका वे सम्मान नहीं करते। इसलिए आज खरपतवारों की तरह उग आए सम्मानों को प्रेमहन्ता के रूप में देखना चाहिए। इसका विश्लेषण भी स्वयं को करते रहना चाहिए। यदि मुझे सरकार कोई सम्मान देती है तो वह सम्मान सरकार और मेरे बीच है, यह आवश्यक नहीं कि समाज या परिवार ने भी आपको इस सम्मान के कारण विशेष दर्जा दे दिया है। इसलिए आप परिवार में यह अपेक्षा ना करें कि आपको कोई भी इस सम्मान के लिए विशेष मानेगा। परिवार में या समाज में आपको विशेष तभी माना जाएगा जब आप उनके लिए कोई कार्य करेंगे। उनके सुख और दुख में उन्हें अनुभूत करा देंगे कि हम आपके साथ हरपल हैं, तब वे आपको सम्मान देंगे और आपको प्रेम करेंगे। आपने भी अनुभव किया होगा कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपके कठिन समय में आपके पास पूर्ण मनोयोग से खड़े रहते हैं। उनके लिए आपके मन में सम्मान का भाव जागृत हो जाता है अर्थात् आप जितना मान स्वयं को देते हैं उतना ही मान उस व्यक्ति को देने लगते हैं।
लेखन का मूल भाव यही है कि विचरण करते रहने पर बहुत अनुभव होते हैं। बादल सारी दुनिया की खबर रखते हैं, सूरज, चाँद, पृथ्वी सभी विचरण करते हैं और सारी दुनिया के कण-कण को पहचानते हैं। कहाँ अतिथि बनना चाहिए, कहाँ नहीं बनना चाहिए – कहाँ प्रेम है, कहाँ द्वेष हैं, कहाँ सम्मान है और कहाँ अपमान है, सभी का भान हो जाता है। एक अनुभव और हुआ – व्यक्ति स्वयं को ज्ञानवान समझ लेता है, वह अपने अनुभवहीन ज्ञान को दूसरों पर थोपने की जल्दी भी करता है। जैसे ही कोई व्यक्ति उसे अपने अतिथि के रूप में मिला, बस वैसे ही उसके ज्ञान का पिटारा खुल जाता है। मानो सामने वाला व्यक्ति उसी समय धर्मान्तरित होकर आपका भक्त बन जाएगा। व्यक्ति आपकी बहस से भक्त नहीं बनता अपितु आपके आचरण से भक्त बनता है। इसलिए कई बार हम बहुत ही छोटे समझे जाने वाले व्यक्ति के आचरण से प्रभावित हो जाते हैं और उसका आचरण हमारे लिए उदाहरण बन जाता है। इसकारण आपके घर कोई भी अतिथि आए, उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी लें और फिर अपने आचरण से उसका मन जीतने का प्रयास करें। यदि वह व्यक्ति समाज में सम्मान प्राप्त है तो उसके ज्ञान और अनुभव का लाभ उठाए, ऐसे समय अपने अनावश्यक ज्ञान से बहस का वातावरण नहीं बनाएं। बस आप भी विचरण करते रहिए और अपनी झोली में ढेर सारे अनुभवों के बेर तोड़ लीजिए। बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (01-112-2013) को “निर्विकार होना ही पड़ता है” (चर्चा मंचःअंक 1448)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
उम्दा और सटीक आकलन करता आलेख बहुत दिनो से सम्मानों पर ही कुछ लिखने का मन था और आपने बहुत कुछ लिख दिया इसी में आभार
वन्दनाजी, लिखिए आप भी क्योंकि अभी बहुत कुछ शेष है। जब मैंने लिखा तब केवल मेरा अनुभव है इसलिए सभी लिखेंगे तो अनेक पहलु निकलकर आएंगे।
जी बिल्कुल दुरुस्त परमाया है आपने..न तो अपने को ज्ञानवान समजो.न ही विशेष…
सम्मान की परिभाषा और उसका विश्लेषण, वर्त्तमान परिस्थितियों के बीच बदलते मानदंड.. एल बार फिर आपका यह लेख एक नए विचार को जन्म देता है और मनन करने पर विवश करता है! डॉक्टर दी, धन्यवाद!!
सलिल जी आपका आभार। लेखन जब समाज के बीच जाकर, अपने अनुभव से किया जाता है तब कुछ नवीन जरूर निकलता है। लेकिन यदि पुस्तक पढ़कर लेखन करते हैं तब उसी पुरातन का उलटफेर होता है।
जहाँ प्रेम अधिक होता है, अपेक्षायें अधिक होती हैं, वहीं पर ही पीड़ा अधिक भरमाती है।
एअरपोर्ट के पास रहने वाले एक सज्जन की शिकायत थी कि उसके गांव से जो लोग विदेश की फ़्लाइट लेने आते थे वे उसके घर, होटल की तरह आ कर टिक जाते थे. होटल का स्थानापन्न यदि घर हो तो शायद संबंध गौण हो ही जाते हैं.
काजल कुमार जी, यह व्यथा तो सभी की रहती है, परिवार की बात जब आती है तब आपके आपसी सम्बंधों पर सभी कुछ निर्भर करता है। दिल्ली में हमें भी कठिनाई आती है, यदि किसी रिश्तेदार के घर रुकते हैं तो उनका यही सोच होता है कि हम तो पेरशान है लेकिन यदि होटल में रुकते हैं तो उलाहना मिलता है। इसलिए परिवारों में तो मधुरता ही स्थापित करनी पड़ती है। यह तभी होता है जब हम उनके साथ हमेशा खड़े दिखायी दें।
सहमत हूँ आपकी बात से पर कई बार यह अपेक्षा भी फसाद की जड़ बन जाती है। जब हम किसी के घर जाते हैं तब न सिर्फ हम बल्कि सामने वाला व्यक्ति भी हम से और हम उस से कुछ चाही अनचाही अपेक्षाएँ बना लेता है और जब वह अपेक्षाएँ किसी भी कारण वश पूरी नहीं हो पाती तो यह अनुभव होता है तब ऐसा लगता है कि वह या तो आपको बोझ मान लेता है या फिर अहसान जताने लगता है और ऐसे में ना वह आनन्द पाता है और ना ही हम।
पल्लवीजी, मेरा भी यही कहना है कि जब आप स्वयं को विशेष मानने लगते हैं तब दूसरों के लिए आप बोझ बनने लगते हैं। इसलिए परिवार में हमेशा सामान्य ही रहना चाहिए।
अजित जी
बहुत ही अच्छा लेख लिखा । कम से कम इस अनुभव के लिए हमें ज्यादा घूमने की जरुरत नहीं है, यही ब्लॉग जगत में मैंने देखा की लोग बाहर से पाये उल जुलूल सम्मानो से इतना सीना फुलाए बैठे थे जैसे की हर अगले को उनके सामने नतमस्तक ही हो जाना चाहिए था जबकि उन का व्यवहार, उनकी सोच और बाते हद दर्जे का घटिया थी , नया आने वाला उनके वर्तमान व्यवहार को देखेगा या कही मिले किसी सम्मान को , ऐसे लोगो को बढ़ावा वो लोग भी देती है जो बेमतलब के ऐसे लोगो के सामने बिछे जाते है उनकी तारीफ में बेमतलब का बोल बोल कर उन्हें और चने के झाड़ पर चढ़ा देते है । किसी उपाधि से आप का सामान नहीं होता है आप का चरित्र आप का व्यवहार सामने वाले को प्रभावित करता है और सम्मान उससे मिलता है
बढ़िया विषय लिया है आपने, सम्मान पाने की इच्छा ही उस व्यक्ति को अयोग्य घोषित करती है ! आभार . .
वाकई मंथन की जरूरत है, शुभकामनाएं.
रामराम.
अपेक्षाएं तो कम नहीं होती … कभी कभी लगता है होनी भी चाहियें …