अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

सपनों का अन्तर

Written By: AjitGupta - May• 25•16

पूना की सब्जीमण्डी, फल और सब्जियों से लदे हुये मण्डी के आंगन। कहीं सब्जी से लदे ट्रक आ रहे थे तो कहीं वापस लदकर जा रहे थे। मण्डी में ट्रक, ऑटो की भरमार थी, शायद इन सबके पास मण्डी में आने का लाइसेंस था, हमें तो हमारी गाडी मण्डी के बाहर ही रखनी थी। कहीं भी चैन से खड़े रहने का स्थान नहीं। हमें थोक में सब्जियां खरीदनी थी। मैं सब्जियों से भरे थैलों के साथ खड़ी थी, तभी एक बच्चे ने पास आकर कहा कि बेग उठाकर ले चलूं? बच्चा 10 साल का रहा होगा, उसके साथ उसकी बहन भी थी। मैंने कहा नहीं बेटे, अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है, काम करने की नहीं है। मण्डी के बाहर तक सामान ले जाने के लिये अनेक मजदूर घूमते रहते हैं, वे सामान को गाडी तक पहुँचाने में मदद करते हैं।
नहीं, साथ में मेरे माता-पिता भी हैं, बच्चे ने कहा। तभी उसकी माँ भी आ गयी। मैंने माँ का नाम पूछा, उसने बताया – मंगला। ठीक है, जब हमें जाना होगा मैं आवाज लगा दूंगी। लेकिन कुछ देर बाद ही उस बच्चे ने फिर पूछा, चले?
तुम पढ़ते नहीं हो? मेरा प्रश्न था।
मैं पढ़ता हूँ, अभी छुट्टियां हैं।
फिल्म “नील बटे सन्नाटा” दिमाग में ठक-ठक करने लगी। माँ की जिद ने बेटी को कलेक्टर बना दिया था। यहाँ माता-पिता के पास सपने ही नहीं थे। वे निर्मम सत्य के धरातल पर खड़े थे।
माता-पिता ने जन्म के साथ ही उन्हें उनका भविष्य समझा दिया था। अभिमन्यु की तरह घोट-घोटकर सिखा दिया गया था कि तुम मजदूर हो और तुम्हारा भविष्य यही है। वे भी इसी सोच के साथ बढ़ रहे थे, उनके दिमाग ने भी आगे सोचना बन्द कर दिया था। मुझे अमेरिका में किये जाने वाले एक प्रयोग का ध्यान आ गया। वहाँ के माता-पिता बच्चे के जन्म के साथ ही उन्हें अलग कमरे में सुलाते हैं और रात को जब बच्चा रोता है तब वे ध्यान नहीं देते। उनका मानना है कि आप पाँच दिन धैर्य रखिये, छठे दिन बच्चा रोना बन्द कर देता है। फिर वह बच्चा जिन्दगी भर रोकर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास नहीं करता।
बच्चा रोता क्यों हैं? वह आपका ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करता है। जब पाँच दिन तक उसका प्रयास विफल हो जाता है तब वह इस क्रिया को ही भूल जाता है। इसलिये आप देखिये, अमेरिका के बच्चे जिद नहीं करते और ना ही रोने का उपक्रम करते हैं। इसलिये पहले दिन से ही बच्चे का लालन-पालन जिस प्रकार होता है, उसका जीवन वैसे ही बनता है।
सम्पूर्ण वैभव से सुसज्जित मॉल, जहाँ दुनिया के वैभव का प्रदर्शन खुलेआम हो रहा हो, यदि वहाँ कोई अबोध बालक खिलौने के लिये मचल जाए तो अस्वाभाविक नहीं होगा। एक पाँच वर्षीय बालिका सजी-धजी बार्बी डॉल के लिये मचल गयी। रोना-धोना शुरू हो गया। पिता ने तगड़ी डांट भी पिला दी लेकिन कुछ हुआ नहीं। हमने अपनी खरीददारी पूर्ण की और बिल की लाइन में लग गये। वहाँ देखा वही बालिका डॉल को अपने से चिपकाये घूम रही है। जिद जीत चुकी थी। रूठी बालिका के लाड़ करने का एक और दृश्य दिखायी दे गया जब उसे पिता के साथ अकेले फूड-कोर्ट में देखा।
एक तरफ मजदूर बालक खड़ा था तो दूसरी तरफ बार्बी डॉल लिये बालिका। लालन-पालन का अन्तर, सपनों का अन्तर, जमीनी सच्चाई का अन्तर सामने था। शायद गरीब बच्चे के पास सपने नहीं होते और अमीर बच्चों के पास सपनों के अतिरिक्त जमीनी सच्चाई नहीं होती। जिसकी मुठ्ठी में चन्द पैसे आ गये हैं वह अपने अतीत के सपनों में खो जाता है और उसकी भरपायी अपने बच्चों के माध्यम से करने की चाह रखने लगता है। अमीरों ने जिद का संसार बसा लिया है और गरीब सूत भर पाकर ही खुश हो लेता है। उन दो मासूम भाई-बहन के सपने मण्डी की भेंट चढ़ गये थे। उनके माता-पिता को भरपूर रोजगार मिलने पर ही उनकी आँखों में भी सपने आ सकेंगे।
अब गेंद हमारे पाले में आ गयी थी, वे मजदूर हैं और उनका भविष्य भी शायद यही है तो हमें उन्हें काम देना चाहिये या नहीं? पूरा परिवार सुबह 4 बजे से मजदूरी मिलने की आस में मण्डी में आया हुआ है, दिनभर में 100-200 कमा लेंगे और फिर सारे दिन का गुजारा हो जाएगा। बच्चों के कहाँ छोड़कर आते? उन्हें भी तो सिखाना ही है, छोटा-मोटा थैला पकड़ाकर अभ्यास चालू करना उनकी मजबूरी है। फिर भीख तो नहीं मांग रहे? क्या पता मण्डी की अफरा-तफरी में ही इनकी आँखों में सपने सज जायें। बचपन को आवारा छोड़ दिया गया तो एक दिन मॉल का वैभव इन्हें अपराध की राह पर ले जाने में सक्षम बन जाएगा। मन ने निश्चय किया और आवाज लगा दी – मंगला, आजा।

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