तृतीय खण्ड – गतांक से आगे –
स्वामी विवेकानन्द के लिए राजपुताने का महत्व सर्वाधिक रहा है। राजपुताना ही ऐसा प्रदेश था जहाँ उन्होंने व्यापक स्तर पर बौद्धिक चर्चाएं प्रारम्भ की। सभी वर्गों और सभी सम्प्रदायों को अपने ज्ञान से अभिभूत किया। उनके पास राजा भी नतमस्तक हुए और रंक भी, उनके पास हिन्दु भी आए और मुसमलमान भी। वृन्दावन से निकलकर उन्होंने राजपुताने का रुख किया और सर्वप्रथम अलवर आए। रेल यात्रा के उनके पास पैसे नहीं होते थे, क्योंकि वे अपनी जेब में कभी पैसे नहीं रखते थे। वृन्दावन में स्टेशन पर वे रेल की प्रतीक्षा में बैठे थे लेकिन ना उन्होंने भोजन किया था और ना ही उनके पास रेल यात्रा के लिए पैसे थे। वहाँ के स्टेशन मास्टर ने उन्हें भोजन भी कराया, उनका शिष्य भी बना और रेल यात्रा का किराया भी दिया। अलवर स्टेशन पर उतरते ही उनके सामने समस्या थी कि कहाँ जाया जाए? वे पैदल ही निकल पड़े और बाजार में पहुँचकर उन्होंने देखा कि एक दुकान पर औषधालय का बोर्ड लगा है। वे वहीं बैठ गए। कुछ देर में डॉक्टर वहाँ आए, डॉक्टर बंगाली थे और एक बंगाली संन्यासी को अपने द्वार पर देखकर गदगद हो गए। उन्होंने उनके लिए बाजार में ही एक कमरे की व्यवस्था की और अपने एक मित्र को उनकी सेवा में लगा दिया। डॉक्टर मोशाय ने कहा कि जब तक मैं अपने रोगियों को देखता हूँ तब तक मेरा यह मित्र आपकी सेवा करेगा। मित्र का नाम था जमालुद्दीन। जमालुद्दीन पहले तो नरेन्द्र की परीक्षा लेता रहा लेकिन फिर उसे लगा कि वे ज्ञान के भण्डार है तब उसका सिर श्रद्धा से झुक गया। सारे मुल्ला-मौलवियों के विरोध के बावजूद नरेन्द्र ना केवल उसके घर गए अपितु उसके यहाँ भोजन भी किया। अलवर के युवा राजा, अंग्रेजीयत के रंग में रंगे थे और मूर्तिपूजा के विरोधी थे। वहाँ के दीवान चाहते थे कि किसी तरह राजा मंगल सिंह धर्म की तरफ मुड़े और प्रजा के कल्याण के बारे में सोचे। नरेन्द्र अलवर के कम्पनी बाग में ध्यान लगा रहे थे और राजदरबार के एक अधिकारी की उन पर नजर पड़ गयी। बातचीत के बाद वे प्रभावित हुए और आग्रह पूर्वक अपने घर ले आए। अलवर के दीवानजी के पास भी स्वामीजी का प्रभाव पहुंचा और दीवान जी ने उनसे आग्रह किया कि वे उनके घर पर ठहरें। नरेन्द्र ने कहा कि आपका घर जन-सामान्य के लिए खुला हुआ नहीं है और मुझसे मिलने तो जन-सामान्य ही आते हैं। दीवान जी ने अपना घर जन-सामान्य के लिए खोल दिया। बस वे चाहते थे कि किसी भी तरह एक बार राजा स्वामीजी से मिल लें। राजा आए और उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया। स्वामी ने दीवान जी को कहा कि आपके यहाँ जो राजा का चित्र लगा है उसे आप उतारें। दीवान ने चित्र उतार दिया। अब स्वामी ने कहा कि आप इस पर थूक दें। दीवान भला ऐसा कैसे कर सकता था? स्वामी ने कहा कि यह केवल चित्र है इसमें राजा नहीं है, आपको क्या आपत्ति है? राजा को समझ आ गया था कि जिस प्रतीक को हम ईश्वर मानते हैं उसे ही हम पूजते हैं।
अलवर से स्वामी जयपुर गए और जयपुर से माउण्ट आबू। आबू पर्वत पर उनको मुंशी फैज अली मिले। वे किशनगढ़ रियासत के वकील थे। स्वामी एक दिन एक गुफा में बैठकर तपस्या कर रहे थे और वहीं मुंशी फैज अली ने उन्हें देखा। मुंशी जी उन्हें अपनी कोठी पर ले आए। आबू पर्वत पर राजपूताने के राजाओं की कोठियां थी, क्योंकि गर्मियों में अंग्रेज सरकार आबू पर्वत पर आ जाती थी। इसी कारण उनकी हाजिरी में राजाओं, दीवान और वकीलों को वहाँ रहना पड़ता था। मुंशीजी ने समझ लिया कि स्वामी जी का व्यक्तित्व अद्भुत है। वे उन्हें खेतड़ी के राजा अजीत सिंह के महल में ले गए। अजीत सिंह धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, वे स्वामीजी से मिलकर प्रसन्न हुए। उनके दरबार में स्वामीजी की धर्म चर्चा प्रतिदिन होने लगी। स्वामी जी से जब उनका नाम पूछा जाता तो वे कहते कि संन्यासी का क्या नाम? लेकिन वे अक्सर अपना नाम बताते थे – विविदिशानन्द। कहते थे कि मैं ईश्वर का अन्वेषी हूँ। राजा अजीत सिंह ने उन्हें अपने साथ खेतड़ी चलने का निमंत्रण दिया। स्वामी, अजमेर, ब्यावर होते हुए खेतड़ी पहुंचे। राजा ने उन्हें अपने महल में ही ठहराया।
खेतड़ी दरबार का एक प्रकरण है – दरबार लगा था और एक गायिका ने गायन की अनुमति मांगी। राजा अनमने थे लेकिन गायिका ने कहा कि मैं भजन ही गाऊँगी, मैं स्वामीजी के समक्ष अपना भजन प्रस्तुत करना चाहती हूँ। लेकिन स्वामीजी को लगा कि मैं संन्यासी और एक गायिका से भला कैसे संगीत सुन सकता हूँ? वे उठकर जाने लगे लेकिन महाराज ने उन्हें रोक लिया। गायिका मैना बाई ने गाना प्रारम्भ किया – प्रभु मोरे अवगुण चित्त ना धरो। स्वामीजी को लगा कि मैं संन्यासी होकर भी कैसे एक स्त्री को अन्य रूप में देख पाया? प्रत्येक स्त्री माँ स्वरूप है और सभी में एक ही आत्मा है। उन्हें अपनी भूल का अनुभव हुआ और वे उठकर गायिका के पास गए। बोले कि माता, मुझसे अपराध हुआ है, मुझे क्षमा करो। तुम मेरी ज्ञानदायिनी माता हो। राजा अजीत सिंह के कोई संतान नहीं थी। वे जानते थे कि संतान ना होने की स्थिति में अंग्रेज सरकार उनकी रियासत को अपने अधीन कर लेगी। वे आध्यात्म में रम चुके थे लेकिन उनकी रानी और सभासदों को चिन्ता थी कि यदि राज्य का वारिस नहीं हुआ तो सारी रियासत हाथ से चले जाएगी। रानी ने अजीत सिंह को कहा कि आप स्वामीजी से कम से कम संतान प्राप्ति का वरदान ही मांग लो। लेकिन राजा कुछ मांगना नहीं चाहते थे वे तो स्वयं संन्यास लेना चाहते थे। उन्होंने स्वामीजी को कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ लेकिन स्वामीजी ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। अब राजा बोले कि तब आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरे पुत्र हो। स्वामीजी ने उनके सिर पर हाथ रख दिया।
राजा अजीत सिंह चाहते थे कि स्वामीजी हमेशा वहीं बने रहें लेकिन भला बहती हुई गंगा को कौन रोक सकता है? वे गुजरात, महाराष्ट्र होते हुए दक्षिण पहुंच गए। कहीं उन्हें भक्त मिले तो कहीं संन्यासियों के विरोधी लोग मिले। लेकिन उन्होंने सभी को अपना बना लिया। तब 1893 चल रहा था और अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व धर्म संसद होने वाली थी। मद्रास के उनके भक्त चाहते थे कि स्वामी धर्म संसद में जाएं और हिन्दु धर्म और वेदांत के बारे में अपना पक्ष रखें। लोग बहुत उत्साहित थे, उन्होंने चन्दा एकत्र करना प्रारम्भ किया। स्वामीजी कहते रहे कि जब तक माँ का आदेश नहीं मिल जाता मैं अमेरिका नहीं जाऊँगा। वे रामेश्वरम जाना चाहते थे। इसलिए मद्रास से वे हैदाराबाद आए और रामेश्वरम में सेतुपति से मिले। राज दरबार में उनका स्वागत हुआ और सेतुपति ने उन्हें दस हजार रूपए देने की घोषणा भी की। लेकिन स्वामी ने मना कर दिया। वे बोले की राजन अभी मैं माँ के आदेश की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, समय आने पर आपसे निवेदन करूंगा। लेकिन सेतुपति ने इसे अपनी अवमानना समझा।
बढ़िया उपयोगी श्रंखला …
आभार आपका !
प्रेरक प्रसंग, मूर्ति पूजा का अपना महत्व है..
बहती हुई गंगा को कौन रोक सकता है….
ज्ञान बहता ही ऐसे है निर्बाध निर्मल कलकल…
उनके विचार सदैव तार्किक और स्पष्टता लिए रहे ….. उनसे जुड़े सभी प्रेक प्रसंग यूँ श्रृंखलाबद्ध कर पढवाने का आभार …
बेहद रोचक और प्रेरक|
पिछले दिनों पुस्तक मेले में अपना एक मित्र भी मूर्तिपूजा के विरोध करने वालों के स्टाल में इसी बात पर उलझ गया था कि आप मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं तो आपके स्टाल पर जो यह तस्वीर लगी है, यदि इस पर थूक दिया जाए तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे? बड़ी मुश्किल से मामला बिगड़ने से बचा| मूर्तिपूजा में विश्वास रखना न रखना व्यक्तिगत आस्था की बात है, लेकिन दूसरों के विश्वास का सम्मान करना सामान्य सहिष्णुता का हिस्सा है और इस बात को समझना चाहिए|
स्वामी विवेकानंद एक प्रेरणास्पद व्यक्तित्व रहे हैं, अगली कड़ियों का इन्तजार रहेगा|
संजय भाई
इसी कारण विवेकानन्द ने कहा कि आप अपना धर्म करें और दूसरों का विरोध ना करें। क्योंकि विरोध करने पर आप केवल विरोध ही करते हैं, अपना धर्म भूल जाते हैं। आज समाज सुधार के नाम पर हिन्दुओं के कई टुकड़े हो गए और विश्व में यह मत स्थापित हो गया कि हिन्दु समाज में ही केवल बुराइयां हैं। जबकि सभी समाजों में सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है।
सिलसिलेवार ढंग से बहुत कुछ जानने को मिल रहा है।
विवेकानंद जी के जीवन से बहुत कुछ सीखने वाला है … रोमांचित करता है …
इस श्रंखला का धन्यवाद …
विवेकानंद जी पर आधारित यह शृंखला ज्ञानवर्धन कर रही है !