हम अक्सर कहते हैं कि घर ईंट पत्थरों से बने होते हैं, भला उनमें मन कहाँ होता है? लेकिन घर के अन्दर भी मन होता है। जब हम घर की चाहत रखते हैं तब घर हमारे सामने आ खड़ा होता है लेकिन जब हम घर से दूर भागते हैं तो घर भी हमारी आँखों से ओझल हो जाता है।
हमें बेटे-बहु के साथ यात्रा करनी थी, जिस शहर से रेल पकड़नी थी वहाँ मेरे परिवार का घर था। मैंने कहा कि घर पर खाना खाकर रेल पकड़ लेंगे, लेकिन बेटे ने घर के लिये साफ मना कर दिया। नयी पीढ़ी रिश्तों से दूर भागती है तो मैंने भी जिद नहीं की। स्टेशन पर ही अपने भाई को बुलाया और वहीं उसका सभी ने आतिथ्य स्वीकार किया। लेकिन इस सब में घर रूठ गया। वापसी की यात्रा में जब घर पर रुकना चाहा तो ना फोन लगा और ना ही घर मिला। हम भटककर वापस लौट आये।
एक सप्ताह बाद ही मेरी एक मित्र हमारे शहर में अपने बेटे के साथ घूमने आयी। उसने भी अपने बेटे से हमारे घर आने की जिद नहीं की। क्या पता बेटा कह दे कि हमें किसी के घर नहीं जाना है। हम ही उनके होटल पहुंच गये और देर रात तक साथ रहे। दूसरे दिन मैंने संकोच से ही कहा कि खाने पर घर आ जाओ, वे आ गये। उनका बेटा भी घर आकर खुश लगा। खैर बात आयी गयी हो गयी। अचानक दो महिने बाद मेरी मित्र के बेटे को वापस हमारे शहर आना पड़ा, उसका फोन आया कि आण्टी मैं घर आऊंगा। दूसरे दिन बताया कि रात को साढ़े आठ बजे आऊंगा, मैं इंतजार करने लगी। अभी सात ही बजे थे कि बाहर खटखट हुई, मैंने देखा तो मित्र का बेटा खड़ा था। बोला कि हमारी बस जैसे ही घर के सामने से निकली मैंने घर पहचान लिया और बस से उतर गया। वास्तव में घर ने उसे पहचान लिया था और घर ही उसके सामने आ खड़ा हुआ। इसलिये ही मैंने जाना कि घर के भी मन होता है।
बहुत ही महीन, मौलिक बात कही है आपने. आजकल घर ढूंढे से नहीं मिलते. सब घरों के मन बदल गए हैं. घरों ने हमें अपने घरों से निकाल बाहर कर दिया है.
अाभार रतलामी जी।